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कोटा का सबक: हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर न सुधरा तो मरते रहेंगे बच्चे

ज्यादातर देशों के मुकाबले भारत की शिशु मृत्यु दर खराब 

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वीडियो एडिटर: विवेक गुप्ता

1 जनवरी को भारत में 67,385 बच्चों ने जन्म लिया. चीन भी हमसे पीछे रहा. नए साल में खिलखिलाती किलकारियों की ये खबर पढ़ते हुए मेरे जहन में कोटा के नवजात बच्चों की चीखें गूंज रही थीं. कभी यूपी का गोरखपुर, कभी बिहार का मुजफ्फरपुर तो कभी राजस्थान का कोटा. हर बार, सैंकड़ों मासूमों की मौत को राजनीतिक बयानों के ठंडे बस्ते में डालकर सिस्टम की उस खूंटी पर टांग दिया जाता है जहां किसी का हाथ नहीं पहुंचता.

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  • आखिर क्यों इन मौतों के लिए किसी को हत्यारा नहीं ठहराया जाता?
  • आखिर क्यों ये मौतें कभी चुनावी मुद्दा नहीं बन पातीं?

कथा जोर गरम है कि...

राजस्थान में कोटा जिले के जेके लोन अस्पताल में तकरीबन एक महीने में बच्चों की मौत का आंकड़ा 100 की संख्या पार कर चुका है और लगातार बढ़ रहा है. हमेशा की तरह संवेदनाशून्य बयानबाजियों और सियासी कुतर्कों की आड़ में असल समस्या को नकारने की कोशिशें जोरों पर हैं.

राजस्थान में सरकार कांग्रेस पार्टी की है सो यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ से लेकर बीएसपी सुप्रीमो मायावती तक कांग्रेस पार्टी को घेरने का कोई मौका छोड़ना नहीं चाहते. केंद्र सरकार भी मौके पर चौका मारने में पीछे नहीं है.
ज्यादातर देशों के मुकाबले भारत की शिशु मृत्यु दर खराब 
कोटा के जेके लोन अस्पताल में महीने भर में बच्चों की मौत का आंकड़ा 100 की संख्या पार कर चुका है
(फोटो: पीटीआई)

NCPCR की रिपोर्ट

लेकिन इन सबसे अलग अगर इस हादसे की वजहों और हालात पर बात करें तो राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग यानी NCPCR की चौंकाने वाली रिपोर्ट सामने आती है.

रिपोर्ट के मुताबिक अस्पताल की खस्ता हालत और साफ-सफाई को लेकर बरती जा रही लापरवाही बच्चों की मौत का अहम कारण है.

  • अस्पताल की खिड़कियों में शीशे नहीं हैं.
  • दरवाजे टूटे हुए हैं.
  • जिसकी वजह से अस्पताल में भर्ती बच्चों को मौसम की मार झेलनी पड़ती है.
  • अस्पताल के कैंपस में सूअर घूमते हैं.

अब आप खुद अंदाजा लगाइए.. कोटा देश के किसी दूर-दराज कोने में बसा कोई गांव नहीं है.. राजस्थान जैसे संपन्न राज्य का एक अच्छा-खासा जिला है जहां आईआईटी के एंट्रेंस एग्जाम की तैयारी के लिए हजारों छात्र हर साल आते हैं.

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सरकार के एजेंडे में नहीं है स्वास्थ्य

कुल मिलाकर ‘हेल्थ’ यानी ‘स्वास्थ्य ‘सरकार के एजेंडे पर ही नहीं है. बच्चों की मृत्यु दर को लेकर 18 सितंबर, 2018 को जारी यूनाइटेड नेशंस के इंटर-एजेंसी ग्रुप की रिपोर्ट के मुताबिक शिशुओं की मौत के मामले में भारत का रिकॉर्ड बेहद खराब है.

ज्यादातर देशों के मुकाबले भारत की शिशु मृत्यु दर खराब 

दुनिया में नवजात शिशुओं की मौत का औसत है 1000 पर 18 जबकि भारत में है 24. एक साल से कम उम्र के बच्चों के मामले में हालत और भी खराब है. दुनिया में एक साल से कम उम्र के बच्चों की मौत का औसत है 1000 पर 12 जबकि भारत में है 32.

हालांकि 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर भारत में विश्व औसत के बराबर है यानी 1000 पर 39. इसमें कोई शक नहीं कि साल-दर-साल आंकड़ें सुधर रहे हैं लेकिन अब भी ये बहुत ज्यादा हैं.

हम डायरिया, निमोनिया, कुपोषण जैसी चुनौतियों से निपटने में नाकाम हैं जो बच्चों की मौत की वजह बनती हैं.

आप जानकार हैरान रह जाएंगे कि यूनाइटेड नेशंस की एक रिपोर्ट के मुताबिक

  • साल 2017 में भारत में 8 लाख, 2 हजार बच्चों की मौत हुई थी.

लेकिन वजह शायद संसाधनों की नहीं बल्कि इच्छा शक्ति की कमी है.

भारत अपनी कुल जीडीपी का 2 फीसदी से भी कम खर्चा हेल्थकेयर पर करता है. दुनिया के ज्यादातर देशों के मुकाबले ये बेहद कम है.

आप ये जानकार भी हैरान रह जाएंगे कि जिस देश में लाखों बच्चे जन्म के साथ ही मर जाते हों वहां डिफेंस का बजट हेल्थ के बजट से करीब पांच गुना ज्यादा है.

साल 2019-2020 के बजट में सरकार ने डिफेंस के लिए (पेंशन समेत) अलॉट किए करीब 4 लाख 31 हजार, 010 करोड़ रुपये जबकि हेल्थ के हिस्से आए 62 हजार, 659 करोड़ रुपये.

शिशुओं की मौत के मामले में भारत श्रीलंका, नेपाल, भूटान और म्यांमार जैसे अपने पड़ोसी देशों से भी पीछे है.

तो अगली बार जब आप कवि प्रदीप का लिखा ये गाना सुनें कि

हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के,

इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के.

तो खुद से कहिएगा कि बच्चे भविष्य में इस देश को संभाले, उससे पहले जरूरी है कि ये देश अपने बच्चों को सलीके से पाले.

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