[ये स्टोरी क्विंट हिंदी पर पहली बार 11 जनवरी, 2018 को पब्लिश की गई थी. शास्त्री जी की जयंती पर हम इसे पाठकों के लिए फिर से पेश कर रहे हैं ]
लाल बहादुर शास्त्री. एक ऐसा नेता, जिसकी लंबाई भले कम रही हो, लेकिन कद बहुत ऊंचा था. इतना ऊंचा कि अपनी मृत्यु के आधी सदी बाद भी वो हर हिंदुस्तानी को प्रेरित करता है.
ऐसे दौर में जब नेताओं का बड़ी-बड़ी गाड़ियों में चलना आम है. एक ऐसे दौर में जब गाड़ी की लंबाई से नेता का कद तय होता हो, शास्त्री बहुत याद आते हैं. वो शास्त्री ही थे, जिन्हें अपनी पहली गाड़ी खरीदने के लिए बैंक से लोन लेना पड़ा था.
लाल बहादुर शास्त्री को समझना हो, देश की राजनीति में उनके कद, किरदार और किस्मत को समझना हो, तो शुरुआत करनी होगी 1964 के उस उथल-पुथल भरे साल से.
मई 1964 में नेहरू की मृत्यु के बाद देश की बागडोर किसके हाथ में सौंपी जाए, ये सवाल सामने आ खड़ा हुआ. देश के भीतर और विदेश में भी कई लोगों को लगता था कि उत्तराधिकार के सवाल पर कांग्रेस पूरी तरह बिखर जाएगी. और शायद ऐसा हो भी सकता था अगर कांग्रेस अध्यक्ष के कामराज दखल नहीं देते. क्योंकि प्रधानमंत्री के दो दावेदार थे- मोरारजी देसाई और लालबहादुर शास्त्री.
देसाई ज्यादा तजुर्बेकार थे. वरिष्ठ भी. लेकिन अक्खड़पन के चलते ज्यादा लोग उन्हें पसंद नहीं करते थे. इसके उलट शास्त्री अपनी ईमानदारी और व्यवहार कुशलता के चलते खासे लोकप्रिय थे. कामराज ने कांग्रेस के बड़े नेताओं के बीच आम सहमति बनाने का काम किया. देसाई को भी राजी किया गया. जिसके बाद 9 जून 1964 को देश की कमान संभाली लालबहादुर शास्त्री ने.
शास्त्री की सबसे बड़ी चुनौतियां
अनाज का संकट
शास्त्री को प्रधानमंत्री पद संभालने के साथ ही उस वक्त की सबसे बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ा. 1965 आते-आते देश गंभीर खाद्य संकट से जूझ रहा था. कई राज्य सूखे की चपेट में थे. तब, शास्त्री ने दो ऐसी चीजें कीं जो शायद सिर्फ वही कर सकते थे. एक इंटरव्यू में उनके बेटे अनिल शास्त्री बताते हैं:
शास्त्रीजी ने एक दिन मेरी मां से कहा कि मैं देखना चाहता हूं कि मेरे बच्चे भूखे रह सकते हैं या नहीं. उन्होंने एक शाम को कहा कि खाना न बने. मैं उस समय 14-15 साल का था. मेरे दो छोटे भाई भी थे. उस शाम हम तीनों बच्चे भूखे रहे. जब शास्त्रीजी को भरोसा हो गया कि उनके बच्चे भूखे रह सकते हैं तब उन्होंने देशवासियों का आह्वान किया कि हफ्ते में एक दिन भोजन न किया जाए.
हफ्ते में एक दिन उपवास के नारे को देश ने बेहद गंभीरता से लिया. शास्त्री की ये तस्वीरें भी उनके प्रण को लेकर काफी कुछ कहती हैं. इन दो तस्वीरों में शास्त्री, प्रधानमंत्री आवास के लॉन में ही हल चलाते नजर आ रहे हैं. वो चाहते थे कि इस अनाज संकट के दौर में देशवासी खाली पड़ी जमीन पर अनाज या सब्जियां जरूर पैदा करें.
1965 का भारत-पाक युद्ध
सिर्फ 3 साल पहले भारत ने चीन के मोर्चे पर युद्ध झेला था.
अब एक और युद्ध शास्त्री के फैसले लेने की क्षमता से लेकर उनके दमदार नेतृत्व के इंतजार में था. इस बार मोर्चा, पाकिस्तान ने खोला था, वो भी कच्छ के रण की तरफ से. भारत ने जवाब देने की कोशिश जरूर की, लेकिन उस इलाके के जमीनी हालात हक में न होने की वजह से भारत की सैन्य कार्रवाई में हिचकिचाहट दिखी. और जैसे पाक को इसी हिचकिचाहट का इंतजार हो. अप्रैल में कच्छ के बाद, अगस्त में कश्मीर में पाकिस्तान ने मोर्चा खोल दिया. पाकिस्तानी घुसपैठिए, करगिल, उरी और हाजी पीर पर कब्जा जमाना चाहते थे.
भारत के लिए ये मुश्किल भरा पल था. कहा जाता है कि लम्हे इतिहास बनाते हैं. ये ऐसा ही एक लम्हा था, जिसने न सिर्फ इतिहास बनाया, बल्कि शास्त्री को एक दृढ़ फैसले लेने वाले प्रधानमंत्री के तौर पर भी स्थापित कर दिया. जानते हैं वो फैसला क्या था?
शास्त्री ने आर्मी चीफ जनरल जेएन चौधरी को निर्देश दिया कि पंजाब की ओर से एक नया मोर्चा खोल दिया जाए और लाहौर तक बढ़ने में भी सेना को हिचक नहीं रखनी चाहिए. यहीं से युद्ध का पासा पलट गया. सितंबर में जहां कश्मीर के छंब सेक्टर में पाकिस्तान भारी तबाही मचा रहा था, वहीं अब वो बचाव के रास्ते तलाशने लगा. भारत की सेना लाहौर पर कब्जे से सिर्फ एक कदम दूर थी. यही वो दौर था जब शास्त्री ने वो मशहूर नारा दिया जो देश भर में गूंज उठा- जय जवान, जय किसान.
लालबहादुर शास्त्री के मजबूत इरादों की झलक उनके भाषण से भी मिलती है, जिसमें उन्होंने कहा:
तलवार की नोंक पर या एटम बम के डर से कोई हमारे देश को झुकाना चाहे, दबाना चाहे...ये देश हमारा दबने वाला नहीं है. एक सरकार के नाते हमारा क्या जवाब हो सकता है, सिवाय इसके कि हम हथियारों का जवाब हथियारों से दें.
संयुक्त राष्ट्र के दखल के बाद दोनों पक्षों ने युद्ध-विराम की घोषणा कर दी. जनवरी 1966 को सोवियत रूस ने भारत-पाक में समझौते के इरादे से ताशकंद में एक सम्मलेन बुलाया. 4 जनवरी को जनरल अयूब खान और शास्त्री ने ताशकंद समझौते पर दस्तखत किए. इसके मुताबिक दोनों पक्ष युद्ध से पहले की स्थिति में लौटने को तैयार हो गए. ताशकंद सम्मेलन खत्म तो हुआ, लेकिन देश के लिए गम की बहुत बड़ी खबर के साथ.
11 जनवरी 1966 को ताशकंद में ही लालबहादुर शास्त्री ने आखिरी सांस ली. उन्होंने सिर्फ 19 महीने तक बतौर प्रधानमंत्री देश की जिम्मेदारी संभाली. उनका कार्यकाल छोटा जरूर रहा लेकिन चुनौतियों से भरा हुआ. उनके नाम जो उपलब्धियां हैं उनमें पीएमओ का गठन भी शामिल है.
ईमानदारी और सादगी के लिए मशहूर
शास्त्री की सादगी के कई किस्से मशहूर हैं. एक बार नेहरू ने उन्हें किसी काम से कश्मीर जाने को कहा, जिस पर शास्त्री ने इनकार कर दिया. नेहरू को ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी. उन्होंने जब कारण पूछा, तो जवाब चौंकाने वाला था. शास्त्री के पास कश्मीर की सर्दी झेलने लायक गरम कोट नहीं था.
प्रधानमंत्री बनने के बाद भी उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि वो छोटी कार भी खरीद सकें. उन्होंने गाड़ी खरीदने के लिए 5 हजार का लोन लिया. लेकिन लोन चुकाने से पहले ही उनका निधन हो गया. बाद में उनकी पत्नी ललिता शास्त्री ने पेंशन से ये लोन चुकाया.
वीडियो एडिटर- मोहम्मद इरशाद आलम
प्रोड्यूसर- प्रबुद्ध जैन
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)