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दिलजीत vs कंगना से सबक: नेताजी, सुनना सीखिए  

ये जो इंडिया है ना, यहां की सरकार सुनती नहीं है

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वीडियो एडिटर: दीप्ति रामदास

हम लोगों का वहम निकालने के लिए ही पैदा हुए हैं

ये तो मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ दिया तुमने

तेरे सारे दांव-पेंच जानता हूं मैं

किसान पागल हैं?

दो बातों के लिए 4 नहीं, 36 सुनाएंगे

तो अब तुम बताओ! बात आ गई समझ में?!

ये जो इंडिया है ना... यहां कंगना को, सरकार को दिलजीत दोसांझ की बात क्यों नहीं समझ आ रही है? ये सिर्फ इसलिए नहीं है कि दिलजीत ठेठ पंजाबी बोल रहे हैं. ये इसलिए है कि हममें सुनने की आदत कम हो चुकी है. खासकर उनकी जो हमसे असहमत हैं. वो बहुमूल्य सुनने की कला हम भुला चुके हैं.

अब जरा इस लाइन को समझने की कोशिश कीजिये.

“ओ आ के मेरे नाल लगे ...” आओ मेरी तरफ. “कि किना ओखा होन्दा है किसाणी दा कम्म ...” और देखो की, किसानों का काम कितना मुश्किल होता है.

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एक बुजुर्ग महिला “मोहिंदर कौर” प्रदर्शन में हिस्सा क्यों ले रही हैं

मोहिंदर कौर कंगना को बताने की कोशिश कर रही हैं, सरकार को बताने की कोशिश कर रही हैं कि किसानों का काम कितना कठिन है कितना ‘औखा’ है. उनकी सिर्फ पंजाबी ‘औखा’ नहीं है सरकार को किसानों को समझना भी ‘औखा’ लग रहा है. मसलन किसानों को आशंका है कि कॉरपोरेट खरीदार उनका शोषण करेंगे और उनकी आशंका है कि उन्हें एमएसपी नहीं मिलेगा. लेकिन एक जिम्मेदार सरकार के लिए ये मायने नहीं रखता कि आशंका कितनी 'औखा' है, वो हमेशा सुनती है.

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अब दिलजीत के इस ट्वीट की ये लाइन सुनिए, “बंदा इतना भी नहीं अन्ना होना चाहिदा है”

यहां ‘अन्ना’ एक ट्रिक वर्ड है. तमिल में ‘अन्ना’ का मतलब ‘बड़ा भाई’ होता है. पंजाबी में इसका मतलब ‘अंधा’ होता है यहां भी वही है. मतलब है जो हमारे किसान कह रहे हैं उसे लेकर हम अंधा ना बने. दिलजीत का ये मैसेज उन लोगों के लिए है जो किसी न्यूज़ को वेरीफाई करे बिना अपने एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए व्हाट्सएप पर शेयर करते रहते हैं. बिलकुल वैसे ही जैसे कंगना ने ‘मोहिंदर कौर’ के केस में किया था.

“दो दिया 4 नहीं 36 सुनावांगे”

मतलब अगर आप दो बात कहोगे तो उसके जवाब में हम आपको 4 नहीं 36 बातें सुनाएंगे. यहां भी ‘दिलजीत’ सिर्फ कंगना को नहीं सुना रहे हैं. ये इस बात की तरफ भी इशारा करता है कि किस तरह से कई प्रदर्शनकारी किसान अपने मुद्दे को स्पष्टता से रख रहे हैं. जबकि सरकार उनको दंगाई भीड़ आदि कह कर बदनाम करने की कोशिश कर रही थी.

लेकिन असल बात ये है कि किसानों को पता है कि वो ठंड के इस मौसम में पानी की बौछार और आंसू गैस के गोलों का सामना क्यों कर रहे है. जी हां, बातचीत तो जारी है लेकिन अभी तक ये संकेत नहीं मिले हैं कि सरकार सुन रही है.

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“एह तान भोंडा दे खक्कर नू छेड़  लेया तू”

इसका मतलब है अब तुमने मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाल दिया है. छत्ते में पत्थर मारोगे तो मधुमक्खी तुम्हारे पीछे आएंगी ही.अगर आप एक 'पत्थर' यानी कृषि कानून एक मधुमक्खी के छत्ते यानी 'किसानों' पर फेंकते हैं तो वह तुम्हारे पीछे जरूर आएंगे.

ये एक सच्चाई है, जो दूसरी परिस्थितियों में भी ठीक बैठती है. उदाहरण के लिए सेक्युलर इंडिया एक मधुमक्खी का छत्ता है जिस पर आपने सीएए एनआरसी का पत्थर फेंका. तो जब आपने ऐसा किया तो नेचुरली सेकुलर इंडिया के लाखों लोग सड़कों पर उतर आए लेकिन तब भी आपने उनको सुनने की जगह उनका दमन किया उनको एंटी नेशनल कहा गया, बिल्कुल उसी तरह जिस तरह आज किसानों को खालिस्तानी कहा जा रहा है.

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"गल ना घुमा हुन .. गल कार नी भज्जी दिऐ"

मतलब बातों को मत घुमा, इस टॉपिक पर बात कर भाग मत. हम इस बात से परिचित हैं जब देश सरकार से कोविड-19 स्ट्रेटजी और लॉकडाउन स्ट्रैटेजी पर या चाइना के लद्दाख में जमीन पर कब्ज़े की बात करना चाहता था तो गोदी मीडिया का सहारा लेकर बात को घुमा दिया जाता था, और हम महीनों तक सुशांत की आत्महत्या के लिए रिया मनगढंत साजिश की चर्चा में उलझे हुए थे. जब बात होनी चाहिए गिरते हुए जीडीपी की… बात घूमाकर शुरू हो जाती है लव जिहाद ’की!

‘वट्ट’ मतलब ईगो, अहंकार ‘कढान’ मतलब निकालना और ‘जमे’ मतलब जन्म. इसका मतलब ये हुआ हुआ कि हम लोग का अहंकार निकालने के लिए पैदा हुए थे लेकिन कुछ इनमें ढीठ हो गए यानी “जिद्दी होंदे ने कि असी किन्ना भी ट्राई करें, उन्ना दी ईगो उन्ना अहंकार” उन्हें औरों की आवाज सुनाई ही नहीं देती.

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असि 12-13 किला दे मलिक है, असी  दिहाड़ी वाले बंदे नै .. इकि किला एकर जमीन के बराबर है, वो किसान जो 12-12 एकर जमीन का मालिक है उसे  पैसे की इतनी जरूरत नहीं है कि 100 रुपये लेकर प्रदर्शन करेगा. किसान कमले हैं?

अब यह एक और सुनिए अभी "गल ना घुमा हुन .. गल कार नी भज्जी दिऐ".अब आगे, “ऐसी वट्ट कढान नू ही जमे” किसान पागल है? ‘कमले’ शब्द का मतलब है पागल तो जो सवाल पूछा जा रहा है कि हरियाणवी और पंजाबी किसान जो कुछ कह रहे हैं वो पागल है? जो हजारों की संख्या में विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं? क्या उनको ‘खालिस्तानी’ ‘गुमराही हुई भीड़’ कहकर खारिज किया जा सकता है ? वो भी सिर्फ इसलिए कि जो सवाल पूछा जा रहा है वह औखा है. दुर्भाग्य से हमारी सरकारें ऐसा करती हैं, जब वह सुनना नहीं चाहती है.

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लेकिन ये जो जो इंडिया है यहां के किसानों ने सरकार और नेताओं को एक सीख दी है. उन्हें लोगों की बात सुननी चाहिए. उनकी ट्रोल आर्मी को पीछे हटा कर  बात सुननी चाहिए.गोदी मीडिया  जिनसे के साथ किसान बात भी ना करना चाहे, उनको भी सुनना चाहिए.   चाहे वह सीएए प्रदर्शन हो या “रोहित वेमुला” का जिसे अनसुना करने की कीमत थी एक जिंदगी या “वन रैंक वन पेंशन” का विरोध करने वाले फौजी या फिर तमिलनाडु में प्रदर्शन कर रहे किसान, या हमारे देश के कार्टूनिस्ट और स्टैंड अप कॉमेडियन.

चलिए इस बात को खत्म करते हैं इस लाइन के साथ  “इनने  जनां दा किसान दा  दर्द नहीं आया. क्या इतने सारे लोगों की किसानों की दुर्दशा किसी को दिखाई नहीं देती.”

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