हर चुनाव से पहले तीसरे मोर्चे की हवा चलती है. 2019 लोकसभा चुनाव भी नजदीक है और एक बार फिर मायावती, अखिलेश यादव, केसीआर, ममता बनर्जी जैसे नेताओं के नाम पर थर्ड फ्रंट की चर्चा शुरू है. लेकिन जब 1996 में थर्ड फ्रंट अपने सबसे गोल्डन पीरियड में था तब भी ये पिछलग्गू से ज्यादा नहीं था. ऐसे में आज जब तीसरे मोर्चे की हवा हवाई बात करने वालों के पास मजबूत जमीन ही नहीं है फिर ये 2019 के अखाड़े में उतरेंगे कैसे?
इसलिए हम पूछ रहे हैं जनाब ऐसे कैसे?
जब थर्ड फ्रंट अपने सबसे गोल्डन दौर से गुजर रहा था...
आज के तीसरे मोर्चे की बात करने से पहले 1996 के उस दौर को जानना जरूरी है जब देश में जनता दल, टीडीपी, डीएमके जैसी पार्टियों वाले यूनाइटेड फ्रंट की तूती बोलती थी.
1996 में ही तीसरे मोर्चे की लॉटरी लगी थी. उस वक्त लोकसभा में सबसे ज्यादा 161 सीटें जीतने वाली बीजेपी की सरकार 13 दिन चली थी. 140 सीट पाकर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस ने सरकार बनाने की कोशिश भी नहीं की.
लेकिन ये कमाल ही था कि 13 पार्टियों से मिलकर बने यूनाइटेड फ्रंट ने सरकार बनाई और प्रधानमंत्री बने हरदनहल्ली डोडेगौड़ा देवगौड़ा, जी हां एच डी देवगौड़ा.
गुजराल का पीएम बनना भी किसी हैरानी से कम नहीं था
इस तीसरे मोर्चे को कांग्रेस का समर्थन हासिल था. कांग्रेस की वजह से ही देवगौड़ा पीएम की कुर्सी पर ज्यादा दिन तक टिके नहीं रह सके. फिर1997 में यूनाइटेड फ्रंट ने इंद्र कुमार गुजराल को प्रधानमंत्री बनाया, वो भी कांग्रेस की मदद से. गुजराल का पीएम बनना भी किसी हैरानी से कम नहीं था क्योंकि वो कभी उस कद के पॉलीटीशियन नहीं थे.
इसके बाद से मानो तीसरा मोर्चा एक नशा-सा बन गया. हर बड़े चुनाव से पहले कुछ नेता ये लॉजिक लगाते हैं कि पता नहीं कब, किसकी लॉटरी लग जाए वो पीएम बन जाए .
2019 से पहले निकला तीसरे मोर्चे का जिन्न
अब कुछ दिनों में लोकसभा चुनाव होने वाले हैं और फिर से ऐसे ही किसी तीसरे मोर्चे को जिंदा करने की बात हो रही है. इस बार लीड में तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव हैं और उन्हें पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का समर्थन भी है. अब इस रेस में उत्तर प्रदेश के दोनों पूर्व सीएम मायावती और अखिलेश यादव की भी एंट्री के चर्चे हैं. सभी लाइक माइडेंड पार्टियों से संपर्क किया जा रहा है.
लेकिन इन लाइक माइडेंड पार्टियों में शायद ही कोई ऐसी पार्टी हो, जो अपने दम पर लोकसभा की 10% सीट भी जीत पाए. अब सवाल उठता है कि क्या तीसरे मोर्चे के पैरोकारों को अपनी कमजोरियों का अहसास है?
तीसरे मोर्चे में ताकत से ज्यादा कमजोरी है
तीसरे मोर्चे की सबसे बड़ी कमजोरी ये है कि इसमें किसी भी पार्टी की पकड़ एक से ज्यादा राज्य में नहीं है. ममता बनर्जी वेस्ट बंगाल में सिमित हैं, अखिलेश और मायावती उत्तर प्रदेश में एक दूसरे से ही लड़ते आये हैं, केसीआर तेलंगाना से बाहर हैं नहीं. कुछ साल पहले तक लेफ्ट पार्टियों का अस्तित्व एक से ज्यादा राज्यों में हुआ करता था, लेकिन लेफ्ट का वर्चस्व अब 'लेफ्ट' हो गया है.
गैर-कांग्रेस और गैर-बीजेपी पार्टियां 1996 के लोकसभा चुनाव से लगातार करीब 50 परसेंट वोट पा रही हैं. लेकिन इस रेश्यो में इनकी सीटें काफी कम रही हैं.
खास बात ये है कि 2014 के चुनाव में बीजेपी का स्ट्राइक रेट अब तक का सबसे ज्यादा 9.1 था. 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का स्ट्राइक रेट भी 7 से ज्यादा था. चूंकि कांग्रेस और बीजेपी के अलावा दूसरी पार्टियों का स्ट्राइक रेट काफी कम रहा है, ऐसे में अपने दम पर सत्ता पाने की इनकी हैसियत नहीं के बराबर है.
तीसरे मोर्चे की पार्टियों की तीसरी बड़ी कमजोरी है कि नेशनल सीन में बीजेपी और कांग्रेस की हैसियत में कमी नहीं हो रही.
2014 के चुनाव में बीजेपी ने कई रिकॉर्ड बनाए. कांग्रेस महज 44 सीट जीत सकी, लेकिन 224 सीटों पर वो नंबर 2 पर रही. साथ ही कांग्रेस को मिला वोट उसके ठीक नीचे की 5 बड़ी पार्टियों (बीएसपी, एसपी, सीपीएम, टीएमसी और AIADMK) के कुल वोट से ज्यादा था. मतलब, कांग्रेस का प्रदर्शन काफी खराब रहा, लेकिन उसके वापसी की संभावना खत्म नहीं हुई.
ऐसे में तीसरे मोर्चे के पैरोकारों को एक मुफ्त सलाह- लॉटरी लगने के भरोसे किसी विचार को सालों-साल नहीं खींचा जा सकता है. और आप तो जानते ही हैं लॉटरी में जितना जीतने का चांस है उतना हारने का भी.
वीडियो एडिटरः पूर्णेंदु प्रीतम
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