आज के दौर में जब अंधभक्तों की हिंसक भीड़ देशभक्ति के सर्टिफिकेट बांट रही है या फिर जब राष्ट्रवाद लोगों के दिलों से ज्यादा WhatsApp के मैसेज में सिमटा नजर आता है तो स्कूल में पढ़ी ये पंक्तियां बहुत याद आती हैं.
जो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहीं. वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं.'
इन्हें लिखा था हिंदी साहित्यजगत के दद्दा यानी मैथिलीशरण गुप्त ने. 3 अगस्त 1886 को जन्मे गुप्त जी की ओजस्वी कविताएं स्वतंत्रता संग्राम के दौरान आजादी के मतवालों की जुबान पर रहती थीं. आलम ये कि साल 1932 में महात्मा गांधी ने उन्हें राष्ट्रकवि का नाम दिया था. मैथिलीशरण गुप्त की पुण्यतिथि पर एक बार फिर उनको याद करते हैं.
महान लेखकों की पहचान यही है कि उनकी रचनाएं वक्त की सरहदों से परे होती हैं. मैथिलीशरण गुप्त की कविताओं को पढ़कर लगता है जैसे 100 साल पहले ही उन्होंने मौजूदा भारत की कल्पना कर ली थी.
बिहार की राजनीति की हालिया उठा-पटक को जरा याद कीजिए और फिर 1912 में लिखी गई भारत-भारती की ही कुछ पंक्तियां देखिए. आपको प्रदेश के सियासी दिग्गजों की परछाई नजर आएगी.
जो आज एक अनाथ है, नरनाथ कल होता वही;
जो आज उत्सव मग्र है, कल शोक से रोता वही ।।
उन्नत रहा होगा कभी जो हो रहा अवनत अभी,
जो हो रहा उन्नत अभी, अवनत रहा होगा कभी ।
'भारत-भारती' गुलाम भारत में देशप्रेम और निष्ठा की बेहतरीन रचना थी. इसमें भारत के अतीत और वर्तमान का चित्रण तो था ही, भविष्य की उम्मीद भी थी. भारत के राष्ट्रीय उत्थान में भारत-भारती का अद्भुत योगदान माना जाता है.
आज राजनीति में जनता की सेवा को कमाई का मेवा बनाने वालों की भीड़ है. गुप्त जी को इसका अंदाजा देश की आजादी से पहले ही शायद हो गया था. तभी तो रामकथा पर आधारित अपनी रचना साकेत में उन्होंने 1931 में ही लिख दिया था-
राज्य को यदि हम बना लें भोग
तो बनेगा वह प्रजा का रोग।
भारत-भारती और साकेत के अलावा गुप्त जी की जयद्रथ-वध, पंचवटी, यशोधरा, द्वापर, सिद्धराज, नहुष, अंजलि, काबा और कर्बला, किसान, कुणाल गीत, पत्रावली, गुरुकुल, जय भारत, झंकार, मेघनाद वध और ना जाने कितनी कालजयी रचनाएं हैं जो साहित्य के खजाने में नायाब हीरे की तरह चमक रही हैं.
40 वर्षों तक साहित्य साधना करने वाले मैथिलीशरण गुप्त को सरकार ने पदम भूषण से नवाजा. अपने साहित्यिक अनुभव के मद्देनजर वो 1952 से 1964 तक राज्यसभा के सदस्य भी रहे. 12 दिसंबर 1964 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया.
अफसोस की बात है कि भारतीय साहित्य की ऐसी महान विभूतियां स्कूली किताबों और हिंदी सम्मेलनों में होने वाली चर्चाओं तक सिमट कर रह गई हैं. उनकी रचनाओं और संदेशों को हम जयंती या पुण्यतिथी जैसे खास मौकों पर याद करते हैं और फिर किताबों की अलमारी में बंद करके कुंडी चढ़ा देते हैं. दद्दा यानी मैथिलीशरण जी को शायद इस बात का भी अंदाजा था तभी तो शायद वो अपने जीते जी ही लिख गए थे-
हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी,
आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी।
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