2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीतिक किस्मत का फैसला दो लोग कर सकते हैं. एक हैं नोएडा अथॉरिटी के पूर्व क्लर्क और दूसरी हैं, लोकसभा में जीरो सीट वाली महिला. यकीन करना मुश्किल हो रहा है न? लेकिन ये पूर्व क्लर्क कोई और नहीं बल्कि आनंद कुमार हैं और उनके साथ हैं उनकी बहन मायावती. वो दलित नेता जो चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं. दोनों ही इस वक्त, एनफोर्समेंट डायरेक्टरेट और सीबीआई के निशाने पर हैं. मामला आय से अधिक संपत्ति और भ्रष्टाचार से जुड़ा है.
वो ब्लैकमेल किए जा सकते हैं, धमकियां दी जा सकती हैं, लालच हो सकता है, ललकार भी और खुला विद्रोह भी. दोनों भाई-बहन क्या फैसला करते हैं, उसका असर 2019 चुनावों के नतीजे पर भी पड़ सकता है.
चलिए 2014 का चक्कर लगाकर आते हैं
इन अजीब से दिखने वाले सियासी हालात को समझना हो तो 2014 में जाना होगा. वो साल जब नरेंद्र मोदी ने अविश्वसनीय सी लगने वाली जीत हासिल की. शिवसेना और टीडीपी जैसे साथियों के साथ मिलकर मोदी ने देश के 12 बड़े राज्यों में अधिकतम सीटों पर कब्जा जमाया. ये राज्य थे- गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, पंजाब, बिहार, झारखंड, असम, कर्नाटक और सीमांध्र. इन राज्यों की कुल 283 लोकसभा सीटों में से मोदी को 227 सीट मिलीं यानी 80% का स्ट्राइक रेट. इन 12 सूबों में हर 5 में से 4 सीट पर मोदी की जीत हुई.
ढलान पर है 2014 की राजनीतिक आंधी
लेकिन 2014 की राजनीतिक आंधी अब ढलान पर है, यहां तक कि पलटने लगी है. वो भी उन्हीं 12 राज्यों में सबसे ज्यादा. दिसंबर 2017 में गुजरात चुनाव के नतीजे हों, मध्य प्रदेश के रतलाम, चित्रकूट और निकाय चुनावों के नतीजे, पंजाब और गुरदासपुर उपचुनाव में उलटफेर हो, दिल्ली, वाराणसी, गुवाहाटी और जयपुर के छात्र चुनाव हों या फिर हाल में राजस्थान उपचुनाव के नतीजे--वोटर का मूड बदलता दिख रहा है. वो अब मोदी लहर में बहता नहीं दिखता. तो 2019 में चौंकिएगा मत अगर इन 12 राज्यों की 283 सीटों में से बीजेपी/एनडीए के खाते में सिर्फ 140 से 150 सीट आएं यानी 2014 के मुकाबले सीधे 80 सीटों का नुकसान. कांग्रेस/यूपीए की सीट संख्या 120-130 तक पहुंच सकती है यानी सीधे-सीधे 70 सीटों का फायदा.
इन 12 राज्यों का गणित निकालने के बाद एनडीए की सीट संख्या ठहरती है 260 पर और यूपीए की 150 पर. अब इसमें जोड़ लीजिए- बंगाल में ममता की ‘सीट-सफाई’, तमिलनाडु में डीएमके का फिर से उठान और तेलंगाना-ओडिशा में केसीआर-बीजेडी का अपनी जमीन बचाए रखना. ये सारी चीजें मिलकर यूपीए के हक में और मोदी के खिलाफ सीटों की संख्या 200 तक लेकर जा सकती हैं.
‘हाथी’ पर ध्यान देना जरूरी है
2019 की दौड़ घूमफिर कर उत्तर प्रदेश पर लौटकर आती है. याद कीजिए, 12 राज्यों के गणित के बाद एनडीए के पास रहती है 260 सीट. अब बचीं यूपी में एनडीए की 73 सीटें. यही सूबा है वो हाथी जिस पर ध्यान देना जरूरी है. और मायावती की पार्टी का चुनाव चिन्ह क्या है? जीहां, एक हाथी!
यूपी का गणित काफी सीधा है. अगर मायावती ने कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के साथ चुनाव से पहले गठबंधन किया तो बीजेपी की सीट संख्या 30 या उससे कम रह सकती है यानी 2014 के मुकाबले पूरी 43 सीट का नुकसान. अगर यूपी का मुकाबला वाकई आमने-सामने का होता है यानी एनडीए के सामने नया नवेला मायावती, एसपी और कांग्रेस गठबंधन तो देश में एनडीए की सीट संख्या 200 से 220 तक गिर सकती है. अकेली बीजेपी 170 से 200 सीट के बीच सिमट सकती है. मान लीजिए ये सब हुआ तो क्या होगा? तो 2019 में यूपीए, तृणमूल और डीएमके मिलकर 272 के जादुई आंकड़े के बिल्कुल करीब पहुंच जाएंगे.
ये सारा गणित और समीकरण अटूट हो सकते हैं लेकिन मायावती नहीं. उनके अगले कदम के बारे में अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. याद कीजिए 17 अप्रैल 1999 का दिन. उस सुबह, मायावती ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को एक वादा किया था. वादा था, विश्वासमत के दौरान लोकसभा में वाजपेयी का साथ देने का. लेकिन, कुछ ही घंटों में उन्होंने राजनीतिक कलाबाजी दिखाते हुए सरकार के खिलाफ वोट दिया.
और आप शायद अंदाजा लगा भी नहीं सकते कि उस स्कूल टीचर के दिमाग के भीतर क्या चल रहा है जो कभी देश के सबसे बड़े सूबे की पहली दलित मुख्यमंत्री बनी थी.
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