कैमरा: सुमित बदोला
वीडियो एडिटर: विवेक गुप्ता
‘नई कहानी’ आंदोलन के महानायक साहित्यकार मोहन राकेश की तस्वीर आज भी हिंदी साहित्य के रंगमंच पर धुंधली नहीं पड़ी है. उन्हें इस दुनिया को अलविदा कहे 4 दशक से ज्यादा समय गुजर चुका है. लेकिन उनके लिखे नाटक- आधे-अधूरे, आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस आज भी थिएटर की दुनिया से जुड़े लोगों के लिए मील का पत्थर माना जाता है.
8 जनवरी 1925 को पंजाब के अमृतसर में जन्मे मोहन राकेश की आज 94वीं जयंती है. इस मौके पर उनके अनसुने किस्सों से रूबरू करा रही हैं थिएटर डायरेक्टर और एनएसडी की डायरेक्टर रह चुकीं अनुराधा कपूर.
वो कहती हैं कि नाटक की भाषा जो मोहन राकेश ने कंटेंपररी इंडियन थिएटर को दी, वो सबसे अलग थी और उन्हें बाकियों से अलग बनाती थी. उनका अहम योगदान ये रहा कि वो रोजमर्रा की भाषा को हिंदी में लेकर आए.
बतौर एक्टर ‘आधे-अधूरे’ नाटक में अपने काॅलेज के दिनों में काम कर चुकीं अनुराधा बतातीं हैं कि किस तरह मोहन राकेश हर रिहर्सल में मौजूद रहते थे और कितनी बारीकी से हरएक पहलू पर काम करते थे.
मुझे याद है कि वो साउंड की आवाज भी लिखते थे. पहला डायलाॅग नाटक ‘आधे-अधूरे’ का है- “ओफ्..ओफ्..ओफ्..ओह, फिर घर में कोई नहीं” अब ये जरूरी नहीं कि इसे लिखा जाए लेकिन उन्होंने इसे लिखा था. मेरे मुताबिक, ये उन्होंने दिया है जिसे आज भी हम माॅडर्न इंडियन क्लासिक मानते हैं. साउंड, भाषा, रोजमर्रा की भाषा, भाषा जो कैरेक्टर के साथ बदलती चली जाए, ये उन्होंने हमें दिया.अनुराधा कपूर
आजादी के बाद मिडिल क्लास और शहरी जीवन के तनाव को केंद्र में रखकर कहानियां लिखने का चलन शुरु हुआ. इसे हिंदी साहित्य के इतिहास में ‘नई कहानी आंदोलन’ के नाम से जाना जाता है. नई कहानी आंदोलन के 3 प्रमुख लेखक मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव माने जाते हैं. इनमें कमलेश्वर और राजेंद्र यादव खुद मोहन राकेश को अपनी इस तिकड़ी का सर्वश्रेष्ठ रचनाकार मानते थे.
समाज का हर हिस्सा, हर वर्ग, चाहे वो स्त्री हो या पुरुष, बच्चे, युवा, बुजुर्ग सभी उनकी कहानियों, नाटक के किरदार से खुद को जोड़ पाते हैं. और यही उनकी लेखनी की ताकत बनी रही.
उनकी नाटकों में कोई न कोई बिंदु होगा, जहां हमसब जुड़ते हैं. चाहे वो ‘आधे-अधूरे’ की छोटी लड़की किन्नी हो. वो स्कूल जाने वाली बच्ची है. स्कूल का प्रेशर झेलती है. मां से नाराज होती है, थप्पड़ भी खाती है. एक बड़ी लड़की फिर से रिलेशनशिप-शादी से जूझती है. लड़का जो काम करना नहीं चाहता क्योंकि उसे लगता है कि काम कर के मिलेगा क्या. ये दिक्कतें सिर्फ 1970 के नहीं हैं. ये दिक्कतें आज भी हैं. मुझे लगता है कि कोई भी हो जो उनके नाटक को देख रहा हो, उसे लगता है कि “मैंने ये महसूस किया.” ये फील उनके नाटकों में होता है.अनुराधा कपूर
मोहन राकेश-अनिता की प्रेम कहानी
बीबीसी हिंदी को दिए एक इंटरव्यू में मोहन राकेश की पत्नी अनिता राकेश ने अपने रिश्तों को लेकर दिलचस्प बातें बताई हैं. अनिता की मां चंद्रा मोहन राकेश की मुरीद थीं. वो उनको खत लिखा करती थीं. उन्होंने ही मोहन राकेश से एक बार अनुरोध किया कि वो मुंबई से दिल्ली जाते हुए बीच में ग्वालियर रुकें. मोहन ने वो निमंत्रण स्वीकार कर लिया. ग्वालियर में ठहरने के दौरान ही मोहन और अनिता का प्रेम प्रसंग शुरू हुआ. अनिता उस वक्त बालिग भी नहीं हुई थीं और मोहन राकेश उम्र के 38वें पड़ाव पर थे. कुछ ही दिनों में अनिता ने अपना घर छोड़ राकेश के साथ रहने का फैसला किया और दोनों ने शादी कर ली. अनिता राकेश की तीसरी पत्नी थीं.
उनकी प्रेम कहानी को अनुराधा अनोखे रिश्ते की एक मिसाल मानती हैं, जो समाज के बनाए दकियानूसी नियम-कायदों को चुनौती देता है.
मैं अनिता जी को बहुत अच्छे से जानती थी. हमलोगों ने काफी वक्त भी साथ गुजारा. अनीता और मोहन राकेश के प्रेम ने ये सिखाया कि किस तरह से जिंदगी में फ्रीडम ली जाती है. जिंदगी को समाज के बनाए कानून के मुताबिक जिया नहीं जा सकता. अनिता और राकेश, दोनों ने एक तरह से ये जिंदगी जी और युवाओं के लिए एक मिसाल भी हैं कि आप जिस तरह से जीना चाहते हैं, आप जिएं. उनमें कंपैनियनशिप दिखाई देती थी. एक तरह से सोचने, जीने का तरीका था. आप अपनी जिम्मेदारी खुद ले रहे हैं, ये उनके रिश्ते में दिखता था. उन्होंने बताया कि समाज, समाज का ढांचा आपको कई आजादी नहीं देता वो आपको लेनी पड़ती है.
मोहन राकेश की ‘मिस पाल’, ‘आद्रा’, ‘ग्लासटैंक’, ‘जानवर’ और ‘मलबे का मालिक’ जैसी कहानियों ने हिन्दी कहानी का नक्शा ही बदलकर रख दिया. मोहन राकेश ने ‘अंधेरे बंद कमरे’, ‘न आने वाला कल’, ‘अंतराल’ और ‘बाकलम खुदा’ जैसे मशहूर उपन्यास भी लिखे.
मोहन राकेश की कलम आज क्या बोलती?
इस सवाल पर अनुराधा कहती हैं-
मोहन राकेश जी एक ऐसा माहौल देखना चाहते थे और जीना चाहते थे जहां लोगों को अपनी आजादी मिले. चाॅइस की स्वतंत्रता हो. मुझे लगता है कि वो लोगों की निजी स्वतंत्रता, समाज में उनकी जगह के पैरोकार थे. आप समाज को नकार नहीं सकते लेकिन ये भी ना हो कि आपको दबकर बहुमत की आवाज जो बोले वही बनना है. आपको अपने लिए संघर्ष करना पड़ेगा. एक-दूसरे से नफरत या आलोचना या अपनी ही छवि में किसी को ढाल देना ये नहीं हो. ये उनकी कहानियों में दिखता है जिसमें बहुत संघर्ष है. सभी किरदार अपनी जिंदगी जीने के लिए जुनूनी हैं.
3 जनवरी 1972 को 46 साल की उम्र में मोहन राकेश दुनिया को अलविदा कह गए. लेकिन मोहन राकेश आज भी मंच पर नई कहानी के महानायक माने जाते हैं.
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