वीडियो एडिटर: वीरू कृष्ण मोहन
प्रोड्यूसर: दिव्या तलवार
मुंबई एरियल शूट सौजन्य: ब्रेनविंग इंडिया
मुंबई में एक नदी की तस्वीरें नाले सरीखी लगती हैं. बात मुंबई की मीठी नदी की हो रही है. या कहना चाहिए जो 2015 तक एक नदी थी जब एक स्टडी से पता चला कि इसमें 100% सीवेज है और साफ पानी बिल्कुल नहीं. तो क्या सच में अब ये एक नदी नहीं है? हम बात कर रहे हैं भारत के सबसे पुराने नदी सिस्टम में से एक के बारे में जो 80 के दशक में इतनी बेहतर हालत में थी कि आप आराम से इसमें डुबकी लगा सकें.
उसके बाद से इसमें गंदगी फैलाई गई और ये एक नाले में तब्दील हो गई. एक नाला जिसमें हर साल कम से कम एक दिन बाढ़ आती है. और मुंबई के करीब सवा दो करोड़ लोग जहरीले पानी से प्रभावित होते हैं. लेकिन हम यहां तक कैसे पहुंच गए? सबसे अहम बात ये कि
- क्या हम इसे बचा सकते हैं?
- क्या है मीठी नदी की समस्या?
मीठी नदी कुदरती तौर पर एक स्टॉर्मवॉटर ड्रेन है यानी बारिश होने पर मुंबई का पानी खुद ब खुद बाहर निकालने का जरिया. दोनों किनारों पर उगे मैंग्रोव के पौधे बाढ़ रोकने का काम करते हैं. 1980 के दशक में, मुंबई सिर्फ 80 लाख लोगों का घर था. लेकिन 40 सालों में जनसंख्या में 3 गुना इजाफा हो गया. मुंबई के 300 साल के लैंड रिक्लेमेशन (समंदर या नदियों को पाटकर जमीन हासिल करना) के इतिहास में सबसे ज्यादा लैंड रिक्लेमेशन बीते 40 साल में हुआ है. इससे बारिश के पानी को सोखने की क्षमता में कमी आई है. इससे पहले ही निचले इलाके में बसे शहर में बाढ़ का खतरा बढ़ गया है. जिस ईकोसिस्टम को बाढ़ रोकने के लिए बरसाती पानी को समंदर तक ले जाना था वही अब बाढ़ की वजह बन रहा है.
25 जुलाई 2005 को यही हुआ था. भारी बारिश और हाई टाइड साथ आने से मीठी नदी इसे झेल नहीं पाई और बाढ़ आ गई. सबसे ज्यादा प्रभावित लोग झोंपड़पट्टी वाले थे. विडंबना है कि यही लोग नदी में सबसे ज्यादा गंदगी फैलाते हैं और ये इनके लिए पानी का एकमात्र स्रोत है. मीठी से सटे 70% इलाकों में झोपड़ियां शामिल हैं.
इसलिए सारा घरेलू कचरा, किचन से लेकर बाथरूम तक, यहां तक कि खुले शौचालय सब सीधे नदी में शामिल हो जाते हैं. सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले छोटे उद्योगों की वजह से भी नदी को नुकसान पहुंचा है. ये इन इलाकों में कानूनी और गैर-कानूनी ढंग से चल रहे हैं. इसलिए मीठी को फिर से साफ सुथरा करने के लिए पहले समस्या की जड़ का इलाज जरूरी है. सबसे पहले, नदी के दोनों ओर 50 मीटर तक 'नो टॉलरेंस जोन' बनाए जाएं जो उसके स्रोत से समंदर तक हों.
इसका मतलब ये है कि उस इलाके के अंदर आने वाली चीजों और लोगों को या तो हटाया जाए या कहीं और बसाया जाए. और हां, इसमें सिर्फ स्लम नहीं है. उदाहरण के तौर पर मुंबई एयरपोर्ट को लें. इसके बदलाव के दौरान, मीठी के दोनों तरफ दीवार बनाकर चार बार 90 डिग्री के एंगल पर मोड़ा गया, जिससे नदी के तट के लिए जगह ही नहीं बची.
इससे हासिल जमीन पर एयरपोर्ट का विस्तार किया गया. अब चमकते-दमकते बीकेसी (बांद्रा-कुर्ला कॉम्प्लेक्स) को देखें. ये भी मीठी से हासिल 220 हेक्टेयर जमीन पर बना है. इस 'नो टॉलरेंस जोन' को बनाने के अलावा, नदी में प्रदूषण को कंट्रोल करना भी एक बड़ी चुनौती है. रिवर मार्च के को-फाउंडर गोपाल जावेरी के मुताबिक
बड़ी समस्या सॉलिड वेस्ट की है, जिसमें प्लास्टिक और मलबा है. अब सरकार ने प्लास्टिक पर बैन लगाया है.अगर इसे सही तरीके से लागू किया जाता है तो एक बड़ी दिक्कत का हल हो सकता है. नदी के किनारे से जाती दोनों सीवर लाइन को डीसेंट्रलाइज्ड सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट से जोड़ना असंभव नहीं है.गोपाल जावेरी, को-फाउंडर, रिवर मार्च
ये कदम जरूरी है. अगर बाढ़ नहीं भी है फिर भी मीठी अपने मौजूदा स्थिति में जहरीली है. एक स्टडी के मुताबिक, मीठी के पानी की गुणवत्ता सुरक्षित सीमा से 13 गुना बदतर थी. इसके बावजूद, मीठी के पानी को लाखों लोग बर्तन धोने और नहाने के लिए इस्तेमाल करते हैं. जो हमें अगले और सबसे विवादास्पद समाधान की तरफ लाता है: बस्तियों का पुनर्विकास.
ये वो मुद्दा है जहां मीठी की समस्या के हल के बीच राजनीतिक अड़ंगा आता है. नेताओं के लिए बस्तियों के लोग, आसानी से प्रभावित होने वाला वोट बैंक है. शहर को जिस चीज की जरूरत है वो है वैज्ञानिक ढंग से बने बड़े हाउसिंग प्रोजेक्ट जिनमें इन बस्तियों में रहने वालों को बसाया जाए. ऐसे घर जो उनके रोजी-रोटी के साधनों के तो नजदीक हों लेकिन नदी से दूर. इसके बाद मीठी को बचाने के लिए राजनीतिक और नौकरशाही से भ्रष्टाचार को खत्म करना होगा. सरकार और नगर निगम दोनों की छवि भ्रष्ट और अक्षम की हो गई है. कुछ इलाकों में बाढ़ के पानी को रोकने के लिए सिर्फ दीवार बनाकर आधी-अधूरी कोशिश की गई है. कई इलाके अभी भी पंपिंग स्टेशन और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट के इस्तेमाल में समय से काफी पीछे चल रहे हैं. सरकार कह रही है कि मीठी को फिर से जिंदा करने के लिए 2005 के बाद शुरू हुए 1800 करोड़ के प्रोजेक्ट का काम रफ्तार पर है. 13 साल से लटके इस प्रोजेक्ट को पूरा करने की डेडलाइन कुछ साल पहले ही खत्म हो चुकी है.
लेकिन जून 2018 में, MRDPA प्रमुख एस सी देशपांडे ने कहा कि वो दो साल में नदी को फिर जिंदा कर सकते हैं. लेकिन प्रोजेक्ट को जिस तरह से प्लान किया गया उसमें भी कई दिक्कतें हैं क्योंकि मानो या मानो, करोड़ों के इस प्रोजेक्ट में न तो पॉल्यूशन कंट्रोल का जिक्र है, न बस्तियों के पुनर्वास का. न ही रिवरफ्रंट के निर्माण की बात.
ऐसे आदर्श नदी पुनर्विकास प्रोजेक्ट की कोई कमी नहीं है जिन्होंने ऐसी ही तकनीकों का इस्तेमाल किया है और वो शहर के लिए प्रेरणा बन सकते हैं. सियोल और बार्सिलोना, दोनों ने मीठी की तुलना में बेहद खराब नदियों को एक पर्यटन स्थल में बदला है. अहमदाबाद में, साबरमती इसी तरह के बदलाव से गुजर रही है. या नमामि गंगा प्रोजेक्ट जहां राज्य ने पीपीपी मॉडल अपनाया है. प्राइवेट कंपनियों को सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बनाने और चलाने के लिए बुलाया गया.
तो कहानी का सबक क्या है? यही कि हाल तो बुरा है. लेकिन इसे ठीक भी किया जा सकता है. टेक्नोलॉजी मौजूद है. पैसा भी है. अब बस कुछ चाहिए तो फौलादी राजनीतिक इच्छा शक्ति, प्रशासनिक इरादा और लोगों का सहयोग क्योंकि
कुछ नहीं बदलता, अगर कुछ नहीं बदलता.
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