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‘न्यूजरूम लिंचिंग’ से जेल तक... अर्णब के साथ क्या हुआ?

ये जो इंडिया है न... यहां नेताओं को पत्रकार नहीं, जी हुजूरी पसंद है  

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वीडियो एडिटर: पूर्णेंदु प्रीतम

वीडियो प्रोड्यूसर: कनिष्क दांगी

ये जो इंडिया है ना. यहां के नेता का जो स्वैग है किसी अर्णब के पास भी उस स्वैग का जवाब नहीं. डेक्कन हेराल्ड के सजीत कुमार के इस कार्टून को देखिए .एक नेता जो कि भारत सरकार को रिप्रेजेंट कर रहा है, वो महाराष्ट्र में अर्णब गोस्वामी की हाई वोल्टेज गिरफ्तारी पर घड़ियाली आंसू बहा रहा है. ये कार्टून हमें क्या-क्या बताता है? यही कि गोदी मीडिया के सरदार अर्णब ने निर्लज्ज, बांटने वाली पत्रकारिता की. स्टूडियो में कचहरी खोल दिया.

न्यूजरूम लिंचिंग की, रिया चक्रवर्ती के पीछे हाथ धोकर पड़ गए ताकि कोरोना और इकनॉमी के मोर्चे पर सरकार की नाकामियों से ध्यान हटे, लेकिन जब मुंबई के घर से महाराष्ट्र पुलिस उन्हें खींच कर ले गई तो कोई नेता उन्हें बचाने नहीं आया. विडंबना देखिए अर्णब की गिरफ्तारी सुसाइड के लिए उकसाने के केस में हुई है.जब खुद अर्णब महीनों से रिया के खिलाफ सुसाइड के लिए उकसाने का केस खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं.

हो सकता है कि मुंबई के कुछ नेता इस गिरफ्तारी के पीछे हों लेकिन दिल्ली के जिन नेताओं के लिए अर्णब महीनों गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाते रहे उन्होंने भी कुछ ट्वीट करने के अलावा उनकी गिरफ्तारी के खिलाफ कुछ खास नहीं किया.

हो सकता है स्टूडियो की हिस्टीरिया से दूर, जेल की शांत कोठरी में बैठे अर्णब का सोच रहे होंगे कि इतने दिनों, इतने महीनों और इतने सालों में उन्होंने किसके लिए क्या-क्या न किया और उन्हें क्या हासिल हुआ, उनका इस्तेमाल किया गया. सियासत की बड़ी बिसात पर एक मोहरे की तरह..बीजेपी नेताओं और मंत्रियों ने अर्णब की गिरफ्तारी पर जो ट्वीट किए उन पर आए ज्यादातर कमेंट्स में पूछा गया है कि क्यों ये नेता सिर्फ इस मामले में आंसू बहा रहे हैं लेकिन सजीत कुमार ने अपने कार्टून में और आगे की बात की है. वो इन्हें घड़ियाली आंसू बता रहे हैं, नकली आंसू.

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यहां सभी पत्रकारों के लिए एक सीख है- यो जो इंडिया है ना.. यहां के पत्रकारों को अपने काम से मतलब रखना चाहिए. उन्हें नहीं सोचना चाहिए कि वे राजनीति के बारे में राजनीतिज्ञों से ज्यादा जानते हैं. चाहे कोई नेता सत्ता में हो, दिल्ली में हो या मुंबई, कोलकाता, चेन्नई में.. राष्ट्रीय हो या क्षेत्रीय हो.. उन्हें पत्रकारों से मतलब नहीं, मतलब है तो उनकी जी हुजूरी से.' गोदी में बैठकर आप गदगद हो सकते हैं, सत्ता के गलियारों तक पहुंच बना सकते हैं.

फिर उसके बाद मिलने वाली TRP का आनंद उठा सकते हैं..लेकिन इन चीजों की एक कीमत है..आप सच से दूर चले जाते हैं. आप सच्चाई के पहरेदार के बजाए सत्ता का चाटूकार बन जाते हैं.और फिर भी एक दिन जब उस पत्रकार को जरूरत होती है और उसे लगता है कि उसके सियासी दोस्त उसे बचा लेंगे तो वो आसपास नहीं होते.और वो खुद को अकेला पाता है, जेल की कोठरी में.

यहां दो बातें और बताना जरूरी है-

पहली बात- सतीश आचार्य ने गल्फ न्यूज के लिए जो कार्टून बनाया है, उसे देखिए- इसमें पुलिस जैसा बाज, मीडिया जैसे गिद्ध पर हमला करता है, जिसकी अपनी चोंच खुद के शिकार बने लोगों से लाल है. यह अर्नब की गिरफ्तारी पर एक नजरिया है कि ये तो होना ही था. आप जो दूसरों के साथ करते हैं, वह आपके साथ भी हो सकता है. मतलब अर्नब ने रिया चक्रवर्ती और दूसरे लोगों को सालों-साल निशाना बनाया. न्यूज रूम में नाम लेकर लोगों को शर्मिंदा किया गया, उन्हें बूली किया.

इस कार्टून में बताया गया है कि गिद्ध के साथ भी वही सलूक हो सकता है, जो वो दूसरों के साथ करता है. और हुआ ही है. लेकिन इस नजरिए से हमें असहमत होना चाहिए. सिर्फ पत्रकार के तौर पर ही नहीं, बल्कि बतौर नागरिक, जो कानून के राज में विश्वास रखते हैं. राजनेताओं और आम आदमी को गाली देने की नौटंकी. रोज उद्धव ठाकरे या संजय राउत या मुंबई पुलिस प्रमुख परमबीर सिंह को अपने खिलाफ कार्रवाई करने की चुनौती.

एक आर्किटेक्ट अन्वय नाइक की खुदकुशी, एक सुसाइड नोट, जिसमे अर्णब गोस्वामी का नाम, 83 लाख रुपए का बकाया.. क्या ये आत्महत्या के लिए उकसाने का केस बनाने के लिए काफी है? एक क्लोजर रिपोर्ट लग चुके केस को फिर से खोलने की जरूरत बनती है? इन सब बातों का कानूनी पक्ष अभी भी देखा जाना बाकी है, लेकिन फिर भी, जैसा कि एडिटोरियल गिल्ड ऑफ इंडिया ने कहा अर्णब को ऐसे हिरासत में लिया जाना “काफी परेशान” करने वाला है.

महाराष्ट्र सरकार से उम्मीद जताई जा रही है कि "अर्णब गोस्वामी के साथ सही बर्ताव किया जाएगा और आलोचनात्मक रिपोर्टिंग के खिलाफ सरकारी तंत्र का दुरुपयोग नहीं किया जाएगा", ये उम्मीद जरूरी है. राजनीतिक मतभेदों से निपटने के लिए कानून, पुलिस और सरकारी तंत्र का इस्तेमाल ना हो, ये जरूरी है.

कल को अगर पुलिस हमारे साथ ऐसा आचरण करे तो अर्णब खुद हमारे लिए खड़े होंगे या नहीं, ये पक्का नहीं है, लेकिन हम अर्णब के साथ हैं. अगर दिल्ली और मुंबई की राजनीतिक लड़ाई में उन्हें अनैतिक तरीके से निशाना बनाया जाएगा, हम उनका समर्थन करेंगे.
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एक बात और, जिसे मेरे सहयोगी अरूप मिश्रा ने अपने कार्टून में समझाया है, और वो ये है कि जब हम अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी का विरोध करें, तब वो एकलौते ऐसे पत्रकार नहीं होने चाहिए जिनकी गिरफ्तारी का विरोध होना चाहिए. हमें कश्मीरी फोटो पत्रकार मशरत जहरा की गिरफ्तारी का भी विरोध करना चाहिए , जिन्हें सोशल मीडिया पर सालों पुराने एक पोस्ट के लिए UAPA के तहत गिरफ़्तार किया गया है, हमें प्रशांत कनौजिया की गिरफ्तारी का भी विरोध करना चाहिए, जिन्हें सोशल मीडिया पोस्ट्स के लिए एक नहीं, बल्कि दो साल में दो बार UP पुलिस ने गिरफ्तार किया.

हमें ये प्रश्न भी उठाना चाहिए कि क्यों मणिपुरी पत्रकार किशोर चन्द्र वांगखेम को भी सोशल मीडिया पोस्ट के लिए जेल में रखा गया है, हमें एंड्रू पांडियन की गिरफ्तारी पर भी सवाल उठाना चाहिए जिनकी गलती सिर्फ कोरोना से लड़ते स्वास्थ्य कर्मियों की बदहाली की रिपोर्टिंग करना है,

सरकारों और पुलिस के सताए पत्रकारों की लिस्ट काफी लंबी है, लेकिन जो #IAmArnab #IndiaWithArnab #ReleaseArnabNow जैसे अभियान चला रहे हैं, उन लोगों के लिए उन दर्जनों पत्रकारों की बोलने की आजादी के कोई मायने नहीं हैं. आज इतने सारे केंद्रीय मंत्रियों का अर्णब के समर्थन में ट्वीट करना तब हास्यास्पद लगता है जब मौजूदा सरकार में ही World Press Freedom Index में भारत 180 देशों की सूची में 142वें स्थान पर लुढ़क चुका है.

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