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औरंगाबाद हादसाःपटरी पर सोना मजदूरों की गलती या सिस्टम ने मार डाला?

घर जाने की उम्मीद से मजदूरों ने जालना से भुसावल तक दो ढाई किमी की दूरी पैदल ही तय करने का जोखिम उठाया.

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महाराष्ट्र के औरंगाबाद में 16 मजदूरों की ट्रेन से कटकर मौत हो गई. खबर उड़ी कि ये लोग पटरी पर सो रहे थे. लेकिन क्या इस बात में सच्चाई हो सकती है? कोई पटरी पर क्यों सोएगा? हमने यही बात पता लगाने की कोशिश की. हमें जो पता चला है उससे यही लगता है कि मजदूरों की मजबूरी को उनकी गलती का नाम दिया जा रहा है.

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औरंगाबाद ग्रामीण एसपी मोकशादा पाटिल ने क्विंट को बताया कि ये लोग महाराष्ट्र के जालना से भुसावल स्टेशन की ओर जा रहे थे. बता दें कि मारे गए मजदूर मध्य प्रदेश में शहडोल के रहने वाले थे. चूंकि महाराष्ट्र से मध्य प्रदेश को जाने वाली ट्रेनें भुसावल में साफ-सफाई, पानी आदि के लिए रुकती हैं तो इन मजदूरों को उम्मीद थी कि शायद वो भुसावल में ट्रेन पकड़ लेंगे. इसी उम्मीद में इन मजदूरों ने जालना से भुसावल के बीच दो ढाई किलोमीटर की दूरी पैदल ही तय करने का जोखिम उठाया.

एसपी के मुताबिक ये लोग पैदल चलते-चलते थक गए थे, इसलिए पटरी पर बैठ गए. और फिर इन्हें नींद आ गई. कुछ लोग पटरी पर बैठे थे और कुछ पटरी के बाजू में. जब मालगाड़ी आई तो हॉर्न भी बजा लेकिन इससे पहले कि मजदूर ट्रैक से हट पाते ट्रेन उन्हें कुचल चुकी थी. कुल 21 मजदूर पटरी के पास थे. 16 की मौत हो गई और एक की हालत बेहद गंभीर बनी हुई है. 

अब आप खुद सोचिए कि, मजदूर पटरी पर सो रहे थे, सिर्फ ये कह देने से क्या पूरी सच्चाई का अंदाजा लगता है. औरंगाबाद के सांसद इम्तियाज जलील का कहना है कि ये हादसा नहीं बल्कि हत्या है. उनका कहना है कि अगर मजदूरों को घर जाने की सुविधा दी जाती तो उन्हें चोर रास्तों से घर जाने का जोखिम नहीं उठाना पड़ता.

घर लौटने की कोशिश को सिस्टम ने जंग में बदल दिया

अब इसे हत्या कहा जाएगा या नहीं, ये तो हम नहीं जानते हैं लेकिन इतना जरूर है कि तमाम वादों और दावों के बावजूद मजदूर आज भी गांव जाने के लिए अपनी जान को खतरे में डालने के लिए मजबूर हैं. पटरी पर कोई लेटता है आत्महत्या करने के लिए. और इन मजदूरों की कतई ये मंशा नहीं थी. वो तो सिर्फ अपने घर लौटना चाहते थे, और इस घर लौटने की कोशिश को सिस्टम ने एक जंग में तबदील कर दिया है. और इसी जंग में, इसी जद्दोजहद में इससे पहले भी देश के अलग-अलग हिस्सों में 40 मजदूरों की मौत हो चुकी है. कोई ट्रेन से कुचला गया, कोई ट्रक से रौंदा गया. और इसी जंग में औरंगाबाद में भी 16 मजदूरों की जान गई है.

मजबूर मजदूरों के घर जाने की जद्दोजहद

आपको याद होगा कि कुछ दिन पहले महाराष्ट्र में ही घर की तरफ पैदल जा रहे चार मजदूरों की सड़क हादसे में मौत हो गई थी. आपको वो तस्वीरें भी याद होंगी जिसमें मजदूर कभी सीमेंट मिक्सर में छिप कर जाते पकड़े जाते हैं, तो कभी प्याज के ट्रक में, तो कभी वो नदी में उतर जाते हैं. हमने गुजरात में घर जानने की जिद पर अड़े मजदूरों पर आंसू गैस के गोले छोड़े जाते भी देखे हैं. अफसोस है कि लॉकडाउन के कारण अपनी मजदूरी, अपनी नौकरी खो चुका मजदूर जब गांव जाने को मजबूर होता है तो कभी कहा जाता है कि वो जन धन खाते में मिलने वाले पैसे की लालच में जा रहा है तो कभी कहा जाता है कि वो राज्य सरकार से मिलने वाले 1000 रुपए के लिए जाना चाहता है.

लोग शराब की कतारों में खड़े होते हैं तो खुद को पत्रकार कहने वाले लोग ट्वीट करते हैं कि शराब के लिए पैसे हैं, रेल भाड़े के लिए नहीं? और आज जब औरंगाबाद में ट्रेन से कटकर 16 मजदूरों की मौत हो जाती है तो कहा जाता है कि वो पटरी पर सो रहे थे.

यानी दोष उस सिस्टम का नहीं है, जिसने उसे ये सब करने के लिए मजबूर किया है बल्कि दोष खुद उस मजदूर का है...अफसोस. सच्चाई ये है कि आज अगर मजदूरों को जालना से भुसावल स्टेशन तक पहुंचने की सुविधा दी जाती, उनका आसानी से रजिस्ट्रेशन होता तो शायद मजदूर दो ढाई सौ किलोमीटर चलने को मजबूर न होते, पटरी पर न बैठते, ट्रेन से कुचले न जाते...

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