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सुधा भारद्वाज की तरह भीमा कोरेगांव के 8 आरोपियों को बेल क्यों नहीं मिल सकती?

सुधा भारद्वाज से अलग, बाकी आठ आरोपियों ने चार्जशीट फाइल होने के बाद डिफॉल्ट बेल की अर्जी दी थी.

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वीडियो एडिटर: कनिष्क दांगी

1 दिसंबर को मुंबई हाईकोर्ट ने कहा कि वकील और लंबे समय तक मजदूरों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली एक्टिविस्ट सुधा भारद्वाज भीमा कोरेगांव मामले (Bhima Koregaon Case) में डीफॉल्ट बेल की हकदार थीं.

उन्हें अब 8 दिसंबर को मुंबई की स्पेशल एनआईए कोर्ट में पेश किया जाएगा जोकि तय करेगी कि उनकी जमानत की शर्तें क्या होंगी.

सुधा को डीफॉल्ट बेल इसलिए मिली है क्योंकि पुणे पुलिस ने उनकी गिरफ्तारी के 90 दिनों के अंदर उनके खिलाफ चार्जशीट नहीं सौंपी- और एनआईए कोर्ट ने ऐसा कोई आदेश नहीं दिया, जिसमें उसने पुलिस को चार्जशीट फाइल करने के लिए और समय दिया हो. कानून के तहत ऐसा करना जरूरी है.

इसी आधार पर बेल की अर्जी भीमा कोरेगांव के दूसरे आठ आरोपियों- सुधीर धवले, वरवर राव, रोना विल्सन, सुरेंद्र गडलिंग, शोमा सेन, महेश राउत, वर्णन गोंसालविस और अरुण फरेरा ने भी दी है.

हालांकि हाईकोर्ट ने उनकी अर्जियों को खारिज कर दिया.

लेकिन ऐसा क्यों?

यह सब समय का मामला है.

डीफॉल्ट बेल का अधिकार

किसी व्यक्ति को जेल (या न्यायिक हिरासत) में अनिश्चित समय के लिए नहीं रखा जा सकता, और उसके पीछे से पुलिस अपराध की जांच करती रहे.

कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर यानी सीआरपीसी के सेक्शन 167 (2) के मुताबिक, अगर एक निश्चित समय तक पुलिस किसी आरोपी के खिलाफ चार्जशीट फाइल नहीं कर पाती तो वह आरोपी बेल पर रिहा होने का हकदार है, बशर्ते वह बेल की राशि चुका सके और अदालत ने बेल की जो शर्तें तय की हैं, वह उनका पालन करे.

इसे ‘डीफॉल्ट बेल’ कहा जाता है.

सामान्य अपराध के लिए चार्जशीट फाइल करने की समय सीमा 60 दिनों की है, जोकि 90 दिनों तक बढ़ाई जा सकती है, अगर मामला मौत की सजा, उम्रकैद या कम से कम 10 साल की कैद का हो.

यूएपीए के मामलों में जांच एजेंसी को तफ्तीश और चार्जशीट फाइल करने के लिए अतिरिक्त समय मिल सकता है. गैरकानूनी गतिविधि (निवारण) अधिनियम, यानी यूएपीए के सेक्शन 43डी (2) के तहत गंभीर अपराध वाले मामलों में इस समय सीमा को 180 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है.

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हालांकि यह समय तभी बढ़ाया जा सकता है, अगर वैध अदालती आदेश दिया गया है. अगर यह आदेश समय पर नहीं दिया गया, या सही अदालत ने यह आदेश नहीं दिया तो आरोपी व्यक्ति डीफॉल्ट बेल पर रिहाई का हकदार होगा.

यूएपीए के प्रावधानों के तहत जिस अदालत के पास इस कानून के तहत मुकदमा चलाने का अधिकार है, वही चार्जशीट फाइल करने की समय सीमा को बढ़ा सकती है.

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आठ आरोपी डीफॉल्ट बेल के लिए कब अर्जी दे सकते हैं?

भीमा कोरेगांव मामले के सभी आरोपियों को एक समय पर गिरफ्तार नहीं किया गया था और उनके अलग-अलग जत्थों के खिलाफ अलग-अलग चार्टशीट हैं, जोकि इस बात पर निर्भर करता है कि उन्हें कब कस्टडी में लिया गया है.

जिन आठ आरोपियों की जमानत याचिका को मुंबई हाईकोर्ट ने 1 दिसंबर को खारिज किया, उनके दो समूह हैं:

  • आरोपी संख्या1-5: सुधीर धवले, रोना विल्सन, सुरेंद्र गडलिंग, शोमा सेन और महेश राउत. उन्हें 6 जून, 2018 को गिरफ्तार किया गया था.

  • आरोपी संख्या 6-8: वरवर राव, वर्णन गोंसालविस और अरुण फरेरा. उन्हें 28 अगस्त, 2018 को सुधा भारद्वाज के साथ गिरफ्तार किया गया था.

आरोपी संख्या 1-5 के मामले में महाराष्ट्र पुलिस के एंटी-टेरर स्क्वॉड (एटीएस) ने उनके खिलाफ 15 नवंबर, 2018 को चार्जशीट फाइल की.

आरोपी संख्या 6-8 के मामले में, जैसे सुधा के मामले में, एक सप्लीमेंटरी चार्जशीट 21 फरवरी, 2019 को फाइल की गई.

इस प्रकार उनके खिलाफ चार्जशीट तब फाइल की गई, जब वह 90 दिनों से ज्यादा समय से कस्टडी में थे. इसका मतलब यह है कि सभी आरोपी डीफॉल्ट बेल के लिए अर्जी लगा सकते थे. बेशक, चूंकि पुलिस ने चार्जशीट फाइल करने के लिए और समय मांगा था और पुणे सेशंस कोर्ट के जजों ने उसे समय दिया भी था, इसलिए इन लोगों को यह दिखाना पड़ेगा कि कोर्ट का आदेश नियम के विरुद्ध था.

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सुधा भारद्वाज ने 26 नवंबर, 2018 को डीफॉल्ट बेल की अर्जी दे दी थी, और बाकी के आठ आरोपियों ने चार्जशीट फाइल होने के बाद यह अर्जी दी थी. आरोपी संख्या 6-8 ने अपनी पहली अर्जी 17 मई, 2019 को दी थी, और आरोपी संख्या 1-5 ने 21 जून, 2019 को पहली अर्जी दी थी.

पुणे सेशन कोर्ट ने 5 सितंबर, 2019 और 6 नवंबर, 2019 को इन सभी की अर्जियों को ठुकरा दिया. यही वजह है कि हाईकोर्ट अब सुधा भारद्वाज की नई याचिका के साथ उनकी सुनवाई कर रहा है.

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समय इतना मायने क्यों रखता है?

अदालती कार्रवाई में समय बहुत मायने रखता है, भले ही डीफॉल्ट बेल के अधिकार का मामला हो. अगर इसे सही समय का इस्तेमाल नहीं किया गया तो समझिए एक सुनहरा मौका आपके हाथ से गया.

सुप्रीम कोर्ट ने 26 अक्टूबर, 2020 को एम.रविंद्रन बनाम इंटेलिजेंस ऑफिसर मामले में यह स्पष्ट किया था.

डीफॉल्ट बेल के अधिकार का इस्तेमाल करने पर एपेक्स कोर्ट ने कहा था कि आरोपी को इसकी मांग के लिए सिर्फ एक दरख्वास्त करनी होती है. फिर अदालतें उस पर विचार करेंगी, भले ही चार्जशीट बाद में फाइल की गई हो या पुलिस को चार्जशीट फाइल करने के लिए नियम के मुताबिक और समय दिया गया हो.

लेकिन अगर आरोपी समय पर अर्जी नहीं देता तो यह अधिकार खत्म हो जाता है.

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“लेकिन जब आरोपी उस समय डीफॉल्ट बेल के लिए दरख्वास्त करने से चूक जाता है, जब उसे यह अधिकार मिला हो और इसके बाद चार्जशीट, अतिरिक्त शिकायत या समय बढ़ाने की मांग करने वाली रिपोर्ट मेजिस्ट्रेट के सामने पेश होती है तो डीफॉल्ट बेल का अधिकार खत्म हो जाता है.”
एम. रविंद्रन मामले में सुप्रीम कोर्ट

आरोपी संख्या 6-8 के खिलाफ चार्जशीट फाइल करने के लिए जो अतिरिक्त समय दिया गया था, वह नियम विरुद्ध था क्योंकि यह आदेश उस जज ने दिया था जिसे एनआईए एक्ट के तहत विशेष अदालत का दर्जा दिया ही नहीं गया था.

जिन जजों की अदालतों को विशेष अदालतों का दर्जा दिया ही नहीं गया था, उन्होंने ही सभी आरोपियों के खिलाफ संज्ञान लेते हुए आदेश दिए थे.

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जुलाई 2017 से महाराष्ट्र कई जजों को एनआईए एक्ट के तहत विशेष जजों के तौर पर नामित कर रहा है. इसलिए सुप्रीम कोर्ट के दूसरे आदेश के मुताबिक, चार्जशीट की समय सीमा बढ़ाने और उसका संज्ञान लेने की अर्जी सिर्फ उन विशेष जजों के पास जानी चाहिए, सेशन कोर्ट के पास नहीं.

बदकिस्मती से बाकी के आरोपियों के मामले में, जैसा कि पहले कहा गया है, डीफॉल्ट बेल की अर्जी तब फाइल की गई, जब पुलिस पहले की चार्जशीट सौंप चुकी थी.

आरोपी संख्या 1-5 ने हिरासत में भेजे जाने के समय सेशन जज के क्षेत्राधिकार पर सवाल उठाए थे, लेकिन उन्होंने डीफॉल्ट बेल के लिए असली अर्जी बाद में फाइल की.

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नतीजतन, इसके बावजूद कि चार्जशीट की डेडलाइन बढ़ाने को लेकर एकदम वाजिब सवाल उठाए गए थे (और जजों ने भी साफ तौर से कहा था कि आरोपी संख्या 6-8 के लिए चार्जशीट की समय सीमा बढ़ाना उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता), फिर भी हाईकोर्ट के हाथ बंधे हुए थे.

हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि भले ही आरोपों का संज्ञान लेने वाला आदेश बिना अधिकार क्षेत्र की अदालतों ने दिया हो लेकिन इससे मामला नियम विरुद्ध नहीं हुआ, और इस आधार पर आरोपियों को डीफॉल्ट बेल नहीं मिल सकती.

हाईकोर्ट ने कहा कि सिर्फ सुधा भारद्वाज डीफॉल्ट बेल पर रिहा हो सकती थीं क्योंकि उन्होंने 21 फरवरी 2019 को सप्लीमेंटरी चार्जशीट फाइल करने से पहले डीफॉल्ट बेल के लिए अर्जी दी थी.

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हालांकि सुधा की अर्जी, उनके न्यायिक हिरासत में रहने के 90 दिन खत्म होने से पहले फाइल की गई थी लेकिन जजों ने माना कि इस टेक्निकैलिटी पर उसकी आजादी के अधिकार से इनकार करना बहुत फॉर्मेलिस्टिक होगा.

बाकी के आठ आरोपियों को सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर करने की कोशिश करनी होगी. हालांकि जब तक एपेक्स कोर्ट एम रविंद्रन मामले में अपने फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए तैयार नहीं होता, तब तक डीफॉल्ट बेल के मामले में उनके पक्ष में फैसला आने की उम्मीद कम ही है.

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