दिल्ली (Delhi) से लेकर बिहार (Bihar) तक, या कहें केंद्र सरकार से लेकर प्रदेश सरकार तक एक नई रवायत देखने को मिल रही है. पूर्व अधिकारी अब राजनेता बन रहे हैं. बिहार में इस लिस्ट में नया नाम जुड़ा है, तमिलनाडु के पूर्व DGP करुणा सागर (Karuna Sagar) का, जो RJD में शामिल हो गए है. वहीं भारतीय पुलिस सेवा के 12 रिटायर्ड अफसर प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) के जन सुराज (Jan Suraaj) मुहिम से जुड़े हैं. पूर्व आला अधिकारियों के राजनीति में आने के क्या मायने हैं? इससे राजनीतिक दलों को कितना फायदा होगा?
राजनीति में नौकरशाहों की एंट्री
बिहार की राजनीति में नौकरशाहों की एंट्री कोई नई बात नहीं है. पूर्व IPS अधिकारी सुनील कुमार नीतीश कैबिनेट में मंत्री हैं, तो पूर्व IAS अफसर आरके सिंह मोदी कैबिनेट में मंत्री हैं. कुछ को सफलता मिली तो कुछ असफल भी रहे. लेकिन राजनीतिक दल फिर भी नौकरशाहों पर दांव लगा रहे हैं.
"नौकरशाह राजनीति में आते हैं तो ये कोई गलत नहीं है. अच्छे-भले लोग आ रहे हैं तो ये स्वागत योग्य है. वो प्रतिभाशाली लोग हैं, तभी टॉप ब्यूरोक्रेट बने हैं. वो रिटायरमेंट के बाद राजनीति में आते हैं तो ये राजनीति के लिए भी अच्छा है और देश के लिए भी अच्छा है."प्रवीण बागी, वरिष्ठ पत्रकार
लेकिन प्रवीण बागी आगे कहते हैं कि सवाल है कि राजनीति में आने के पीछे उनकी भावना क्या है? क्या वो सचमुच सेवा करना चाहते हैं और उनका ट्रैक रिकॉर्ड कैसा रहा है, ये देखा जाना चाहिए. क्योंकि नौकरशाह रहते हुए बहुत लोग ऐसे हैं जो कुछ काम नहीं कर सके. उनका कोई उल्लेखनीय योगदान नहीं रहा. वैसे लोग अगर राजनीति में आते हैं तो ये स्पष्ट है कि वो सिर्फ सत्ता की मलाई खाने के लिए आ रहे हैं.
क्या नौकरशाह जुटा पाएंगे वोट?
लेकिन इसके साथ ही सवाल उठता है कि क्या नौकरशाह अपने काम और नाम के दम पर वोट जुटा पाएंगे? राजनीतिक पार्टियों को इससे कितना फायदा होगा? इस सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार रवि उपाध्याय कहते हैं कि, "तमिलनाडु के पूर्व डीजीपी करुणा सागर RJD में शामिल हुए हैं. लेकिन वो जिस समाज से आते हैं क्या उसका वोट RJD को दिला पाएंगे? यह सवाल निश्चित रूप से है."
नौकरशाहों का राजनीतिक रिपोर्ट कार्ड
चलिए आपको कुछ नौकरशाहों का राजनीतिक रिपोर्ट कार्ड बताते हैं. बिहार के पूर्व डीजीपी डीपी ओझा, जो कि एक तेज तर्रार और कड़क आईपीएस अधिकारी के रूप में जाने जाते हैं. उन्होंने रिटायरमेंट के बाद राजनीति में अपना हाथ आजमाया. बेगूसराय से सांसद का चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए.
कहा जाता है कि पूर्व डीजीपी आशीष रंजन सिन्हा की लालू प्रसाद से बढ़ी अच्छी पटती थी. बाद में नीतीश कुमार के भी करीब हो गए. 2005 से 2008 तक डीजीपी रहे. इसके बाद वो RJD में शामिल हो गए. यहां मन नहीं लगा तो कांग्रेस में शामिल हो गए. नालंदा से लोकसभा का चुनाव भी लड़ा, लेकिन जीत नहीं मिली.
वहीं डीजीपी की कुर्सी छोड़ गुप्तेश्वर पांडेय भी राजनीति की सीढ़ियां चढ़ने में लगे थे, लेकिन जब टिकट नहीं मिला तो उन्होंने भी अपने कदम वापस खींच लिए.
ऐसा नहीं है की नौकरशाही से राजनेता बने सभी अधिकारियों को असफलता ही मिली है. कुछ ऐसे भी है जो प्रदेश की राजनीति से लेकर केंद्र की राजनीति में भी सक्रिय रहे हैं. इस लिस्ट में मीरा कुमार, आरके सिंह, निखिल कुमार, आरसीपी सिंह और सुनील कुमार का नाम शामिल है.
बहरहाल, बिहार में पूर्व नौकरशाहों और पढ़े-लिखे लोगों का राजनीति में आना क्यों जरूरी है, ये बात ADR की इस रिपोर्ट से साफ हो जाती है. जिसके मुताबिक, बिहार के 30 मंत्रियों में से 21 यानी 70% ने अपने शपथ पत्र में आपराधिक मामलों की घोषणा की है. वहीं 30 में से 15 यानी 50% मंत्रियों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं. ऐसे में अगर देश के सबसे गरीब राज्य को विकास पथ पर लाना है तो पढ़े-लिखे और ईमानदार लोगों को सियासत में आना होगा.
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