वीडियो एडिटर: मोहम्मद इब्राहिम
वीडियो प्रोड्यूसर: सोनल गुप्ता
कैमरापर्सन: शिव कुमार मौर्य
अगर एलन ग्रीनस्पैन का अमेरिका इरेशनल एग्ज्यूबरेंस (जब निवेशकों के उन्माद के कारण शेयर, प्रॉपर्टी के दाम आसमान पर पहुंच गए थे) से पीड़ित था तो भारत के आर्थिक राष्ट्रवादी इरेशनल फीयर यानी बेतुके डर की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं. सरकार के हाल में विदेश में बॉन्ड बेचकर 10 अरब डॉलर का कर्ज जुटाने के ऐलान से उनका यह डर सामने आ गया है.
दिलचस्प बात यह है कि उधार ली जाने वाली यह रकम सरकार के कुल कर्ज का 10 पर्सेंट और देश के विदेशी मुद्रा भंडार के तीन पर्सेंट से भी कम है. इसके बावजूद तीन हफ्ते से भी कम समय में इस आइडिया को राष्ट्रीय आपदा में बदल दिया गया.
मैंने वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के पहले बजट भाषण के एक दिन बाद उनके इस ऐलान का नीचे दिए गए शब्दों के साथ स्वागत किया थाः
क्यों हमें जोखिम लेना चाहिए
मैंने जो लिखा था, आप उस पर गौर करिए. मैंने इसमें आने वाली मुश्किलों का भी जिक्र किया था- मसलन, इसके लिए मुद्रा में उतार-चढ़ाव की वजह से पैदा होने वाली परेशानियों से निपटने के लिए कॉम्प्लेक्स हेजिंग और अंतराष्ट्रीय बाजार में सरकारी बॉन्ड बेचने के हुनर सीखने की बात भी कही थी. मैंने यह भी बताया था कि जब देश से निवेशक पैसा निकाल रहे हों, तब विदेश से फंड जुटाने पर जोखिम बढ़ जाता है. यह काम मुश्किल और जोखिम से भरा है, इसलिए मैंने इसे आंट्रप्रेन्योरियल बताया था. मैंने कहा था कि इसमें काफी संभावनाएं हैं और इससे फायदा हो सकता है.
अब जरा ये बताइए कि क्या पाकिस्तान की सीमा के अंदर घुसकर बालाकोट पर हवाई हमला करना मुश्किल और जोखिम भरा काम नहीं था? हफ्ता भर पहले टालने के बाद चंद्रयान 2 को फिर से लॉन्च करना मुश्किल और रिस्की नहीं था? जब 6 सितंबर को विक्रम चांद के दक्षिणी ध्रुव पर उतरेगा तो क्या उससे जोखिम और दुश्वारियां नहीं जुड़ी होंगी? राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को राजनयिक भाषा में ‘झूठा’ बताने से भी जोखिम जुड़ा था.
आप मेरी बात समझ गए ना? भारत जैसे मजबूत पर कमजोर, अमीर पर गरीब, एकजुट पर विभाजित देश का राजकाज चलाने के लिए मुश्किल और रिस्की फैसले करने ही पड़ते हैं. हाल के इतिहास पर नजर डालें तो पता चलेगा कि इस तरह की परिस्थितियों में मुश्किल और जोखिम भरे फैसले लेने से हमें फायदा हुआ है. आतंकवादियों के खिलाफ, अंतरिक्ष के क्षेत्र में और अमेरिका के संदर्भ में हुए फायदे हमारे सामने हैं. फिर आर्थिक नीतियों में ऐसे जोखिम लेने से पीछे क्यों हटा जाए? इस मामले में हम खुद को सीमित क्यों करें? जब हमारे अंदर दुश्मन देश की सीमा के अंदर घुसकर सर्जिकल स्ट्राइक करने का दम है, फिर हम आर्थिक नीतियों को लेकर डर के साये में क्यों रहें?
ना-नुकुर करने वाले बनाम साहसी
खैर, ऐसी सारी फरियाद अनसुनी रह गई. अक्सर ना-नुकुर करने वाले साहसी लोगों की आवाज दबा देते हैं और इस मामले में भी ऐसा ही हुआ. दिलचस्प बात यह है कि इस बार ना-नुकुर करने वाले खेमे में एक दूसरे से उलटी विचारधारा रखने वाले लोग साथ खड़े थेः
हर मुद्दे पर उलझने वाले उदारवादी, प्रतिबद्ध मध्यमार्गी और अति-राष्ट्रवादी सॉवरिन बॉन्ड के विरोध पर एकजुट हैं. इस पर यकीन करना मुश्किल है, लेकिन अगर आप उनकी आपत्तियों पर ध्यान दें तो पता चलेगा कि सब यही कह रहे हैं कि विदेश में सरकारी बॉन्ड बेचकर फंड जुटाना मुश्किल और रिस्की काम है.
मैं इस बात से बिल्कुल सहमत हूं. ये लोग सॉवरिन बॉन्ड को बुरा और हानिकारक मानते हैं. इस गलत सोच के कारण वे इस बिंदास कदम को वापस लेने की मांग कर रहे हैं. लेकिन कोई यह तो बताए कि ‘मुश्किल’ को ‘बुरा’ और ‘रिस्की’ को ‘हानिकारक’ क्यों समझा जा रहा है? मैं इससे पूरी तरह असहमत हूं. यह बात बिल्कुल साफ है कि वे असल मुद्दे को नहीं समझ रहे हैं.
आइए, अब सॉवरिन बॉन्ड पर एक-एक करके हर आपत्ति की पड़ताल करते हैं...
आपत्तिः डॉलर-रुपये में उतार-चढ़ाव से लंबी अवधि में लागत बढ़ेगी, जिसका अभी अनुमान नहीं लगाया जा सकता
जवाबः यह दलील गलत है. फ्यूचर डॉलर रेट्स की हेजिंग की जा सकती है और इसकी लागत 4 पर्सेंट के करीब पड़ेगी. इससे विदेश से कर्ज लेने की हमारी लागत हमेशा नियंत्रित रहेगी और हमें उसका पहले से पता रहेगा. यह बात सही है कि हेजिंग की लागत के कारण सरकार के लिए घरेलू बाजार की तुलना में विदेश से कर्ज जुटाना कुछ महंगा पड़ सकता है, लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि इसके कई फायदे भी हैं. एक बड़ा लाभ तो यही है कि सरकार के विदेश से कर्ज लेने से देश की निजी कंपनियां घरेलू बॉन्ड बाजार से अधिक पैसा जुटा पाएंगी.
आपत्तिः विदेश से फंड जुटाने की जरूरत ही क्या है, जब आप विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों से घरेलू बाजार में और कर्ज देने को कह सकते हैं यानी उन्हें रुपये में भुनाए जाने वाले अधिक बॉन्ड बेचे जा सकते हैं
जवाबः यह बात सही है, लेकिन इसमें भी दम नहीं है. जब सरकार विदेश में बॉन्ड बेचती है तो उसे बिल्कुल नए निवेशक मिलते हैं. ये विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों से अलग होते हैं. ऐसे करोड़ों इंडिविजुअल और संस्थागत निवेशक होंगे, जिनके पास लाखों करोड़ की संपत्ति होगी, लेकिन वे अनजाने देश के बेहद कम वॉल्यूम वाले मार्केट्स (यानी भारतीय बॉन्ड बाजार) में अनजानी मुद्रा (यानी रुपया) में निवेश नहीं करेंगे, जबकि वे न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज पर ट्रेड होने वाले भारत सरकार के उन बॉन्ड्स को खरीद सकते हैं, जिनका भुगतान उन्हें डॉलर में किया जाएगा. कहने का मतलब यह है कि इस रास्ते से देश को बिल्कुल नए निवेशक मिलेंगे. उनकी तुलना मुट्ठी भर विदेशी पोर्टफोलियो से करने का अर्थ यह है कि आप चॉक को चीज की तरह स्वादिष्ट मानते हैं.
आपत्तिः मुश्किल घड़ी में, जब विदेशी निवेशक देश से तेजी से पैसा निकाल रहे होंगे, तब भारत इन बॉन्ड्स पर डिफॉल्ट कर सकता है.
जवाबः इस दलील का तो सिर-पैर ही नहीं है. यह ऐसा डर है, जिसे खारिज करने के लिए दिमाग पर जोर डालने तक की जरूरत नहीं है. विदेश में रहने वाले देश के होनहार लोग हर साल 70 अरब डॉलर अपने परिवार के लिए भेजते हैं. प्रवासी भारतीयों ने 100 अरब डॉलर का टर्म डिपॉजिट भी यहां कर रखा है. सरकार ने विदेश में बॉन्ड बेचकर 10 अरब डॉलर जुटाने की बात कही है और देश का विदेशी मुद्रा भंडार उसका 43 गुना है और इसमें भी लगातार बढ़ोतरी हो रही है. अगर हम इतना भी जोखिम नहीं ले सकते तो हमें हार मान लेनी चाहिए (या वॉलंटरी रिटायरमेंट ले लेना चाहिए).
आपत्तिः सॉवरिन बॉन्ड का सिर्फ यही फायदा है कि सरकार को सस्ता कर्ज मिलेगा. अगर यही मकसद है तो आरबीआई से रेपो रेट घटाने को क्यों न कहा जाए?
जवाबः यह तो बिल्कुल बकवास है. अगर रेगुलेटरी फरमान से मार्केट को प्रभावित करने वाली चीजों को नियंत्रित किया जा सकता तो आर्थिक नीतियां बनाने की भी क्या जरूरत है? फिर तो सरकार सिर्फ यह कहे, ‘सिरी, नौकरियां पैदा करो. मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ाकर जीडीपी के 25 पर्सेंट तक पहुंचा दो, किसानों की आमदनी 2022 तक दोगुनी कर दो, बंद पड़े कारों के शोरूम को खोल दो’, और काम हो जाएगा.
इसलिए, मेरे प्यारे देशवासियों, यह बात सच है कि सॉवरिन बॉन्ड मुश्किल और रिस्की हैं, लेकिन इनके ढेरों फायदे भी हैं. इसलिए हमें इस योजना पर अमल करने का साहस दिखाना चाहिए.
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