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Hathras Stampede: 'भोले बाबा' का सत्संग और एक परिवार- 3 महिलाएं, 3 पीढ़ी की अंत 'कथा'

Hathras Stampede: हाथरस हादसे के बाद चर्चा इस बात पर भी होनी चाहिए कि इन सत्संगों में महिलाओं की संख्या ज्यादा क्यों होती है?

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"खबर आई की तुम्हारी मां खत्म हो गई. मैंने बेटा से कॉल पर पूछा तुम्हारी मम्मी कैसी हैं? उसने कहा- मम्मी नहीं रही अब. फिर लल्ली (बेटी) का पता किया तो उसकी बॉडी सिकंदराराऊ के अस्पताल में रखा था." ये शब्द विनोद कुमार के हैं, जिनकी मां, बेटी और पत्नी एक कथावाचक के सत्संग में गई थीं, लेकिन फिर जिंदा नहीं लौटीं.

हाथरस (Hathras) गेट कोतवाली क्षेत्र के गांव सोखना के चार लोगों की भगदड़ में मौत हुई है, इनमें से तीन एक ही परिवार से हैं. 70 साल की जयवंती देवी, 42 साल की राजकुमारी और 9 साल की भूमि.. मां, दादी और पोती.. तीनों एक कथावाचक कहे जाने वाने नारायण साकार हरि उर्फ भोले बाबा के सत्संग में गई थीं, वहां भगदड़ मची और फिर 121 लोगों की जिंदगी खत्म हो गई.

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भगदड़ में मरने वाली ज्यादातर महिलाएं

भारत में ज्यादातर महिलाओं की पहचान किसी की बीवी, किसी की मां या फिर उसके माइके यानी जहां वो पली बढ़ी हैं, उन्हें वहां के नाम से पुकारा जाता है कि देखो कलकत्ता वाली बहू और पटना वाली भाभी हैं. ऐसे में एक घर की तीन महिलाएं, तीन जेनरेशन खत्म हो जाए तो मन में सवाल आता है कि हाथरस के भगदड़ में मरने वाली ये तीनों किस नाम से याद की जाएंगी. और उससे भी बड़ा सवाल कि उन्हें कैसे याद रखा जाएगा.

विनोद कुमार बताते हैं,

"जब मुझे हादसे के बारे में खबर हुई तब मैं बरेली में था. काम की तलाश में गया था, वहां से भागते हुए आया. तब तक मेरा भाई और बेटा परिवार के लोगों को ढूंढ़ने के लिए अलग-अलग अस्पतालों में भटक रहे थे."

परिवार में अब विनोद और उनके 3 बेटे हैं. घर में कोई भी महिला नहीं हैं.

भारत में सत्संग और धार्मिक आयोजनों में भगदड़ और बदइंतजामी महिलाओं के लिए खतरनाक बनता जा रहा है. इन हादसों में एक और अजब चीज देखने को मिलती है, जब कोई पुरुष की मौत होती है तो कहते हैं कि घर का एक ही कमाने वाला था. सहारा था. अब क्या होगा. लेकिन महिलाओं की मौत पर अफसोस जाहिर करने का तरीका अलग होता है.

अपने घर के दरवाजे पर बैठे विनोद कुमार बार-बार भावुक हो जाते हैं. कभी मां तो कभी पत्नी और बेटी को याद करते हैं. विनोद कहते हैं,

हमारा तो संसार ही चला गया. गृहस्थी नहीं है तो बचा ही क्या. हमारे 3 और बच्चे हैं, उन्हें कौन देखेगा. हम काम पर चले जाएंगे तो ये लोग क्या करेंगे, कैसे करेंगे. कोई डांटने वाला भी नहीं मिलेगा.. घर में अब अंदर जाने का मन भी नहीं करता है.. अभी दो चार रिश्तेदार हैं तो चल जा रहा है, लेकिन इनके जाने के बाद हमारे घर में क्या है.. कुछ नहीं..  मेरी पत्नी परिवार को लेकर चलती थी.. हम लोग गरीब हैं, कभी काम होता है कभी नहीं होता. लेकिन कभी वो पैसे के लिए, सामान के लिए नहीं बोलती थी.. 

विनोद के भाई को दुख है कि उनकी मां ने उनकी एक नहीं सुनी.. अगर उनकी बात मानकर सत्संग में नहीं जाती तो शायद वो आज उनके बीच होतीं. विनोद के भाई प्रताप बताते हैं,

सत्संग से परिवार में किसी को मतलब नहीं था, बस बूढ़ी मां थी तो वो जिद करती थी जाने के लिए. हम लोगों ने मना भी किया था. लेकिन उसके जिद की वजह से बहू भी साथ गई. बड़े बुजुर्ग को आप ज्यादा बोल नहीं सकते हैं.

विनोद ने अपनी जीवन साथी ही नहीं एक बेटी को भी खोया है.. बेटी से पिता का रिश्ता कैसा था और उसके सपने क्या थे ये बताते हुए विनोद भावुक हो जाते हैं.. 

विनोद बताते हैं कि उनकी 9 साल की बेटी भूमि पुलिस में जाना चाहती थी.. "कहती थी पापा मैं पुलिस में जाऊंगी.. मैं कहीं जाता था तो कहती थी पापा आप मेरे पास रहिए.." 

विनोद की शादी करीब 20 साल पहले हुई थी, विनोद का आरोप है कि अबतक प्रशासन की तरफ से कोई उनसे मिलने नहीं आया. अंतिम संस्कार से लेकर सब कुछ परिवार के और आस पड़ोस के लोगों ने मिलकर ही किया है. हालांकि उत्तर प्रदेश सरकार ने मृतकों के परिजनों को दो-दो लाख व घायलों को 50 हजार मुआवजा देने का ऐलान किया है.

इन सबके बीच एक अहम सवाल है, हर हादसे की तरह इस हादसे के बाद सरकारी लापरवाही और बाबाओं के पीछे अंधभक्ति पर चर्चा हो रही है.. लेकिन चर्चा इन बातों पर भी होनी चाहिए कि इन सत्संगों में महिलाओं की संख्या ज्यादा क्यों होती है.. हाथरस भगदड़ में मरने वालों में ज्यादा महिलाएं थीं वो भी आर्थिक रूप से कमजोर. शायद इनका भरोसा इस बात पर ज्यादा था कि जिंदगी की मुश्किलें तथाकथित बाबाओं के जरिए आसानी से दूर हो सकती हैं. लेकिन क्या मुश्किलें दूर हुईं? जवाब आपके सामने है.  

(इनपुट- रवि गौतम)

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