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लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष होने का क्या मतलब, कितना अहम है ये पद? 10 साल से था खाली

Leader of Opposition in Lok Sabha: लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष की नियुक्ति के लिए 10% का नियम क्या है और कैसे हुई इसकी शुरुआत?

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पहले इस तस्वीर को देखिए. स्पीकर चुने जाने के बाद ओम बिरला (Om Birla) को नेता सदन पीएम मोदी (PM Modi) और नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी (Rahul Gandhi) आसन तक छोड़ने गए. वहां उनसे हाथ मिलाया. लोकतंत्र में जिस मजबूत विपक्ष की बात कही जाती है ये तस्वीर उसी की गवाही दे रही है.

ऐसे में समझना जरूरी हो जाता है कि आखिर अबकी बार ऐसा क्या हुआ कि पीएम मोदी के साथ राहुल गांधी भी ओम बिरला को आसन तक छोड़ने गए? 10 साल बाद लोकसभा को नेता प्रतिपक्ष मिलना क्या बताता है? अब राहुल गांधी को कौन सी ताकत मिल गई है कि विपक्ष फूले नहीं समा रहा? किस हद तक विपक्ष सरकार के फैसलों में हस्तक्षेप कर सकता है?

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राहुल गांधी को क्या जिम्मेदारी मिली है?

कांग्रेस सांसद राहुल गांधी लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष होंगे. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के घर मंगलवार, 25 जून को इंडिया ब्लॉक की बैठक में ये फैसला लिया गया. राहुल, गांधी परिवार के तीसरे सदस्य हैं जो लोकसभा में विपक्ष के नेता का पद संभालेंगे. उनसे पहले सोनिया गांधी और राजीव गांधी विपक्ष के नेता रह चुके हैं.

साल 1969 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (संगठन) के राम सुभाग सिंह को पहली बार लोकसभा में विपक्ष के नेता के रूप में चुना गया. उससे पहले तक नेता प्रतिपक्ष जैसा कोई पद नहीं होता था. इसके करीब 8 साल बाद 'विपक्ष के नेताओं के वेतन और भत्ते अधिनियम, 1977' के जरिए इस पद को वैधानिक मान्यता मिली. हालांकि, विपक्ष के नेता के पद का जिक्र संविधान में नहीं है, बल्कि संसदीय व्यवस्था में है.

लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का नेता होता है. सदन के कामकाज में नेता प्रतिपक्ष की भूमिका अहम होती है. संसद में सभी विपक्षी दलों की आवाज बनने के साथ ही उसके पास अपनी शक्ति और विशेषाधिकार होते हैं.

1977 अधिनियम में 'विपक्ष के नेता' की परिभाषा लोकसभा या राज्यसभा के उस सदस्य के रूप में की गई है, जो उस समय उस सदन में सरकार के विपक्षी दल का नेता है, जिसकी संख्या सबसे अधिक है और जिसे राज्यसभा के सभापति या लोकसभा के अध्यक्ष द्वारा मान्यता प्राप्त है.

2012 में संसद पर प्रकाशित एक आधिकारिक बुकलेट में कहा गया है कि "लोकसभा में विपक्ष के नेता को शैडो प्रधानमंत्री के रूप में माना जाता है जो सरकार के इस्तीफा देने या विश्वास मत साबित नहीं करने पर एक शैडो मंत्रिमंडल के साथ कामकाज संभाल सके.
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क्यों महत्वपूर्ण है नेता प्रतिपक्ष का पद?

अब समझिए की ये पद इतना महत्वपूर्ण क्यों है? पिछले कुछ सालों में आपने राहुल गांधी सहित विपक्ष के नेताओं को अक्सर केंद्र सरकार पर ED, CBI सहित केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगाते हुए सुना होगा.

अब जब राहुल गांधी नेता प्रतिपक्ष चुने गए हैं तो वह प्रधानमंत्री मोदी की अध्यक्षता वाली उस कमेटी का भी हिस्सा होंगे जो CBI के डायरेक्टर, सेंट्रल विजिलेंस कमिश्नर, मुख्य सूचना आयुक्त, 'लोकपाल' या लोकायुक्त, राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के चेयरपर्सन और सदस्य और भारतीय निर्वाचन आयोग के मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ती करती है. अब इन सारी नियुक्तियों में राहुल गांधी नेता प्रतिपक्ष के तौर पर प्रधानमंत्री मोदी के साथ बैठेंगे. कमेटी के फैसलों में उनकी सहमति भी जरूरी होगी.

इसके अलावा राहुल गांधी नेता प्रतिपक्ष के तौर पर सरकार के आर्थिक फैसलों की समीक्षा और उसपर अपनी टिप्पणी भी कर सकेंगे. राहुल गांधी उस 'लोक लेखा' समिति के भी सदस्य होंगे, जो सरकार के सारे खर्चों की जांच करती है और उनकी समीक्षा करने के बाद टिप्पणी भी करती है. इसके अलावा राहुल पब्लिक अंडरटेकिंग और एस्टिमेट पर बनाई गई कमिटी का भी हिस्सा होंगे. संसद की मुख्य समितियों में भी वो बतौर नेता प्रतिपक्ष शामिल होंगे.

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नेता प्रतिपक्ष को क्या सुविधाएं मिलती हैं?

'संसद में विपक्ष के नेता अधिनियम, 1977' के मुताबिक, विपक्ष के नेता को कैबिनेट मंत्री के बराबर का दर्जा प्राप्त होता है. उसे कैबिनेट मंत्री के बराबर वेतन, भत्ता और सुरक्षा मिलती है. इसमें Z+ सुरक्षा कवर भी शामिल हो सकता है.

रिपोर्ट्स के मुताबिक, राहुल गांधी को मासिक वेतन और दूसरे भत्तों के लिए 3 लाख 30 हजार रुपये मिलेंगे, जो एक सांसद के वेतन से ज्यादा है. एक सांसद को वेतन और दूसरे भत्ते मिलाकर हर महीने लगभग सवा दो लाख रुपये मिलते हैं. इसके अलावा नेता प्रतिपक्ष को कैबिनेट मंत्री की तरह सरकारी सचिवालय में एक दफ्तर भी मिलता है. साथ ही आवास के रूप में सरकारी बंगले का भी वो हकदार है.

10 सालों से क्यों खाली थी नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी?

लोकसभा में पिछले 10 सालों से पद खाली था. इसके पीछे नंबर गेम है. जैसा की हम जानते हैं, लोकसभा में विपक्ष में कई राजनीतिक दल होते हैं, लेकिन विपक्ष के नेता का पद उस पार्टी को दिया जाता है, जो संख्याबल के हिसाब से सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होती है. लेकिन, सिर्फ सबसे बड़ी विपक्ष पार्टी होने से ये पद किसी पार्टी को नहीं मिलता.

मावलंकर नियम के तहत किसी विपक्षी पार्टी से नेता प्रतिपक्ष बनाने के लिए उस पार्टी के पास सदन की कुल संख्या का कम से कम 10 फीसदी शेयर होना चाहिए. लोकसभा में 543 सीटों का 10% यानी 54 सांसद होना जरूरी है.

2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में सत्तारूढ़ बीजेपी को छोड़कर किसी भी पार्टी के पास लोकसभा का 10 फीसदी सीट शेयर नहीं था. ऐसा पहली बार नहीं हुआ था. यह पद 1980 और 1989 के बीच भी खाली रहा था.

क्विंट हिंदी से बातचीत में लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचार्य कहते हैं,

"आजादी के बाद लोकसभा के पहले स्पीकर जीवी मावलंकर के सामने सवाल आया कि किस पार्टी को विपक्षी पार्टी की मान्यता दी जाए. तब उन्हें लगा कि सदन की कुल संख्या बल का कम से कम 10% सीट पाने वाली पार्टी को विपक्षी पार्टी के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए. वहीं 10% से कम सदस्य वाले को 'समूह' कहा गया."
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गौर करने वाली बात है कि 1977 के अधिनियम में विपक्ष के नेता की नियुक्ति के लिए 10 प्रतिशत का कोई नियम नहीं है. इसपर पीडीटी आचार्य कहते हैं,

"1977 के अधिनियम की परिभाषा में दो चीजें हैं. पहला- संख्या बल के हिसाब से जो सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होगी, उससे कोई नेता प्रतिपक्ष बन सकता है. दूसरी बात है कि अध्यक्ष से मान्यता प्राप्त पार्टी. और स्पीकर से किसी राजनीतिक दल को विपक्षी पार्टी के रूप में मान्यता के लिए 10% का आधार रखा गया है. ऐसे में ये 10% का नियम आया है."

पिछले दो चुनावों में कांग्रेस के पास लोकसभा का 10 फीसदी सीट शेयर यानी 54 सीट नहीं थी. ऐसे में कांग्रेस सदन में विपक्ष के नेता के तौर पर अपनी दावेदारी पेश ही नहीं कर पाई थी. 2014 में कांग्रेस के पास 44 सीटें थीं और 2019 में 52 सीटें थीं.

2014 में लोकसभा में मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस संसदीय दल के नेता थे, लेकिन उन्हें नेता प्रतिपक्ष (LOP) का दर्जा नहीं मिला था. 2019 में अधीर रंजन चौधरी लोकसभा में पार्टी के नेता थे. उन्हें भी विपक्ष के नेता का दर्जा प्राप्त नहीं था. हालांकि इस बार कांग्रेस 99 सीटों पर जीत दर्ज करने में कामयाब रही है.

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