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‘मेरा डेटा, मेरा अधिकार’क्यों आंखें दिखा रही सरकार?

केंद्र सरकार ने हमारे डेटा से कैसे डील किया है?

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वीडियो एडिटर: संदीप सुमन

संसद में डेटा प्रोटेक्शन बिल पेश होने की उम्मीद बंधी है. करीब 500 दिन पहले इलेक्ट्रॉनिक्स और आईटी मिनिस्टर रविशंकर प्रसाद को डेटा प्रोटेक्शन बिल का ड्राफ्ट सौंपा गया था. हम एक ऐसे एज में रह रहे हैं जब हम काफी डेटा जेनरेट करते हैं, उससे घिरे रहते हैं. इसलिए, हमारे डेटा को कैसे कलेक्ट किया जाता है, रखा जाता है, शेयर किया जाता है और कैसे इस्तेमाल किया जाता है, जिसका सीधा असर हमारी डेली लाइफ पर पड़ता है.

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ऐसे समय में जब हमारा डेटा कई सरकारी और प्राइवेट कंपनियों के पास है, केंद्र में एक मजबूत कानून की जरूरत है ताकि वो एक मॉडल डेटा कंट्रोलर की तरह काम कर सके। जो डेटा की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के साथ साथ नागरिकों की प्राइवेसी को भी सुनिश्चित करे.

अब जब ये बिल संसद में पेश होने वाला है, आइए देखतें हैं कि आखिर ये इतना विवादित क्यों रहा है, सरकार निजता के मौलिक अधिकार के बारे में क्या सोचती है और आज की डिजिटल इकनॉमी के दौर में डेटा को कैसे देखा जाता है.

ये बिल विवादित क्यों है?

इस ड्राफ्ट बिल में मौजूद तीन गंभीर चिंताओं पर एक नजर डालते हैं. जस्टिस बीएन श्रीकृष्णा की अध्यक्षता वाली एक कमेटी ने डेटा प्रोटेक्शन बिल का एक ड्राफ्ट और रिपोर्ट सौंपी था.

  • डेटा लोकेलाइजेशन : नागरिकों के सभी डेटा की एक कॉपी को सर्वर में स्टोर करने की जरूरत चिंताजनक है. इससे सर्विलांस का खतरा बढ़ता है और ये ब्लॉकचेन और AI टेक्नोलॉजी में इनोवेशन को नुकसान पहुंच सकता है.
  • डेटा की सरकारी प्रोसेसिंग : ड्राफ्ट बिल के मुताबिक, निजी डेटा की प्रोसेसिंग के लिए सहमति जरूरी होगी, हालांकि इसमें सरकार को छूट दी गई है. इससे "राज्य के कामकाजों" के लिए बिना सहमति के भी संवेदनशील निजी डेटा की प्रोसेसिंग की जा सकेगी. इस पावर के मिसयूज होने का खतरा हो सकता है.
  • सर्विलांस रिफॉर्म : भारत का सर्विलांस फ्रेमवर्क, न्यायपालिका की निगरानी और स्क्रूटनी के बाहर है. ऐसे समय में, जब हमारा स्मार्टफोन हमारी पहचान का एक हिस्सा बन चुका है, पेगासस स्पायवेयर जैसे विवाद से साबित होता है कि हमारी जासूसी के लिए कितनी आसानी से हमारे फोन को हाईजैक किया जा सकता है.

केंद्र सरकार ने हमारे डेटा से कैसे डील किया है?

सरकार उन नीतियों को लागू करने और कानूनों को लाने में बहुत सक्रिय रही है, जिससे वो बिना हमारी सहमति के हमारे डेटा का सीधा इस्तेमाल कर सके और यहां तक कि उस डेटा को बेच सके.

सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय ने “बल्क डेटा शेयरिंग पॉलिसी” के तहत 25 करोड़ गाड़ियों के रजिस्ट्रेशन और ड्राइविंग लाइसेंस डेटा को बैंक, बीमा कंपनियों, वित्तीय संस्थानों समेत कुल 140 ऐसे संस्थाओं को बेच दिया था.

इसके अलावा, गृह और अन्य मंत्रालयों का भी लक्ष्य हमारी निगरानी के लिए हमारे डेटा के इस्तेमाल करने पर रहा है. चाहे वह सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के सोशल मीडिया मॉनिटरिंग हब का प्लान हो, गृह मंत्रालय का देशव्यापी फेस रिकगनिशन टेक्नोलॉजी के लिए टेंडर जारी करना हो या फिर हमारे कम्युनिकेशन को इंटरसेप्ट करने के लिए 10 सेंट्रल एजेंसी को आदेश देना हो. और, आखिरकार, क्या हमारा डेटा निजी चीज है या पब्लिक?

अंत में, एक पैटर्न जो दिख रहा है कि केंद्र हमारे पर्सनल डेटा की रक्षा के लिए मजबूत कानूनों को सुनिश्चित करने की कोई जल्दी नहीं कर रहा है, मगर ये हमारे पर्सनल डेटा से संबंधित नीतियों पर आगे बढ़ा है.

ऐसा क्यों है और केंद्र इसके जरिए क्या संकेत दे रहा है?

केंद्र ने बिना कुछ कहे ये संकेत दिया कि वो नागरिक डेटा को "पब्लिक कमोडिटी " मानने की इच्छा रखता है - जो "निजी" के उलट है - यानि कि अगर केंद्र चाहे तो वे इसका मुद्रीकरण या दोहन कर सकता है और ये हमारे डेटा का कोई उल्लंघन नहीं है. न्यायमूर्ति श्रीकृष्णा कमेटी ने बिल को "स्वतंत्र और निष्पक्ष डिजिटल अर्थव्यवस्था" की दिशा में काम करने के रूप में वर्णित किया है, जैसा कि आर्थिक सर्वेक्षण 2019 में कहा गया है , जो नागरिकों के निजी डेटा को पब्लिक कमोडिटी के रूप में उपयोग करने को एक अच्छा कदम मानते हैं.

विधेयक पर संसद में बहुत बहस होने की उम्मीद है और एक उम्मीद और है कि कानून पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट के केंद्र में आम नागरिक को रखे

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