ADVERTISEMENTREMOVE AD

पीएम के स्टार्टअप इंडिया प्लान से स्टार्टअप्स को नहीं मिला फायदा

33 हजार स्टार्ट-अप्स ने कहा- पीएम के स्टार्टअप इंडिया एक्शन प्लान से उन्हें कोई फायदा नहीं हुआ.

छोटा
मध्यम
बड़ा
ADVERTISEMENTREMOVE AD

प्रधानमंत्री मोदी ने स्टार्ट-अप इंडिया एक्शन प्लान 16 जनवरी 2016 को लॉन्च किया था. सोच ये थी कि अगले चार साल के दौरान 10 हजार करोड़ रुपये की रकम एक फंड ऑफ फंड्स में लगाई जाए, ताकि नकदी की कमी से जूझते नए उद्यमियों की दिक्कतें दूर हो सकें. इरादा कुछ वैसी हलचल मचाने का था, जैसी कबूतरों के झुंड में बिल्ली छोड़ देने पर मचती है.

लेकिन कार्यक्रम के दो साल बीतने के बाद लग रहा है कि या तो बिल्ली सुस्त निकल गई या फिर कबूतर ही कोमा में चले गए. ऐसा इसलिए क्योंकि सरकार ने अब तक इस कार्यक्रम के तहत महज 92 करोड़ 62 लाख रुपये बांटे हैं - जी हां, आपने बिलकुल ठीक सुना !

कार्यक्रम का आधा समय बीत जाने के बावजूद घोषित कॉर्पस की 1% से भी कम रकम बांटी जा सकी है. ये राशि ऐसे 17 अल्टरनेट इनवेस्टमेंट फंड्स (एआईएफ) को दी गई है, जिन्होंने 75 स्टार्ट-अप्स में 337.02 करोड़ रुपये लगाए हैं. भारत सरकार के महान स्तर के हिसाब से देखें तो भी कामयाबी का ये स्तर औसत से काफी नीचे है. हाल में हुए एक सर्वेक्षण में 33 हजार से ज्यादा स्टार्ट-अप्स ने कहा है कि सरकार की इस पहले से उन्हें कोई फायदा नहीं हुआ.

एक और बुरी खबर. अगर आप बहुत सारे बीजेपी सांसदों की तरह, काले जादू में भरोसा करते हैं, तो आपको लगेगा कि स्टार्ट-अप इंडिया, किसी जमाने में तेजी से बढ़ने वाली वेंचर कैपिटल इंडस्ट्री के लिए बड़ा अपशगुन बन गया है.

2016 में भारत में करीब 7500 स्टार्ट-अप रजिस्टर किए गए थे, लेकिन अगले ही साल ये संख्या तेजी से घटकर 1300 से भी कम रह गई. यानी छह गुने से ज्यादा की गिरावट! सिर्फ बेंगलुरु में ही स्टार्ट-अप्स की तादाद 2016 में 1316 थी, जो 2017 में घटकर महज 224 रह गई.

दुखद विडंबना देखिए कि सरकार के 50 से ज्यादा योजनाएं शुरू करने के बावजूद ऐसा हुआ. इनमें से कुछ योजनाएं किसी खास सेक्टर के लिए थीं, तो कुछ सबके हितों से जुड़ी हुईं.

योजनाओं की इस लंबी फेहरिस्त में-

  • सिंगल प्वाइंट रजिस्ट्रेशन स्कीम (एसपीआरएस)
  • बैंक क्रेडिट फैसिलिटेशन स्कीम (बीसीएफएस)
  • प्रधानमंत्री मुद्रा योजना (पीएमएमवाई)

इनक्यूबेशन सेंटर्स के विस्तार के लिए मदद जैसी कई भारी-भरकम घोषणाएं शामिल हैं.

ये भी पढ़ें- वो बजट भाषण जो पढ़ा जाना चाहिए, लेकिन अफसोस कभी पढ़ा नहीं जाएगा

ADVERTISEMENTREMOVE AD

अच्छे इरादों के बावजूद नर्क में बदल सकती है टैक्स व्यवस्था

प्रधानमंत्री मोदी को समझना होगा कि टैक्स प्रणाली को नर्क में बदलने करने का रास्ता भी अच्छे इरादों से होकर ही गुजरता है. उन्होंने स्टार्ट-अप्स के मुनाफे पर कई साल के लिए टैक्स हॉलीडे देने का फैसला किया, इस उम्मीद में कि उनकी ये उदारता स्टार्ट-अप्स को जोश से भर देगी.

क्या मासूमियत है! अगर स्टार्ट-अप्स को 5 या 7 साल तक मुनाफा ही नहीं होने वाला, तो उन्हें मुनाफे पर टैक्स में छूट देने का मतलब ही क्या है?

दूसरी तरफ, स्टार्ट-अप्स पर सर्विस टैक्स तो शुरू से ही लगा दिया गया, जिसके चलते वो अपनी इक्विटी का करीब पांचवां हिस्सा टैक्स डिपार्टमेंट के हवाले करने को मजबूर हो गए. अगर उन्हें टैक्स में राहत देनी ही थी, तो वो सर्विस टैक्स और जीएसटी से छूट के तौर पर मिलनी चाहिए थी. लेकिन सरकार ने तो उन्हें रिस्क कैपिटल मुहैया कराने की जगह, उनसे वो पूंजी भी छीन ली, जो उनके पास पहले से थी. मानो इतना ही काफी नहीं था कि टैक्स अधिकारियों ने उन्हें मार्केटिंग और ब्रैंड बिल्डिंग पर होने वाले खर्च को पूंजी के तौर पर दिखाने पर भी मजबूर कर दिया. इससे उन पर टैक्स का बोझ और भी बढ़ गया.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

इस मसले को गहराई से समझने के लिए मैं आपसे Change.org पर जाकर उस याचिका (पिटीशन) को पढ़ने का आग्रह करूंगा, जो अन्यायपूर्ण "एंजेल टैक्स" के खिलाफ दायर की गई है. ये एक ऐसा मामला है, जिसमें सरकार एक साथ जज, ज्यूरी और सजा पर अमल करने वाली बन बैठी है. वही तय करती है कि एक एंजेल इन्वेस्टर को किसी स्टार्ट-अप में इक्विटी हासिल करने के लिए कितनी रकम देनी चाहिए. लेकिन अगर किसी एंजेल इन्वेस्टर ने एक स्टार्ट-अप की वैल्यू सरकारी नौकरशाही के घिसे-पिटे अनुमान के मुकाबले ज्यादा लगा दी, तो उसे 30% टैक्स की चपत लगा दी जाती है. कुछ समझ आया?

मैं और आसान करके बताता हूं.

मान लीजिए एक एंजेल इनवेस्टर किसी स्टार्ट-अप की वैल्यू 100 रुपये आंकता है, लेकिन हमारे टैक्स वाले बाबू को लगता है कि उसकी असली वैल्यू 50 रुपये ही है. ऐसे में क्या होगा? स्टार्ट-अप को टैक्स भरने का नोटिस थमा दिया जाएगा, ये कहते हुए कि तुमने 50 रुपये की अतिरिक्त आय ‘’अर्जित’’ की है, इसलिए 15 रुपये चुपचाप हमारे हवाले कर दो! ये एक ऐसी मूर्खतापूर्ण टैक्स व्यवस्था है, जिसके बारे में पहले न कभी किसी ने सुना, न देखा और जिसकी मिसाल टिंबकटू में भी नहीं मिलेगी !!

इन हालात में ये कोई हैरानी की बात नहीं कि हमारे स्टार्ट-अप Change.org पर हाथ जोड़े विनती कर रहे हैं: "हम आदरणीय वित्त मंत्री से अनुरोध करते हैं कि सेक्शन 56(2) और सेक्शन 68 की कड़ी समीक्षा की जाए, वो भी पिछली तारीख से, ताकि हम अपने स्टार्ट-अप के निर्माण पर पूरा ध्यान दे सकें."

ADVERTISEMENTREMOVE AD

याद रहे कि 10 में 9 स्टार्ट-अप फेल हो जाते हैं; लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि अपने स्टार्ट-अप इंडिया एक्शन प्लान की बदौलत हम 10 में 10 स्टार्ट-अप के नाकाम होने की शानदार विफलता दर हासिल करके गिनीज बुक में सम्मानित जगह बनाने में कामयाब होंगे.

क्या हुआ जब अंकल सैम वेंचर कैपिटलिस्ट बनने निकले

अगर आपको अब भी भरोसा नहीं हो रहा, तो जान लीजिए कि अंकल सैम यानी अमेरिका की सरकार ने वेंचर कैपिटलिस्ट बनने के चक्कर में क्या कबाड़ा किया था. सिलिकॉन वैली के स्टार्ट-अप सॉलिंड्रा की स्थापना 2004 में पॉली सिलिकॉन रहित सोलर पैनल बनाने के मकसद से की गई थी. अमेरिकी सरकार को लगा कि वो इस स्टार्ट-अप को आगे बढ़ाकर चीन की प्रतिस्पर्धी कंपनियों को करारा जवाब दे सकती है. लिहाजा, उसने इसे 535 मिलियन डॉलर यानी करीब 3500 करोड़ रुपये का सरकारी गारंटी वाला कर्ज दे दिया. ये कर्ज अमेरिकी सरकार के एनर्जी पॉलिसी एक्ट 2005 के तहत दिया गया. ये पहल बिलकुल हमारे स्टार्ट-अप इंडिया प्लान जैसी ही थी. उनकी आर्थिक दलीलें भी उतनी ही हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण थीं, जितनी हमारी. उन्हें लगा कि अमेरिकी सरकार वेंचर कैपिटलिस्ट बन जाएगी और होनहार स्टार्ट-अप्स को "पाल-पोसकर" सफलता की राह पर ले जाएगी.

लेकिन आगे चलकर हुई सिर्फ बर्बादी. फरवरी 2008 में पॉलीसिलिकॉन के दाम तेजी से गिरे, जिससे बिजनेस की होड़ में शामिल चीन की कंपनियों को प्रतिस्पर्धा में भारी बढ़त मिल गई. लेकिन सॉलिंड्रा के मैनेजमेंट के पास सरकार से मिला ऐसा खजाना था, जिसके वो लायक नहीं थे. उन्होंने इस धन को ''खर्च करते समय संदेहास्पद फैसले किए, कर्ज के पैसों को ऐसे आधुनिक उपकरण खरीदने में बर्बाद किया जो कभी इस्तेमाल नहीं किए गए." पूंजी जुटाने की कोशिश करने वाले कई और स्टार्ट-अप्स की तरह ही सॉलिंड्रा पर भी "बिक्री के आंकड़ों, कॉन्ट्रैक्ट्स और विकास के अनुमानों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने और बुरी खबर देने वाली सूचनाओं को निवेशकों, प्रेस और ग्राहकों से छिपाने" के आरोप लगे.

कोई तेज-तर्रार वेंचर कैपिटलिस्ट होता तो इस हेराफेरी को पकड़ लेता. लेकिन सुस्त, ढीले-ढाले और यहां तक कई बार खुद इस धांधली में शामिल रहे सरकारी बाबू इस मामले में मात खा गए. आखिरकार, अगस्त 2011 में सॉलिंड्रा ने खुद को दिवालिया घोषित करने की अर्जी डाल दी. इससे ये कड़वी सच्चाई एक बार फिर साबित हो गई कि सरकार अगर वेंचर कैपिटलिस्ट या प्राइवेट इक्विटी फर्म का काम करने की कोशिश करती है, तो इसके नतीजे बड़े दुखद होते हैं.

मार्केट विनर की पहचान करने के लिए जिन तौरतरीकों, सूझबूझ या डीएनए की जरूरत होती है, वो सरकारों के पास बिलकुल नहीं होते. इस कड़वी सच्चाई का कोई अपवाद नहीं है.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×