राजस्थान की राजनीति में आखिर हो क्या रहा है? ये एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब पिछले कई दिनों से लोग पूछ रहे हैं. मामला हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. जिसमें गहलोत सरकार की तरफ से वरिष्ठ वकील और कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने पैरवी की. राजस्थान की राजनीति में जो कुछ भी हो रहा है उसे लेकर क्विंट के एडिटोरियल डायरेक्टर संजय पुगलिया ने सिंघवी से खास बातचीत की. जिसमें सिंघवी ने कानूनी मुद्दों से लेकर राजनीतिक साजिश तक का जिक्र किया.
सिंघवी से जब पूछा गया की बीजेपी जब किसी भी प्रोजेक्ट को हाथ में लेती है और अमल करने में जुट जाती है तो जीवन की तरह कानून भी मिथ्या नहीं हो जाता है क्या? क्योंकि सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट, गवर्नर और स्पीकर सब इसमें उलझ से गए हैं.
इस सवाल के जवाब में सिंघवी ने कहा कि, इस बात में कोई शक नहीं है कि अगर आपने सोच लिया कि साम-दाम, दंड-भेद से किसी लक्ष्य को पाना है तो वो पूरा हो जाता है और इसके लिए बीजेपी बधाई की पात्र है. वहीं दूसरा ये कि अगर उन्हें ऐसे तारीफ चाहिए तो मैं समझता हूं कि ये देश की और हमारे संवैधानिक नियमों की काफी दुर्दशा है. क्योंकि ऐसी प्रशंसा का पात्र बनने के लिए कम से कम मैंने तो अपने अनुभव में न तो पढ़ा है और न सुना है कि गवर्नर इस तरह कर सकते हैं. विधानसभा सत्र बुलाने के लिए सैकड़ों प्रश्न पूछे जा रहे हैं, जिनका एक ही उद्देश्य है कि किसी तरह से विलंब हो. सिंघवी ने आगे कहा,
“अधिकार क्षेत्र की एक सीमा होती है. संविधान में सब कुछ नहीं लिखा जा सकता है. संविधान ये मानकर चलता है कि जो उच्च पदों पर पदाधिकारी बैठे हैं उनमें वो ऊर्जा और परिपक्वता है कि वो उसकी आत्मा को भी समझेंगे सिर्फ लेटर को नहीं देखेंगे. इसीलिए इसे देखते हुए मैं समझता हूं कि हमारे संविधान की दयनीय हालत हो गई है.”
जैसा कि गवर्नर ने कहा है कि 21 दिन का नोटिस देकर ही विधानसभा सत्र बुलाया जाए. वहीं सरकार की तरफ से अब जवाब दिया गया है कि वो 31 जुलाई को सत्र बुलाना चाहते हैं और अब फिर से गवर्नर इसे खारिज कर देते हैं तो फिर क्या होगा?
अगर ऐसा होता है तो फिर से लोगों को बरगलाया जाएगा, कि गवर्नर सत्र तो बुला रहे हैं, कांग्रेस ही विरोध कर रही है. लेकिन ऐसी कंडीशन लगाई जा रही है, जिससे अवरोध लगाए जा सकें. राज्यपाल से ज्यादा किसे मालूम होगा कि राजस्थान में सैकड़ों बार 5, 7 और तीन दिन की अवधि में सेशन बुलाया गया है. देश के कई राज्यों में यही चीज होती है. 21 दिन जरूर लिखा गया है, लेकिन वो कैबिनेट पर किसी तरह से बाध्य नहीं है. आज दयनीय हालत हो गई है कि कैबिनेट ने तीसरी बार सेशन बुलाने की मांग की है.
क्या आपको ऐसा लग रहा है कि फिर से अपील खारिज होगी और इन्हें समय मिलेगा?. बीजेपी और सचिन पायलट मिलकर अपने नंबर जुटाएंगे और फिर कहेंगे कि आप विश्वास मत क्या लाएंगे हम अविश्वास मत लाते हैं.
कानून की हत्या हो रही है, लेकिन साथ ही ये लोग एक्सपोज भी हो रहे हैं. अगर आप किसी विधानसभा सत्र का विरोध करते हैं और मैं चाहता हूं कि विधानसभा सत्र बुलाया जाए तो किसके पास पर्याप्त आंकड़े होंगे. ये देश समझ गया है कि किसके पास हौसला है और कौन रिस्क लेने के लिए तैयार है. ये नकाब खुलना भी बड़ी बात है.
जब पावर का गेम है तो ये नकाब खुलना बड़ी बात नहीं रह जाता. कांग्रेस की सरकार को एक राज्य से बेदखल करने की तैयारी है. उसमें अब गवर्नर को इस रास्ते पर आगे बढ़ने से रोकने को लेकर आपके पास क्या कानूनी विकल्प हैं? क्या आप कोर्ट जाएंगे?
हर प्रॉब्लम का हल कोर्ट नहीं होता. आज राज्यपाल के जो भी खेल आप लोग देख रहे हैं और जो नियंत्रण करने वाले लोग हैं, वो चाहेंगे कि ये विलंब में पड़ा रहे. अब अगर आप कोर्ट जाएंगे तो उसमें कई हफ्ते निकल जाते हैं. इसके बाद जो राज्यपाल ऐसे-ऐसे प्रश्न पूछ रहे हैं वो कोर्ट जाने के बाद ये कहेंगे कि जब तक कोर्ट की प्रक्रिया पूरी नहीं होती तब तक मैं कुछ नहीं कर सकता. इस तरह के ट्रैप में हमको नहीं फंसना है. संवैधानिक पदाधिकारी अगर इतना गिरते हैं तो उनको बार-बार नेम एंड शेम किया जाना चाहिए.
अब आप स्पीकर के रोल को समझाइए. जब सुप्रीम कोर्ट में मसला गया तो उसमें स्पीकर भी पार्टी बन गए और फिर उसे वापस ले लिया गया.
सभी को पता है कि स्पीकर का अधिकार बड़ा है. 1992 में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की खंडपीठ ने कह रखी है. अगर इसके बाद भी आप कहते हैं कि मैं इसे फॉलो नहीं करूंगा. मैं हाईकोर्ट के आंतरिक आदेश को गलत ठहराता हूं. जिसने स्पीकर की प्रक्रिया में हस्तक्षेप किया. 10वें शेड्यूल में सिर्फ एक व्यक्ति है जो विधायकों पर फैसला ले सकता है. अब जब कहा गया है कि स्पीकर के फैसले के बाद ही कोई हस्तक्षेप कर सकता है तो फैसले से पहले कैसे हस्तक्षेप कर सकते हैं.
क्या हाईकोर्ट के 22 तारीख वाले फैसले के बाद स्पीकर अपने अधिकार का प्रयोग करके आगे बढ़कर इन विधायकों को अयोग्य घोषित कर देते तो क्या वो कानूनन सही होता या अदालत की अवमानना हो जाती?
अगर आप सीधा कानूनी सवाल कर रहे हैं तो ये कोर्ट की अवमानना नहीं होती. लेकिन वास्तविक जीवन में लोग इस तरह के विरोधाभास को टालने की कोशिश करते हैं. हर चीज सिर्फ ईगो पर नहीं होती. भले ही कानून में ये गलत नहीं होता, लेकिन आमतौर पर ऐसी सलाह नहीं दी जाती. क्योंकि सभी लोग संवैधानिक पद पर बैठे हैं. सभी एक दूसरे का सम्मान करते हैं. इसीलिए स्पीकर ने बड़प्पन दिखाया और कोर्ट की बात मानी.
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