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‘चुनाव और कंज्यूमर मार्केटिंग में फर्क मिट गया है’

संजय पुगलिया के साथ कंज्यूमर बिहेवियर, एडवरटाइजिंग और मीडिया एक्सपर्ट संतोष देसाई की खास बातचीत.

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कैमरा: अभिषेक रंजन, सुमित बडोला

प्रोड्यूसरः कनिष्क दांगी

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जब इंडियन पॉलिटिक्स कंज्यूमर की टर्मिनोलॉजी को अपना ले और इंडियन वोटर कंज्यूमर बन जाए और पार्टियां उसके साथ सेवा करने की बजाय ट्रांजेक्शनल रिलेशनशिप बनाना चाहें तो आप कह सकते हैं कि कहीं भारत FMCG नेशन तो नहीं बन गया है?


चुनावी मौसम में ऐसे ही कई मुद्दों क्विंट के एडिटोरियल डायरेक्टर संजय पुगलिया के साथ कंज्यूमर बिहेवियर, एडवरटाइजिंग और मीडिया एक्सपर्ट संतोष देसाई की खास बातचीत.

देश में सबसे ज्यादा डिस्ट्रीब्यूट होने वाला प्रोडक्ट वोट है

संतोष देसाई का मानना है कि फिलहाल देश में सबसे ज्यादा डिस्ट्रीब्यूट होने वाला प्रोडक्ट है- वोट. पिछले कुछ समय से चल रहे चुनाव प्रचार के तौर-तरीकों पर संतोष देसाई कहते हैं कि कंज्यूमर मार्केटिंग और इलेक्शन कैंपेन में जो फर्क था वो बहुत कम हो गया है. वो कहते हैं कि नॉर्मल मार्केटियर न कर पाए, ऐसी चीजें अब प्रचार में देखने को मिलती हैं.

2014 से अगर आप देखें तो जैसे मोदी जी का ब्रांड है, उसमें लगभग प्रेसिडेंशियल स्टाइल का चुनाव होने लगा है. लेकिन अगर आप उसे दूसरी तरह से देखें तो वो बिल्कुल समझा सकता है कि एक ब्रांड को किस तरह बेचना है और किस तरह से उसे स्थापित करना है? ऐसी सारी मार्केटिंग की, एडवरटाइजिंग की स्ट्रेटजी को अपनाया जा रहा है.  
संतोष देसाई

संतोष देसाई का मानना है कि किसी भी पार्टी या नेता की दिलचस्पी तथ्य में नहीं होती है, चुनाव के लिहाज से जो जरूरी चीज हो, पार्टी वैसी ही स्ट्रेटजी अपनाती है.

जैसे मार्केटिंग में होता है कि बदलते नैरेटिव के हिसाब से चीजें बदली जाती हैं, बीजेपी के लिए अभी चुनाव के लिए जरूरी बात है कि वो ज्यादा तथ्यों की तरफ न जाएं. वहीं कांग्रेस के लिए ज्यादा जरूरी है कि अगर वो इमोशनल मुद्दों में अटक गई तो बीजेपी उस मौके को खींच लेगी.
संतोष देसाई

'When in doubt, Vote against'

संतोष देसाई ने हाल ही में टाइम्स ऑफ इंडिया में एक लेख लिखा था 'When in doubt, Vote against' . जब देसाई से इस लेख के बारे में पूछा गया तो वो कहते हैं कि वोट देने से पहले सबसे तय करना चाहिए कि आखिर देश की बुनियाद के लिए कौन सी स्थिति सबसे सही है.

संतोष कहते हैं कि अगर किसी वोटर के दिमाग में ये चल रहा है कि वोट बीजेपी को करें या कांग्रेस को करें या दूसरी पार्टी को. इस स्थिति में उस वोटर को खुद से ये सवाल करना चाहिए कि देश की बुनियाद पर जो खतरा है वो कहां से है? इस सवाल के जवाब के मुताबिक ही वोट देना चाहिए.

ऐसी स्थिति में वोटर तय नहीं कर पाते. ऐसे में अगर आपको शक हो तो सबसे पहले बुरी से बुरी हालत के बारे में सोचिए, कि बीजेपी अगर वापस आती है तो क्या सबसे बुरा हो सकता है? अगर महागठबंधन सत्ता में आता है तो क्या बुरा हो सकता है? फिर अपने आप से पूछिए कि आप किस चीज को रोकना चाहेंगे? किस चीज पर आपको लगता है कि ये मौलिक आधार पर गलत है? 

संतोष देसाई कहते हैं कि कुछ लोग ये भी कह सकते हैं कि देश का फैब्रिक खराब हो रहा है संस्थाएं खतरे में है या ये भी कह सकते हैं कि एक ही परिवार देश चला रहा था अब बदलना है. ऐसे में देसाई के मुताबिक, वोटर को सबसे पहले सोचना चाहिए कि किस चीज से देश की बुनियाद को सबसे ज्यादा खतरा है.

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