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जंगलों में लगने वाली आग से तबाह हो रहा उत्तराखंड, जिम्मेदार कौन? 

स्थानीय लोगों का मानना है कि ये आग प्राकृतिक नहीं बल्कि लोगों की लापरवाही का नतीजा है. 

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मई के आखिर में उत्तराखंड में एक बार फिर जंगलों में आग लगने का संकट सामने आया. पिछले कुछ दिनों में जंगलों में लगी आग लगातार फैलती जा रही है. माॅनसून ने भी अभी दस्तक नहीं दी है, ऐसे में आग लगने से स्थानीय लोगों को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है.

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उत्तराखंड के जंगल हमेशा आग की चपेट में आते रहे हैं. स्थानीय लोगों का मानना है कि ये आग प्राकृतिक नहीं बल्कि लोगों की लापरवाही का नतीजा है. 21 मई को उत्तराखंड से जंगल की आग की करीब 295 खबरें आई थी, जंगल में आग की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत ने जांच के आदेश दिए हैं.

स्थानीय लोगों का मानना है कि ये आग प्राकृतिक नहीं बल्कि लोगों की लापरवाही का नतीजा है. 
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चीफ कंजर्वेटर ऑफ फॅारेस्ट और नोडल ऑफिसर बीपी गुप्ता के मुताबिक, गढ़वाल एरिया की हालत सबसे ज्यादा खराब है तो पौड़ी जिला भी इस आपदा से ज्यादा प्रभावित हुआ है. उन्होंने कहा कि 20 मई को जंगल में आग लगने की 741 खबरें थी जो अगले दिन 21 मई को बढ़ कर 1,036 हो चुकी थी.

स्थानीय लोगों का कहना है कि इस आग से न सिर्फ पर्यावरण को नुकसान होता है बल्कि इससे पहाड़ी इलाके में रहना भी बेहाल हो जाता है.

नैनीताल की रहने वाली नित्या बुद्धराज का कहना है कि -

जंगल में आग ऐसे ही नहीं पकड़ लेती. जंगल में आग लापरवाही से लगती है या फायदे के लिए लगा दी जाती है. अगर आप कोशिश करते हैं और आग जलाते हैं अगर वो नहीं जलता तो आप देवदार की तिली का इस्तेमाल करते हैं. 10 सेकंड में आग की लपटें ऊपर उठने लगती हैं क्योंकि ये देवदार के पेड़ों की प्रकृति है.

देवदार के पेड़ों की बढ़ती संख्या के कारण स्थानीय लोग जमीन के अंदर कम होते जा रहे पानी के लेवल की परेशानी से जूझ रहे हैं साथ ही इससे आग से निपटने में ज्यादा दिक्कतें आती हैं.

ये पेड़ जमीन के अंदर के पानी को सोख लेता है. पूरा इलाका सूख जाता है. हमारे पहाड़ सूख जाते हैं. हमारे पास पानी की कमी होती है. जब आग लगती है तब आप हजारों-हजारों गैलन पानी निकाल देते हैं, जबकि पानी की सप्लाई दिन में सिर्फ दो बार होती है.
नित्या बुद्धराज

स्थानीय निवासी संयुक्ता शर्मा का कहना है कि, ये इलाका खर-पतवारों और पुराने झोपड़ियों के साथ छोड़ दिया गया है. इससे पहले, जब लोग यहां रहते थे, तो वे इलाके को साफ करते थे और हर कोई इसका ख्याल रखता था लेकिन अब जब आग लगती है और वे इन इलाकों तक पहुंच जाती है, तो आग कंट्रोल से बाहर हो जाती है.

लोगों का मानना है कि वन विभाग को आग लगने के पीछे हो रही लापरवाही के बारे में सब पता है. लेकिन कोई इस समस्या का हल नहीं निकालता.

नित्या बुद्धराज का कहना है कि “जंगल विभाग की भी मिलीभगत है, ये नामुमकिन है कि इस तरह बड़े पैमाने पर आग उनकी नाक के नीचे लगाई जाती है और उन्हें इसके बारे में पता न हो. आप पेड़ की टहनी को हटाने की कोशिश करते हैं क्योंकि ये आपके घर पर गिर सकता है और आपकी छत तोड़ सकता है, वे आएंगे और आपको परमिशन लेने के लिए कहेंगे और आपके पीछे लग जाएंगे. फिर ये कैसे हो सकता है कि जब पूरा उत्तराखंड जल रहा हो, और उन्हें इसके बारे में पता ही न हो?”

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स्थानीय लोगों का मानना है कि ये आग प्राकृतिक नहीं बल्कि लोगों की लापरवाही का नतीजा है. 
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संयुक्ता शर्मा का कहना है कि कभी-कभी वन विभाग के लोग, जंगल की देखरेख में होने वाली लापरवाही को छिपाने के लिए इसके कुछ इलाकों को जला देते हैं ताकि सीनियर जब सर्वे के लिए आएं तो उनकी गलतियों को छिपाया जा सके.

न सिर्फ जंगल की देखरेख में लापरवाही होती है बल्कि जब जंगल में किसी वजह से आग लगती है तो वन विभाग उसे बुझाने में भी लापरवाही करता है. स्थानीय निवासी देसना का कहना है कि कई लोग महसूस करते हैं कि आग को सही तरीके से काबू में नहीं किया जाता.

संयुक्ता ने जंगल संरक्षण के पूरे सिस्टम पर सवाल उठाते हुए कहा है कि-

जंगल संरक्षण के पूरे सिस्टम पर सवाल किया जा रहा है क्योंकि एक व्यक्ति पूरे जंगल की देखभाल करे, ये बहुत मुश्किल है. इससे पहले एक पूरा समुदाय इसकी देखभाल कर रहा था .. वैसे भी इसकी देखभाल करने की पूरी व्यवस्था अजीब है.

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