25 अप्रैल, 2015... छुट्टी की ऊंघती दोपहर में घनघनाकर बजे फोन को मैंने अनमने से उठाया, तो दूसरी तरफ से सीधा सवाल था, ‘नेपाल जाओगे?’ नेपाल में आए महाभूकंप को करीब तीन घंटे बीत चुके थे. मैंने फौरन जवाब दिया, ‘जाऊंगा.’
काठमांडू का त्रिभुवन इंटरनेशनल एयरपोर्ट उस वक्त ठप पड़ा था. यानी सड़क से जाना होगा या फ्लाइट से, ये भी तय नहीं था. आलस को बिस्तर पर पटककर मैं ऑफिस पहुंच गया. खैर साहब, अगले दिन 12 बजकर 55 मिनट पर दिल्ली से काठमांडू जाने वाले स्पाइस जेट का टिकट हमें मिल पाया.
रिक्टर स्केल पर भूकंप की तीव्रता थी 7.9 यानी बहुत ज्यादा तबाही. अगली दोपहर तक मरने वालों की तादाद ढाई हजार हो चुकी थी.
दोपहर करीब डेढ़ बजे हमारी फ्लाइट ने लखनऊ शहर का आसमान पार किया, तो कॉकपिट से कैप्टन की कांपती आवाज गूंजी, ‘’नेपाल में दोबारा आए भूकंप के झटकों की वजह से काठमांडू एयरपोर्ट के तमाम ऑपरेशन बंद कर दिए गये हैं. लिहाजा हमें वापस दिल्ली लौटना होगा.’’
दोबारा भूकंप की खौफनाक खबर ने फ्लाइट में मौजूद लोगों की रगों में खून की रफ्तार बढ़ा दी. सब जल्द से जल्द नेपाल पहुंचना चाहते थे, लेकिन कोई रास्ता नहीं था. आधुनिक तकनीक के शानदार नमूने यानी हवाई जहाज में बैठा मैं सोच रहा था कि अपनी पर आ जाए, तो कुदरत इंसान को कितना लाचार बना सकती है.
दिल्ली एयरपोर्ट पर अफरा-तफरी और बदहवासी के करीब पांच घंटे गुजारने के बाद आखिरकार जहाज ने दोबारा उड़ान भरी. अटकलों के आसमान में घंटों बिताते हुए जहाज के पहिये काठमांडू एयरपोर्ट की जमीन से टकराए, तो रात के दस बज चुके थे. दरवाजा खुलते ही हवा का तेज झोंका मेरे चेहरे पर झपटा और एक अनजाने खौफ से मैं अंदर तक सिहर गया.
एयरपोर्ट पर तेज बारिश और अंधेरा था. लेकिन शीशे की खिड़कियों से डिपार्चर पर जमा हजारों लोगों की भीड़ साफ नजर आ रही थी. ये वो वक्त था, जब हर कोई नेपाल से भागना चाहता था. लेकिन हम बर्बादी के उसी मंजर को कवर करने के लिए वहां रहने आए थे.
होटल अन्नपूर्णा पहुंचने पर मैंने देखा कि लॉबी और लॉन में जमीन से लेकर सोफे-कुर्सियों तक लोग बिखरे पड़े थे. वो तमाम लोग टूरिस्ट थे, लेकिन होटल के अपने कमरों को छोड़कर खुले में सो रहे थे. बदन थकान से टूट रहा था, लिहाजा भूख और भूकंप, दोनों को भगवान भरोसे छोड़कर हम दूसरी मंजिल पर मौजूद कमरा नंबर 3040 के बिस्तरों पर लुढ़क गए.
अगली सुबह वीडियो जर्नलिस्ट विमल कुमार के साथ मैं होटल से निकला, तो शहर की सड़कों पर मरघट का सन्नाटा था. जगह-जगह बिखरे मलबे के बीच सड़ी हुई लाशों की दुर्गंध हवा में तैर रही थी. काठमांडू घाटी के चारों तरफ फैला हिमालय पर्वत किसी बेरहम हत्यारे सरीखा लग रहा था. कोई स्थानीय मदद मौजूद नहीं थी और फोन-इंटरनेट काम नहीं कर रहे थे.
कुछ देर भटकने के बाद मैं नेपाल निर्वाचन आयोग के पार्क में बने एक राहत कैंप में पहुंचा. प्लास्टिक की पन्नियों और बांस की डंडियों के कामचलाऊ तंबुओं के नीचे लोगों ने अपने रैनबसेरे बनाए थे. बच्चे, बूढ़े महिलाएं, देशी, विदेशी सबकी एक सी हालत थी- बदतर.
खाना-पीना, ओढ़ना-बिछाना तो छोड़िये, शौचालय जैसी बुनियादी जरूरतों को तरसते वो लोग अपनी बदनसीबी पर रो रहे थे. खास बात ये कि उन बेघरों में बहुत से वो भी थे, जिनके घर सुरक्षित हैं, लेकिन भूकंप के फिर से आने का खौफ उन्हें खुले आसमान के नीचे ही रहने को मजबूर कर रहा था. यहां तक कि कांतिपुर टीवी जैसा नेपाल का बड़ा न्यूज चैनल सड़क पर तंबू लगाकर लोगों तक भूंकप की खबरें पहुंचा रहा था.
दुनिया की सबसे ऊंची चौदह पहाड़ी चोटियों में से आठ नेपाल में हैं और उन्हीं में एक है माऊंट एवरेस्ट. हिमालय की गोद में बसे इस प्यारे से देश में हर साल करीब पांच लाख विदेशी पर्यटक आते हैं, जिनमें से आधे ट्रैकिंग के लिए आते हैं.
भूकंप की वजह से सब ठप था और विदेशी पर्वतारोहियों की अच्छी खासी तादाद राहत शिविरों में टिके रहने को मजबूर थी. खास मकसद से आनेवाले ये टूरिस्ट अपने साथ टेंट और खाने-पीने का सामान लेकर चलते हैं, लिहाजा उनकी हालत कैंप में मौजूद बाकी लोगों से बेहतर थी.
वहां मुझे एक अनोखी बात नजर आई. बच्चों के बीच इधर-उधर दौड़ते पालतू कुत्ते. उनमें से भी ज्यादातर सफेद झबरीले पॉमेरियन. बाद में मैंने गौर किया कि नेपाल के लोग पालतू कुत्तें के खासे शौकीन हैं और पॉमेरियन पसंदीदा ब्रीड है.
कैंप से निकलकर मैंने भूंकप के एक और शिकार इलाके भक्तपुर की टैक्सी पकड़ी. काठमांडू के पूर्वी कोने पर 13 किलोमीटर की दूर पर बसा भक्तपुर नेपाल की सांस्कृतिक राजधानी और पर्यटकों की जान कहलाता है. द लॉयन गेट, गोल्डन गेट, पचपन खिड़कियों वाला दिव्य महल, प्राचीन शिव मंदिर और ना जाने क्या क्या.
साल 2005 में भारत-पाकिस्तान के पत्रकारों की एक कॉन्फ्रेंस में शिरकत के दौरान मैं भक्तपुर गया था. वही धुंधली तस्वीरें मेरे जहन में तैर रही थीं. लेकिन भक्तपुर पहुंचकर मैं टैक्सी से उतरा, तो मेरा दिल बैठ गया. कल्पनाओं को भी पीछे छोड़ देने वाली वहां की खूबसूरती कुदरत के कहर से जमींदोज हो चुकी थी.
काम से फुरसत मिली, तो पेट की याद आई. लेकिन 27 तारीख की शाम तक हालत में कोई सुधार नहीं हुआ था. तमाम दुकानों, रेस्तरां के शटर गिरे हुए थे. बड़ी मन्नतों से एक ढाबा नजर आया. हम लोग भिखारियों सी सूरत लेकर उसके पास धमक गए. भूख इस कदर थी कि खाने का स्वाद तक मुझे याद नहीं, लेकिन हां.. चावल, दाल और आलू सब्जी की हर प्लेट का दाम था आठ सौ रुपये.
मेरे साथी पत्रकारों का एक बड़ा धड़ा एयरफोर्स और एनडीआरफ के हेलिकॉप्टरों में दूर-दराज इलाकों के चक्कर काट रहा था. लिहाजा मैंने जमीन पर ही टिके रहने का मन बना लिया.
भारत समेत 35 देशों की बचाव टीमें और दर्जनों देशों के सैंकड़ों पत्रकार उस वक्त नेपाल में मौजूद थे. कहीं पर वाई-फाई मिल जाए, तो चेहरे ऐसे खिलते थे, जैसे समंदर में भटके जहाज को कोई वॉच टावर दिख गया हो.
सिर्फ काठमांडू शहर में ही एक हजार के करीब लोगों की मौत हो चुकी थी. हर मोड़ पर मलबे के ढेर, राहत-बचाव के कामों में जुटे जवान और मुंह पर मास्क लगाए आम लोग नजर आते थे. इसके अलावा सिंधुपल चौक, नुवाकोट, धादिंग, भक्तपुर, गोरखा, कावरे, ललितपुर और रासुवा जैसे कई जिलों में हजारों लोग काल का ग्रास बन चुके थे.
एक टैक्सी ड्राइवर के हाथ-पैर जोड़कर मैंने उसे सांखू गांव जाने के लिए तैयार किया. ये गांव काठमांडू से 17-18 किलोमीटर ही रहा होगा. डेढ़ घंटे के सफर के बाद हम वहां पहुंचे, तो मेरा दिमाग झनझना गया. लग रहा था कि मैं किसी गांव में नहीं, बल्कि 1974 में आई हॉलीवुड मूवी Earthquake के सेट पर खड़ा हूं. हर तरफ तबाही के निशान और गिरे हुए मकान. संकरी गलियों वाले उस गांव के घरों पर जैसे किसी ने बाकायदा रोड रोलर चला दिया हो.
मैं आगे बढ़ ही रहा था कि अचानक सड़े हुए इंसानी जिस्म की तेज दुर्गंध ने मेरा कलेजा मुंह को ला दिया. नाक पर रुमाल बांधकर मैं जरा करीब पहुंचा, तो एक गावंवाले ने मुझे बताया कि वहां 10 साल की एक बच्ची समेत चार लोगों के दबे होने की आशंका है.
सांखू में 25 लोगों की मौत हो चुकी थी और 250 से ज्यादा लापता थे. तलाश जारी थी, लेकिन तबाही का वो आलम उम्मीद की हर किरण को हर गुजरते पल के साथ झीना कर रहा था.
भूकंप के पांचवें दिन, यानी 29 अप्रैल तक काठमांडू की सड़कों पर जिंदगी पटरी पर लौटने लगी थी. उसी दिन मैं काठमांडू से 70 किलोमीटर दूर नुवाकोट जिले के थानापति गांव में पहुंचा. एक पहाड़ की चोटी पर बसे उस गांव तक पहुंचने के लिए हमें करीब 5 किलोमीटर की बेहद थका देने वाली खड़ी चढ़ाई पैदल चढ़नी पड़ी.
नीले आसमान और रुई के गोलों जैसे सफेद बादलों के बीच उस मनमोहक गांव में पहुंचने पर खुलासा हुआ कि शहरों में लौटती चहलपहल दरअसल आधा सच है. भूकंप के 6 दिन बाद भी उस गांव में सरकार नाम की चीज नहीं पहुंची थी. लोग खुद ही अपने गिरे हुए आशियानों को फिर से खड़ा करने की लड़खड़ाती कोशिशें कर रहे थे.
81 साल सबसे भीषण भूकंप ने नेपाल में करीब 9000 लोगों की जान ली. करीब 3 करोड़ लोग किसी न किसी रूप में उसका शिकार हुए. नेपाल को दोबारा संवारने के लिए करीब 10 अरब डॉलर के खर्च का अंदाजा लगाया गया था, जो नेपाल की कुल अर्थव्यवस्था का आधा है.
दुनियाभर से मिली आर्थिक मदद के बावजूद चार साल बाद भी नेपाल पूरी तरह अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पाया है. आज भी सैकड़ों लोग अपने घरों से दूर राहत शिविरों में जिंदगी काटने को मजबूर हैं.
(लेखक ने साल 2015 में नेपाल का भूकंप न्यूज चैनल IBN7 (अब न्यूज 18 इंडिया) के संवाददाता के तौर पर कवर किया था और वहां से लौटकर ये अनुभव चैनल की वेबसाइट के लिए लिखा था.)
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