वीडियो एडिटर: दीप्ति रामदास
लोकसभा को संबोधित करते हुए, केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावडेकर ने 8 फरवरी को कहा था, “कोई भी शिक्षा और ऑनलाइन शिक्षा से वंचित नहीं था. जहां कुछ भी नहीं था, वहां मुहल्ला क्लासेस थीं. ”
हालांकि, केंद्रीय मंत्री का बयान सरकार की अपनी ही रिपोर्ट से अलग है, जो देश में विशेषाधिकार प्राप्त और वंचित छात्रों के बीच एक डिजिटल डिवाइड को दिखाता है.
NCERT द्वारा 2020 में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक, लगभग 27 प्रतिशत छात्रों के पास मोबाइल या लैपटॉप नहीं है, उन्हें ऑनलाइन कक्षाओं में शामिल होने के लिए इनकी ही जरूरत होती है.
एनसीईआरटी ही नहीं, एएसईआर 2020 और स्माइल फाउंडेशन की रिपोर्ट में बिना स्मार्टफोन वाले लोगों का प्रतिशत क्रमशः 38.2 और 56 प्रतिशत है.
वंचित बच्चों के लिए घर में एक डिवाइस का न होना, समस्या तो है ही इसके अलावा एक से अधिक बच्चों वाले घरों में भी स्थिति ठीक नहीं है.
ये अजीम प्रेमजी फाउंडेशन की रिपोर्ट से प्रमाणित होता है जिसमें कहा गया था कि लगभग 60 प्रतिशत छात्र भाई-बहनों के बीच डिवाइस को शेयर करने वाले विभिन्न वजहों के कारण ऑनलाइन कक्षाओं में शामिल नहीं हो पाते हैं.
श्री जावडेकर ने कहा कि जिन बच्चों की पहुंच डिवाइस और ऑनलाइन कक्षाओं तक नहीं थी, उन्हें मोहल्ला स्कूलों के जरिए पढ़ाया जाता है, जबकि सच्चाई ये है कि सभी छात्रों को जिनके पास डिवाइस की कमी थी, उनके पड़ोस में ये सुविधा उपलब्ध नहीं थी.
ऑक्सफैम इंडिया की एक रिपोर्ट कहती है कि सरकारी स्कूलों में एडमिशन वाले 80 प्रतिशत से अधिक बच्चों को लॉकडाउन की अवधि के बाद से किसी भी रूप में शिक्षा नहीं मिली, सरकारी स्कूलों के केवल 20 प्रतिशत शिक्षकों को ऑनलाइन कक्षाएं देने के लिए प्रशिक्षित किया गया था.
सवाल ये है - क्या भारत में डिजिटल डिवाइड के बारे में बात न करना सही था? और ऐसा न कर, जावड़ेकर ने हजारों गरीब बच्चों, उनके संघर्षों और उनकी दुर्भाग्यपूर्ण वास्तविकताओं को अदृश्य नहीं बना दिया?
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)