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किसान आंदोलन: हमारे क्रिकेट लीजेंड चुप क्यों रहते हैं?

हमारे बीच रहने वाले ये नेशनल लीजेंड्स, ये ‘भगवान’ क्यों चुप रहते हैं?

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सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट

  • नागरिकता संशोधन अधिनियम का विरोध करने वाले नागरिकों और पुलिस के बीच झड़प याद है?
  • भारतीयों द्वारा भारतीयों की लीचिंग?
  • दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगों में जान गंवा चुके कई निर्दोष लोग?
  • क्या आपने भारत के इन ऐतिहासिक पलों में से किसी भी पॉइंट पर - सचिन को भारत से ये कहते देखा- 'एक राष्ट्र के रूप में एकजुट रहें'?
  • विराट अपने लाखों फॉलोअर्स से पूछ रहे हों कि 'असहमतियों की इस घड़ी में सभी एकजुट रहें'?
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जवाब आप भी जानते हैं और मैं भी. तो मैं नहीं पूछूंगी कि हमारे बीच रहने वाले ये नेशनल लीजेंड्स, ये 'भगवान' क्यों चुप रहते हैं?

ये क्यों नहीं उन तमाम लोगों के लिए उदाहरण बनते हैं जो इनके मैच का टिकट खरीदने के लिए एक दिन भूखा रह जाते हैं, या बस इनकी एक झलक पाने के लिए एग्जाम मिस कर देते हैं. ये अपने फैन्स को जरूरी मुद्दों पर अपनी राय क्यों नहीं बताते ताकि उन्हें भी अपनी राय बनाने में मदद मिले. वो क्यों तब भी सिर्फ विज्ञापनों में नजर आते हैं, जब इनके चेहरों की जरूरत इससे कहीं ज्यादा के लिए पड़ती है.

मैं आपसे ये नहीं पूछ रही हूं कि क्यों ग्लोबल ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन के लिए क्रिकेटर इंग्लैंड और न्यूजीलैंड में घुटने टेकते नजर आते हैं लेकिन लॉकडाउन के बाद क्रिकेट कारवां जब आईपीएल में पहुंचा तब आंदोलन को चुपचाप भुला दिया गया.

क्योंकि कॉलिन कैपरनिक होने के लिए, न सिर्फ आपको एक रीढ़ की जरूरत है

बल्कि आपको अपने करियर को जोखिम में डालने के लिए तैयार रहने की भी जरूरत होती है. सब कुछ खोने के लिए आपको तैयार रहना पड़ता है.

हां, आप ये तर्क दे सकते हैं कि असहमति की आवाज बनना बाकी देशों में कहीं ज्यादा आसान है. लेकिन, आपको क्या लगता है ये कैसे हुआ होगा? मुहम्मद अली को उदाहरण बनना पड़ा ताकि दूसरे लोग फॉलो कर सकें, कैपरनिक ने आवाज उठाई और अपने पेशेवर करियर, कॉन्ट्रैक्ट्स और लाखों डॉलर खो दिए.

मैं भारत की ओर देखती हूं और देखती हूं हमारे पास लीजेंड ही लीजेंड हैं, जिनकी फेम और फैन फलोइंग अली की तुलना में बहुत अधिक हो सकती है, तब मेरे जहन में सवाल आता है- हमारा अली कहां है?

हमारे लिए वो बड़ा, महान, मार्गदर्शक, वो रोशनी कहां है जो नेतृत्व करना सिखाता है?

सचिन और विराट और कुंबले ने बड़े मुद्दों पर जो चुप्पी इस देश को पिछले एक दशक में दी है, रिहाना और ग्रेटा थनबर्ग के ट्वीट के बाद उनके ट्वीट इसकी भरपाई नहीं कर सकते. हमारे दिग्गज बोलते हैं. लेकिन रटा हुआ.

क्योंकि 'एक राष्ट्र के रूप में एकजुट रहने’ की अपील तब क्यों नहीं की जब इंसानों की लीचिंग गाय के नाम पर की जा रही थी

या भारतीयों की नागरिकता को लेकर धर्म या जन्म के क्षेत्र के आधार पर डराया जा रहा था

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आप इन 280 कैरेक्टर्स का इस्तेमाल तब बोलने के लिए और हां, जान बचाने के लिए क्यों नहीं कर सकते थे? आप बदलाव ला सकते थे, क्योंकि आप हमारे बीच रहने वाले 'भगवान' हैं, आपमें वो शक्ति है

आप अपने राष्ट्रवाद को कॉपी पेस्ट अभियानों तक सीमित न करें, आवाज उठाएं. अपने प्रशंसकों को टेस्ट करें. जरूरी मुद्दों पर अपने व्यूज हमें बताएं. अगर हम सहमत नहीं हैं, तो हम असहमत हो सकते हैं

अगर आप किसी चीज में तर्क देखते हैं, तो शायद बाकी लोग भी फॉलो कर सकते हैं, लेकिन कम से कम बोलें तो. हो सकता है कि आपके ओहदे से कोई बोले तो लोग बात करेंगे, एक चर्चा शुरू होगी. तो कोई चर्चा शुरू कीजिए. हमें आपसे कॉपी पेस्ट से ज्यादा चाहिए. लोकतंत्र को लाइव करने में हमारी मदद कीजिए.

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