सुप्रीम कोर्ट ने सीनियर एडवोकेट सौरभ कृपाल (Saurabh Kirpal) को हाई कोर्ट (High Court judge) का जज बनाने की सिफारिश केंद्र सरकार को भेजी है. खुले तौर पर अपनी समलैंगिक पहचान को स्वीकार करने वाले सौरभ कृपाल कह चुके हैं कि उनकी इसी पहचान के कारण 2017 से ही हाई कोर्ट जज के रूप में उनके प्रोमोशन को लटका कर रखा गया है.
ऐसे में हम लेकर आये हैं क्विंट की ओपिनियन एडिटर निष्ठा गौतम और सौरभ कृपाल की बातचीत जिसमें हमने उनके प्रोमोशन में देरी, सेक्सुअल ओरिएंटेशन और उनके विशेषधिकारों जैसे तमाम मुद्दों पर उनकी राय जानी.
सुर्खियों में आपकी पहचान मुख्य तौर पर गे वकील के इर्द-गिर्द बताई जाती है. आप इसको कैसे देखते हैं?
सौरभ कृपाल- अगर छोटे शहर का कोई समलैंगिक बच्चा या नौजवान इंटरनेट पर जाकर यह पड़ेगा की सौरभ कृपाल जैसे लोग कुछ बन सकते हैं तो उसे भी यह प्रोत्साहन मिलेगा की अपनी काबिलियत के दम पर मैं भी जो चाहूं वो बन सकता हूं. यह देखकर मुझे गर्व होता है. यह भी है कि मैं नहीं चाहता मेरी पहचान सिर्फ एक गे वकील के तौर पर हो लेकिन अगर इससे किसी का लाभ हो रहा है, खासकर उनका जिनपर अपनी सेक्सुअलिटी को छुपाने का दबाव होता है, तो मैं इसे स्वीकार करने को तैयार हूं.
केंद्र सरकार अपके जज बनने की सिफारिश को अपनी मंजूरी क्यों नहीं दे रही?
सौरभ कृपाल- शायद सरकार को किसी आदिवासी को राष्ट्रपति बनाने में कोई परेशानी नहीं हो लेकिन सरकार में बैठे किसी नौकरशाह या राजनेता को अभी भी लगता है कि समलैंगिकता अनैतिक है. कई लोगों की सोच पुरानी है. हर किसी की सोच आपकी और हमारी तरह नहीं है.
मेरे सिर पर कोई सींग नहीं है. कई लोगों को लगता है कि समलैंगिकता पूरी तरह अप्राकृतिक और हमारी सभ्यता की पूरी खिलाफ है. जबकि ऐसा नहीं है. समलैंगिकता भारतीय संस्कृति का हिस्सा रही है. लेकिन अगर सरकार में बैठे किसी को ऐसा नहीं लगता है तो उसका कुछ नहीं किया जा सकता.
क्या आप अभी भी कॉलेजियम सिस्टम का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि उसी ने आपके नाम की सिफारिश की है?
अगर मुझे इसका फायदा मिल रहा है तो इसका मतलब ये नहीं कि मैं उसे बिलकुल सही बता दूं. यह मेरी तरफ से अनैतिक होगा. कॉलेजियम सिस्टम में यह पता नहीं चलता कि पीछे कौन, क्या और किस वजह से फैसला ले रहा है. वह सिस्टम गलत है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि उसका हर फैसला गलत होगा. मैं खुद यह नहीं कह पाऊंगा कि मुझे हाई कोर्ट जज बनाने की सिफारिश का यह फैसला गलत है.
कॉलेजियम सिस्टम के साथ परेशानी यह है कि कई सही फैसलों के साथ अनेक गलत फैसले लिए जाते हैं. उसमें पारदर्शिता की कमी है, पता नहीं चलता कि इस तरह का फैसला क्यों लिया जा रहा है. यह लोकतांत्रिक नहीं है.
लोग कह सकते हैं कि आपके नाम की सिफारिश केवल इसलिए हुई क्योंकि आपके पिता भारत के चीफ जस्टिस थे
मैंने यह बात कई बार कही है कि मेरे पास कई सारे विशेषाधिकार थे. मैं अमीर खानदान से हूं, मेरे पिता जज थे, मैं उच्च जाति का हूं. यह सब सच है. लेकिन आज से 30 साल पहले जब मैं वकील बना था, तब बहुत सारे लोग इसलिए वकील बने थे क्योंकि उनके माता पिता वकील-जज थे और देश में कोई दूसरा पेशा अपनाने का चारा नहीं था. तब वकील का बेटा वकील बनता था, डॉक्टर की बेटी डॉक्टर बनती थी.
लेकिन मैं इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि कॉलेजियम ने मेरे नाम की सिफारिश इसलिए की है क्योंकि मेरे पास विशेषाधिकार है.लेकिन मैं आशा करता हूं कि अब समय बदल गया है. मैं आशा करता हूं कि आगे ऐसे लोग भी जज बनेंगे जिनके मां-बाप इस पेशे में नहीं हैं.
अगर आपको जज बनाने की सिफारिश को मंजूरी नहीं दी जाती है तो आपको बुरा लगेगा?
मुझे खुद के लिए तो बुरा नहीं लगेगा क्योंकि एक जज की जिंदगी काफी कठिन रहती है. वकील की तुलना में उनकी सैलरी इतनी अधिक नहीं होती. उनको लंबे-लंबे घंटे काम करना होता है. वो खुले रूप से किसी से मिल नहीं सकते, न जाने कौन उनपर क्या आरोप लगा दे. इसलिए जज न बनने पर मुझे ख़ुशी होगी.
लेकिन दुःख होगा अगर मुझे सिर्फ इसलिए जज नहीं बनाया जाता क्योंकि अभी कोई समलैंगिक जज नहीं है. अगर विशेषाधिकारों के बावजूद मैं जज नहीं बन पाया तो अगले 10-20 सालों तक समलैंगिक समुदाय से जज नहीं बन पायेगा. यह देश के लिए अच्छी चीज नहीं है.
जैसी डाइवर्सिटी हमारे देश में है, वैसी ही हमारे जजों में भी होनी चाहिए.
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