वीडियो एडिटर: वीरू कृष्ण मोहन
दिल्ली के शाहीन बाग में नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के खिलाफ प्रदर्शन चल रहा है. इसके कारण ट्रैफिक में दिक्कत आ रही है. कोर्ट ने पुलिस से कानून-व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए ट्रैफिक का मुद्दा सुलझाने को कहा है. इस पर दिल्ली पुलिस ने कहा कि वो प्रदर्शनकारियों को हटाने के लिए ताकत का इस्तेमाल नहीं करेगी और उम्मीद है कि प्रदर्शनकारी भी निर्देशों का 'पालन' करेंगे. ये सच है कि इलाके में ट्रैफिक में दिक्कत आ रही है.
लेकिन मैं आज बताना चाहती हूं कि लोगों की नागरिकता छीने जाने की आशंका के आगे ट्रैफिक की समस्या बहुत छोटी है, और ये लड़ाई बड़ी है.
पहले जानिए बैरिकेड कहां और क्यों रखे गए थे और क्या इनकी जरूरत थी?
ये शाहीन बाग और उसके आसपास के इलाकों की तस्वीर है. यमुना के ऊपर कालिंदी कुंज का पुल दिल्ली और नोएडा को जोड़ता है, शाहीन बाग में प्रदर्शन करीब 150 मीटर लंबे स्ट्रेच पर हो रहा है. हालांकि, पुलिस ने वो पूरी सड़क बंद कर दी है. अब सवाल उठता है- इस इलाके में होने वाले प्रदर्शन के लिए ये पूरा सेक्शन क्यों बंद किया गया?
जैसा कि पूर्व पत्रकार बिलाल जैदी ने अपने फेसबुक पोस्ट में बताया:
"शाहीन बाग की महिलाएं किसी खुले मैदान या पार्क में क्यों नहीं जा सकतीं और सड़क को जनता के लिए खुला रहने देती."? क्योंकि 3 लाख से ज्यादा लोगों की आबादी वाले ओखला में- हमारे पास मैदान नहीं है. हमारे पास पार्क नहीं है. हम सड़कों और गलियों में खेलते हुए बड़े हुए हैं. ले-देकर मौजूद एक सार्वजनिक जमीन प्लास्टिक बर्निंग प्लांट को दे दी गई थी. शहर के सभी अच्छे हिस्से आपने अपने पास रखे हैं. आपके पास पार्क हैं, आपके पास क्लब और खेल के मैदान हैं, जिसे आप शेयर नहीं करते, हम अनधिकृत हैं.”
और ये सच है, है ना?
दिल्ली में बहुत सारे "मुसलमानों के इलाके" हैं, बिजली और सफाई की कमी वाले छोटे, तंग इलाके, जहां शायद ही कोई ढंग का स्कूल हो. बाटला हाउस एनकाउंटर के बाद इन जगहों को और भी खराब कर दिया गया, और वहां के लोगों को "आतंकवादियों का हमदर्द" समझा गया. यहां मुसलमान 'पराया' होने की भावना में जीने लगे. जल्द ही वो छोटे, तंग इलाकों में सिमटने लगे, जहां उन्हें "जुड़ाव" की भावना महसूस हुई- इस तरह हमने अपने 'मुस्लिम घेटोज' में जगह पाई जो कि दिल्ली जैसे शहर के दिल की एक बहुत बड़ी असलियत है, वे वहां हैं क्योंकि वो ठीक उसी जगह पर हैं, जहां वे रहते हैं.
आप कैसे उम्मीद करते हैं कि मांएं अपने बच्चों को लेकर लंबी दूरी तय करें? तो उन्हें किस “मैदान” में विरोध करना चाहिए और उनसे “ट्रैफिक जाम से होने वाली असुविधा” को लेकर क्यों उम्मीद करनी चाहिए?
लेकिन सच तो ये है कि वो परवाह कर रही हैं. 30 साल की प्रदर्शनकारी हिना अशरफ ने द प्रिंट से कहा , “जैसे हम एम्बुलेंस के लिए रास्ता बना रहे हैं, वैसे ही हम स्कूल बसों के लिए भी रास्ता बना सकते हैं. हम चर्चा कर सकते हैं लेकिन जब तक CAA-NRC खत्म नहीं कर दिया जाता, तब तक हम नहीं हटेंगे."
मेरा आपसे सवाल है: क्या आप सही में किसी असुविधा की उम्मीद नहीं कर रहे हैं, जब लोग यहां अपनी भारतीय पहचान के लिए लड़ रहे हैं? और क्या आपकी "ट्रैफिक की असुविधा" इससे ज्यादा महत्व रखती है? हम लोगों से "यात्रियों के बारे में सोचने" की उम्मीद क्यों कर रहे हैं, जब हम ये नहीं सोच सकते कि सरकार ने एक पूरे समुदाय को नागरिक के रूप में उनके अधिकारों को खोने के कगार ला दिया है. सरकार ने उन्हें डरा रही है, मजाक बना रही है, अपमानित कर रही है.
क्या हमारी सुविधा ताश के पत्तों की तरह गिरने वाले संवैधानिक मूल्यों से ज्यादा है?
यहां मुद्दा क्या है? मुद्दा है बराबरी की लड़ाई, अल्पसंख्यकों का हक, गरीब का हक. हाशिए पर रखे गए लोगों का हक. शाहीन बाग और इसकी मजबूत महिलाएं. जिन्होंने, ठंड, गालियों, आलोचनाओं के बावजूद वहां से हटने से इनकार कर दिया, ये महिलाएं देश के सबसे काले समय में सबसे ताकतवर प्रतीक बनकर उभरीं, शाहीन बाग सभी धर्म के लोगों का खुले दिल से स्वागत करता है और यहां के प्रदर्शन में शामिल होने की एक वजह बनता है, चाहे वो पंजाब के किसान हों या जेएनयू के छात्र, यहां सभी का स्वागत है.
शाहीन बाग देश भर के लोगों के लिए एक रिमाइंडर बन गया है कि सत्ता के आगे झुकना नहीं है, मुश्किलों में भी संघर्ष जारी रखना है, लोग पूछते हैं, लेकिन इस तरह के विरोध प्रदर्शन से क्या होगा? क्यों लोगों को असुविधा होनी चाहिए? हम चाहते क्या हैं?
चलिए कुछ उदाहरण लेते हैं. इस तरह का प्रदर्शन हाल ही में मिस्र के तहरीर चौक पर देखा गया था, 25 जनवरी 2011 को मिस्र की ये क्रांति शुरू हुई थी, जहां लाखों प्रदर्शनकारी जमा हुए थे. जहां लोगों ने अन्य मुद्दों के बीच पुलिस की बर्बरता का भी विरोध किया था और राष्ट्रपति मुबारक के इस्तीफे की मांग की थी. फिर 11 फरवरी 2011 को ये हुआ. उपराष्ट्रपति उमर सुलेमान ने इसकी घोषणा की थी.
इसी तरह के प्रदर्शन की लहर यूक्रेन में देखी गई, जो 21 नवंबर 2013 की रात को शुरू हुई थी, जब राष्ट्रपति ने यूरोपीय संघ का हिस्सा बनने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था, 'इंडिपेंडेंस स्क्वायर’ पर लोगों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया था, वहां से प्रदर्शनकारियों ने हटने से इनकार कर दिया था, इन प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ने बेरहमी से हमला किया, फिर भी उन्होंने वहां से हटने से इनकार कर दिया. आखिरकार, राष्ट्रपति देश छोड़कर चले गए.
आप पूछेंगे कि इस तरह के विरोध प्रदर्शन क्यों अहम हैं? क्योंकि उनका असल मतलब होता है. क्योंकि ये उस आम आदमी के वजूद की बात करता है जो अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में ही व्यस्त रहता है. वो कहता है 'अब बहुत हो गया', हम जो चाहते हैं, वो चाहते हैं और जब तक हम इसे पा नहीं लेते, तब तक रुकेंगे नहीं. क्योंकि वो विद्रोह की उस आग को हवा देते हैं जो विरोध कर रहे सभी सदस्यों को जोड़ता है. अगर शाहीन बाग नाकाम होता है, तो लड़ाई भी खत्म हो जाएगी.
सचमुच, शाहीन बाग, CAA विरोधी प्रदर्शनों का दिल बन गया है, और कुछ लोग अगर शिकायत करते हैं कि उनके बच्चों को "जल्दी जागना" पड़ता है और क्योंकि वे "जाम में फंस जाते हैं" तो ये वजह काफी नहीं है, इस दिल को धड़कने से बंद करने के लिए...!
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)