टेलीकॉम सेक्टर का 15 साल पुराना का मुकदमा..जिसमें अगले दस साल में टेलीकॉम कंपनियां एडजस्टेड ग्रॉस रेवेन्यू देंगी , इस खबर को राहत के रूप में देखा गया है, लेकिन समझने की जरूरत है कि क्या ये राहत क्लोजर है या अभी क्लाइमेक्स बाकी है, इसी मुद्दे पर फाइनेंशियल एक्सप्रेस के एडिटर इन चीफ सुनील जैन से क्विंट के एडिटोरियल डायरेक्टर संजय पुगलिया ने खास बातचीत की.
सुनील जैन ने फैसले में समस्याओं को गिनाते हुए कहा कि इसमें 2-3 समस्याएं हैं. बिल्कुल भी राहत नहीं है, अगर कुदरत का करिश्मा हो जाए तो वो अलग बात है, लेकिन ये साफ दिख रहा है कि वोडाफोन आइडिया का जिंदा रहना मुश्किल हो गया है, क्योंकि उनके पास पैसे नहीं हैं. उन्होंने बोर्ड मीटिंग बुलाई है, बोर्ड मीटिंग में वो सोच रहे हैं कि किस तरीके से 20-25 हजार करोड़ रुपये कहीं से उठा पाए . मगर मुश्किल है ये कि कौन उसमें निवेश करेगा. उनको 20-22 हजार करोड़ रुपये सालाना सरकार को देना है.
पुराने स्पेक्ट्रम के पैसे, एजीआर के बकाया, उनके पास पैसे हैं नहीं, तो जो भी नया इंसान आएगा उसे सरकार को 20 हजार करोड़ रुपये देने पड़ेंगे. 1-1.5 लाख करोड़ की लायबिलिटी हो जाएगी. उन्होंने फैसले की 4 गलतियों को भी गिनाया.
1. कंपनियों को ब्याज देने के लिए कहना ठीक नहीं
पिछले साल जब सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला दिया कि ये एजीआर की परिभाषा है, तो ये पहला परिभाषा देने वाला फैसला था. सुप्रीम कोर्ट ने पहली गलती ये की कि पेनल्टी और ब्याज लेने की कोशिश की.
2. कैलकुलेशन की गलती
आपको या मुझे किसी टैक्स अधिकारी ने टैक्स की डिमांड दे दी, उसने कहा कि 2007 में आपकी ये आमदनी है, तो आपको ये टैक्स देना है, 10 फीसदी ब्याज पर ये पेनल्टी दीजिए, अगर पेनल्टी के कैलकुलेशन में गलती हो गई तो कैलकुलेशन को हम चैलेंज कर सकते हैं, तो टेलीकॉम कंपनियों ने भारत सरकार को कहा कि कैलकुलेशन गलत है. अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आप कैलकुलेशन को भी नहीं देख सकते.
3. नीतिगत फैसले में कोर्ट का आना
सुप्रीम कोर्ट का दस साल का फैसला नीतिगत रूप से गलत है. कोर्ट का हमेशा से रवैया रहा है कि पॉलिसी के फैसले में हम नहीं आएंगे. अगर कैबिनेट ने फैसला ले लिया की 20 साल का वक्त देंगे तो सुप्रीम कोर्ट को इसके बीच नहीं आना चाहिए.
4. स्पेक्ट्रम नीलामी के बाद लाइसेंस फी और यूसेज चार्ज लेना गलत
ये गलती भारत सरकार की है. 2010 में सरकार ने स्पेक्ट्रम निलामी शुरू की. पहले सरकार स्पेक्ट्रम लगभग फ्री देती थी और रेवेन्यू शेयर देने को कहती थी. कंपनी ईएमआई देते थे. 2010 में नीलामी के बाद रेवेन्यू शून्य हो जाना चाहिए था. 2010 में मनमोहन सरकार ने इस पर फैसला न लेकर गलती की, इसके बाद पीएम मोदी ने वो गलती की.
‘ग्राहक अब जाएंगे कहां?’
इंडस्ट्री ठप होने का बड़ा नुकसान भारत सरकार को ही होगा. सिर्फ दो कंपनियां रहने से टैरिफ बढ़ेगा, सर्विस की गुणवत्ता भी कम हो सकती है. भारत का ये मानना था कि अगर कीमतों को काबू में रखना है तो प्रतिस्पर्धा बढ़ाई जाएगी. बाजार में 5-10 खिलाड़ी हैं तो प्रतिस्पर्धा रहेगी. कीमतें नियंत्रण में रहेंगी. लेकिन इससे प्रतिस्पर्धा बंद हो गई. जो दो कंपनियां बचेंगी जियो और एयरटेल, उससे कंज्यूमर बोझ बढ़ सकता है. वैसे भी अगर सर्विस क्वालिटी खराब भी हो गई तो आप जाएंगे कहां?
वैसे भी अगर 52 बिलियन डॉलर पैसे डालने के बाद एक कंपनी बंद हो जाए या बंद होने के कगार पर आ जाए तो ये भारत के लिए सही नहीं होगा.
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