वीडियो एडिटर: पूर्णेन्दू प्रीतम
कैमरापर्सन: मुकुल भंडारी
किसी एक पार्टी के टिकट पर चुनाव जीतना, और लालच और दौलत के घोड़े पर सवार होकर दूसरी पार्टी के खेमे में शामिल हो जाना राजनीति में बड़ी आम सी बात रही है. दलबदलुओं की इसी तिकड़म को रोकने के लिए साल 1985 में बनाया गया था- दलबदल कानून. लेकिन भई.. कानून तो बनते ही टूटने के लिए हैं.. पिछले पच्चीस साल में चुनाव-दर-चुनाव हमारे माननीयों ने दलबदल कानून को कुछ इस अंदाज में ठेंगा दिखाया कि अब इस कानून को ही बदलने की जरूरत महसूस की जा रही है.
कथा जोर गरम है कि...
देश की सबसे बड़ी अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट ने किसी सांसद या विधायक की सदस्यता रद्द करने से जुड़े मामले में बेहद तल्ख टिप्पणियां की हैं. आप सोच रहे होंगे कि आखिर दलबदल के मसले में ऐसा क्या है जो कोर्ट इतना सख्त हो रहा है? तो साहब.. आप यूं समझिए कि
आपने किसी एक पार्टी के उम्मीदवार को वोट दिया और वो चुनाव जीतकर सांसद-विधायक बन गया. फर्ज कर लीजिए कि किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला और दौलत, लालच या किसी दबाव में आपका वो सांसद-विधायक उस पार्टी में शामिल हो गया जिसे आप वोट देना नहीं चाहते थे. तो जनाब.. आपके वोट के साथ तो धोखा हो गया ना?
ऐसा ही सदन के भीतर किसी मसले पर वोटिंग के दौरान भी हो सकता है. अपनी पार्टी के निर्देश को नजरअंदाज कर कोई विधायक-सासंद दूसरी पार्टी को वोट दे दे और विपक्षी को ही मदद कर दे.
सुप्रीम कोर्ट सख्त
ऐसे ही एक मामले पर सुनवाई करते हुए जस्टिस आरएफ नरीमन, जस्टिस अनिरुद्ध बोस और जस्टिस वी रामा सुब्रह्मणयम के बेंच ने कहा है कि
- अगर कोई सांसद या विधायक दलबदल विरोधी कानून (संविधान की 10वीं अनुसूची) का उल्लंघन करता है तो उसे एक दिन भी पद पर रहने का अधिकार नहीं है.
- लोकसभा या विधानसभा स्पीकर को तय वक्त में सदस्य की अयोग्यता पर फैसला करना चाहिए.
- स्पीकर को ऐसे मामलों में ज्यादा वक्त तक लटकाना नहीं चाहिए.
आप मामले की गंभीरता कोर्ट की इस टिप्पणी से समझिए कि
10वीं अनुसूची के प्रावधान हमारी डेमोक्रेसी के लिए बेहद अहम हैं और उन्हें वाकई असरदार बनाए जाने की जरूरत है.
सांसदों-विधायकों की अयोग्यता के मामले में बेंच ने स्पीकर की शक्तियों पर भी सख्त टिप्पणी की. दरअसल मौजूदा कानून के मुताबिक किसी भी सांसद या विधायक की सदस्यता रद्द करने या बहाल रखने का पूरा अधिकार सिर्फ स्पीकर के पास होता है. पीठ ने कहा
संसद को अब इस पर भी विचार करना चाहिए कि स्पीकर, जो खुद किसी पार्टी के सदस्य हैं, क्या उन्हें सांसद या विधायक की सदस्यता पर फैसला करना चाहिए?
तो अगर स्पीकर फैसला नहीं करेंगे तो कौन करेगा- इस पर भी कोर्ट ने सलाह दी है. सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक
- ऐसे मामलों की जांच के लिए स्वतंत्र प्रणाली बननी चाहिए.
- सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज या हाईकोर्ट के रिटायर्ड चीफ जस्टिस की अध्यक्षता में स्थायी ट्रिब्यूनल बने, जिससे ऐसे विवादों का जल्द और निष्पक्ष निपटारा हो सके.
कोर्ट को ये कहने की जरूरत क्यों पड़ी?
मौजूदा मसला मणिपुर से जुड़ा है. मार्च 2017 के मणिपुर चुनाव में टी श्यामकुमार सिंह कांग्रेस के टिकट पर जीते. लेकिन नतीजों के बाद बीजेपी से हाथ मिलाकर बीजेपी की सरकार बनवा दी और खुद मंत्री बन गए. कांग्रेस पार्टी ने उनकी सदस्यता रद्द करने की अपील की लेकिन स्पीकर कोई फैसला ही नहीं ले रहे. मामला हाई कोर्ट से होता हुआ सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और 21 जनवरी को सर्वोच्च आदालत ने मणिपुर के स्पीकर से चार हफ्तों में फैसला लेने को कहा है.
वैसे हाल के सालों में हमें दलबदल का कुचक्र मणिपुर के अलावा कर्नाटक, गोवा और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में देखने को मिल चुका है. जानकारों का मामला है कि दलबदल राजनीतिक भ्रष्टाचार की एक बड़ी वजह है और इसमें सुधार बेहद जरूरी हैं.
असल समस्या स्पीकर के लेवल पर है जो संवैधानिक पद पर होने के बावजूद कई मौकों पर पार्टी विशेष को लेकर अपना मोह छोड़ नहीं पाते और यही बात डेमोक्रेसी के लिए खतरनाक है. सरकारें स्पीकर के फैसले पर कोर्ट की दखलंदाजी नहीं चाहतीं लेकिन फिर भी स्पीकर के फैसले के न्यायिक समीक्षा का अधिकार अपने पास रखकर कोर्ट ने अपने स्तर पर बड़ा कदम उठाया है.
हां.. उसे कानून बनाने की गेंद संसद के पाले में डालनी पड़ी क्योंकि संविधान की 10वीं सूची में बदलाव कोर्ट के दायरे में नहीं आता. खैर.. सरकारें अपने फायदे के लिए कानून के तकनीकी दांवपेंच का फायदा उठाएंगी ही लेकिन उन्हें एक बात नहीं भूलनी चाहिए- कोई भी पार्टी हमेशा सत्ता में नहीं रहती. आज जो हथियार आप विपक्षियों के खिलाफ इस्तेमाल कर रहे हैं कल वो खुद आपके खिलाफ भी इस्तेमाल हो सकता है.
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