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#MeToo और फेमिनिज्म पर सुष्मिता सेन ने रखी बेबाक राय

“हर परेशानी को किसी तबके से जोड़कर देखने का नजरिया खत्म करने का वक्त आ गया है.”

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1994 में मिस यूनिवर्स का ताज पहनने वाली पहली भारतीय, एक्ट्रेस, माॅडल सुष्मिता सेन देश भर के लिए एक जानी-मानी व्यक्तित्व हैं. सेन आउटलुक स्पीक आउट 2018 की स्पेशल गेस्ट रहीं. ये इवेंट उन महिलाओं को लेकर था जिन्होंने अपने-अपने कार्यक्षेत्र में बेमिसाल काम किया और भीड़ से अलग पहचान बनाई.

क्विंट आउटलुक स्पीक आउट के सेकेंड एडिशन का डिजिटल पार्टनर था. इस इवेंट का थीम वीमेन एंपावरमेंट यानी महिला सशक्तिकरण था.

देखिए और पढ़िए सुष्मिता सेन से हुई हमारी खास बातचीत-

क्या बॅालीवुड में #Metoo कैंपेन कारगर हो रहा है?

मैं सुबह तनुश्री का इंटरव्यू पढ़ रही थी और वो सही है. उसने कहा है कि ये #Metoo कैंपेन शुरु होने को लेकर नहीं है. ये आएगा और जाएगा. ये उससे कहीं ज्यादा है. ये एक माइंडसेट है. उसे बदलने के लिए आप नई पीढ़ी की तरफ देख रहे हैं जो बड़ी हो रही है, शिक्षित हो रही है. जो अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों पर भरोसा करती है. इसलिए मुझे नहीं लगता कि ये कैंपेन से हो सकेगा. हम अभी इसके लिए तैयार नहीं हैं.

महिलाओं की सुरक्षा किसकी जिम्मेदारी?

मेरी सोच कहती है कि हर परेशानियों को किसी तबके से जोड़कर देखने का नजरिया खत्म करने का वक्त आ गया है. सम्मान के साथ जीना बेसिक मानवाधिकार है. और ये सबकी चिंता होनी चाहिए. किसी एक्टर के बारे में आप बात कर रहे हैं ये मानकर इसे सिर्फ फिल्म इंडस्ट्री से जोड़ना नहीं चाहिए. अगर कोई मीडिया से जुड़ा हुआ है और उसकी बात हो रही है तो ये सिर्फ मीडिया को लेकर नहीं है. महिलाएं हर सेक्टर में हैं आज. उनकी सुरक्षा और उनकी सहभागिता सबकी जिम्मेदारी है.

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क्या महिला सशक्तिकरण खुद की ताकत पहचानने की एक प्रक्रिया है?

एंपावरमेंट काफी बड़ा शब्द है लेकिन इसे आज कल काफी हल्के तरीके से इस्तेमाल किया जाता है. खासकर जब ये महिलाओं के बारे में हो. इवेंट, कैंपेन, एनजीओ इसे सामाजिक समस्या मानकर ऊपर उठाते है क्योंकि ये हाॅट टाॅपिक है. लेकिन वो महिलाएं जिन्हें सच में सशक्त होने की जरुरत है उन्हें इसे महसूस करने की जरुरत है, चाहे वो बाहरी हो या उनकी खुद की कंडीशनिंग को लेकर हो. ये काफी गहरी और बड़ी प्रक्रिया है. उनकी सशक्तिकरण का मतलब सिर्फ उन्हें बराबर मौका देना या सोशल-पाॅलिटिकल स्ट्रक्चर देना ही नहीं है. ये उन्हें जानकारी देना है कि उनके पास बराबर अधिकार है और उनको अपने विचार बराबरी से रखने की आजादी देना है. ये एक प्रक्रिया की तरह है. अच्छा होगा अगर लोग इस बारे में मिलकर सोचें कि इसे अंजाम कैसे दिया जाए.

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