(ये आर्टिकल सबसे पहले हिंदी दिवस के मौके पर छापा गया था. हमने वैलेंटाइन-डे को ध्यान में रखते हुए इसे फिर से पब्लिश किया है)
टीवी पत्रकार रवीश कुमार दिल से रोमांटिक हैं. हममें से कई लोग उनके लिए ये सोचते हैं कि कई साल से पाॅलिटिक्स कवर करने वाले ये सीनियर जर्नलिस्ट राजनीति या इकनाॅमी पर ही कुछ लिखेंगे-बोलेंगे. लेकिन रवीश सरप्राइज देने से भी कहां चूकते हैं! उन्होंने कई लघु प्रेम कथाओं का कलेक्शन- इश्क में शहर होना लिखकर सरप्राइज ही तो दिया. ये किताब बेस्टसेलर भी रही.
उनकी लिखी किताब लप्रेक ने मेट्रो सिटी में हिंदी साहित्य को मानो फिर से जिंदा कर दिया.
लघुकथा हिंदी साहित्य के लिए कोई नई विधा नहीं है. लेकिन लप्रेक इसलिए खास है, क्योंकि ये फेसबुक से निकली कहानियां थीं. अखबारों में छपने वाली लघुकथा और फेसबुक की वॉल पर लिखी लघुकथा में बुनियादी अंतर इन कहानियों के ट्रीटमेंट का है.
जरूरी नहीं कि फेसबुक पर लिखी गई इन कहानियों में कोई गंभीर समस्या या गहरा कटाक्ष हो. इनमें दिल्ली के एक युवा जोड़े की भाग-दौड़ भरी जिंदगी का एक मुलायम लम्हा हो सकता है या सीएटल में बस गए एक बेटे और भारत में रहती मां के बीच की दूरी, या फिर गर्लफ्रेंड के कहने पर पॉकेटमनी बचाकर लेवाइस की जींस खरीदने वाले लड़के की परेशानी भी.
साथ ही रवीश की किताब इश्क में शहर होना सोशल मीडिया के बेहतरीन इस्तेमाल का भी एक नायाब उदाहरण है. फेसबुक पर लिखी जा रही इन शॉर्टनोट और डायरी एंट्री नुमा कहानियों को पढ़कर ही राजकमल के सत्यानंद निरुपम ने इन्हें किताब की शक्ल देने के बारे में सोचा.
क्विंट हिंदी ने रवीश की किताब और दिल्ली जैसे शहर में प्रेम के स्वरूप को लेकर उनका इंटरव्यू किया. इंटरव्यू में उन्होंने पटना से दिल्ली तक अपनी यात्रा के बारे में, प्रेम के बारे में, प्रेमी जोड़े की प्राइवेसी के बारे में बात की.
पटना से दिल्ली का सफर
मगध एक्सप्रेस, बोगी नम्बर एस-वन. दिल्ली से पटना लौटते वक्त उसके हाथों में बर्नार्ड शॉ देखकर वहां से कट लिया. लगा कि इंग्लिश झाड़ेगी. दूसरी बोगियों में घूम-घूमकर प्रेमचंद पढ़नेवाली ढूंढने लगा. पटना से आते वक्त तो कई लड़कियों के हाथ में गृहशोभा तक दिखी थी. सोचते-सोचते बेचारा कर्नल रंजीत पढ़ने लगा. लफुआ लोगों का लैंग्वेज प्रॉब्लम अलग होता है!
दिल्ली जैसा शहर तो कोई है ही नहीं हिंदुस्तान में. पहली बार लगा कि इतने सारे लोग कब चांद से उतर आए अंग्रेजी बोलते हुए. हमने तो कभी देखा नहीं कभी सुना नहीं. क्या हमारे मुल्क की भाषा इतनी बदल गई है, क्या ये लोग हमसे इतना आगे निकल गए हैं?...खैर... शहर से तो प्यार हो गया पर शहर में प्यार करने की जगह नहीं मिली.रवीश कुमार
इश्क में शहर होना
दोनों की मुलाकात छतरपुर के मन्दिर में हुई. मगर अच्छा लगता था उन्हें जामा मस्जिद में बैठना. इतिहास से साझा होने के बहाने वर्तमान का यह एकान्त. ‘करीम’ से खाकर दोनों मस्जिद की मीनार पर जरूर चढ़ते. भीतर के संकरे रस्ते से होते हुए ऊंचाई से दिल्ली देखने का डर और हाथों को पकड़ लेने का भरोसा. स्पर्श की यही ऊर्जा दोनों को शहरी बना रही थी. चलते-चलते टकराने की जगह भी तो बहुत नहीं थी दिल्ली में.
हर नया इलाका एक प्रेमी के लिए पर्दा है. उस पर्दे की तलाश में सब जाते हैं अपने इलाके को छोड़कर. जब तक आप इश्क नहीं करते हैं, आप शहर नहीं देखते हैं. प्रेम के एक छोटे से लम्हे के लिए हम कितने किलोमीटर की यात्रा कर लेते हैं.रवीश कुमार
दिल्ली में इश्क करने के लिए जगह नहीं
नेहरू पार्क की झाड़ियों में सरसराहट से दोनों सहम गए. पत्तियों के झुरमुट से धड़कती आंखों से कोई उन्हें भकोस रहा था. दिल्ली में महफूज जगह की तलाश दो ही लोग करते हैं- जिन्हें प्रेम करना है और जिन्हें प्रेम करते हुए लोगों को देखना है. घबराहट में दोनों इतनी तेजी से उठे कि पास की झाड़ियों में भी हलचल मच गई. प्रेमियों को लगा कि पुलिस आ गई है. उसका कहा याद रहा- यह कैसा शहर है? हर वक्त शरीर का पीछा करता रहता है!
दिल्ली या हिंदुस्तान का कोई भी शहर प्रेमानुकूल नहीं है, जहां आप किसी से बैठकर बात कर सकें. प्राइवेसी नहीं है. लोग प्रेमी जोड़े को देखने पार्क पहुंच जाते हैं. ये शर्मनाक है.रवीश कुमार
खाप कहीं आस-पास
यह नीले कोट वाला किताब को छाती से लगाए क्यों खड़ा है? इश्क के लाजवाब क्षणों में ऐसे सवालों में उलझ जाना उसकी फितरत रही है. इसलिए वह चुप रहा. उसके बालों में उंगलियों को उलझाने लगा. बेचैन होती सांसें जातिविहीन समाज बनाने की अंबेडकर की बातों से गुजरने लगीं- देखना यही किताब हमें हमेशा के लिए मिला देगी!
प्रेम कहानियां कुंडली देखे बिना होती हैं. आप जाति-धर्म के बंधनों को न तोड़ें तो प्यार क्या किया!रवीश कुमार
वीडियो एडिटर:पुनीत भाटिया
कैमरा: अभय शर्मा, विवेक दास
प्रोड्यूसर: वत्सला सिंह
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