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टीएन शेषन: वो धाकड़ नौकरशाह जिसने लालू यादव के पसीने छुड़ा दिए

जब 1995 के चुनाव में लालू का विपक्ष, टीएन शेषन बन गए !

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देश के दसवें मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टीएन शेषन को एक वक्त में अव्यवस्थित रही भारतीय चुनाव व्यवस्था को पटरी पर लाने का श्रेय जाता है. इसके अलावा टीएन शेषन को उनके कड़े रुख के लिए भी जाना जाता है. उन्होंने अपने कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव से लेकर बिहार के मुख्यमंत्री रहे लालू प्रसाद यादव जैसे दिग्गज नेताओं को भी नहीं बख्शा.

15 दिसंबर को टीएन शेषन का जन्मदिन है. आइए एक नजर डालते हैं उनकी जिंदगी और बतौर नौकरशाह, करियर पर:

दिल्ली के अशोक रोड से गुजरिएगा कभी तो एक इमारत नजर आएगी- निर्वाचन सदन. यहीं से चलता है भारत का चुनाव आयोग यानी इलेक्शन कमीशन. 12 दिसंबर 1990 को इस इमारत में एक शख्स दाखिल हुआ. नाम था- टीएन शेषन. बतौर मुख्य चुनाव आयुक्त वो शेषन ही थे जिनके आने के बाद चुनाव आयोग का नाम और उसका काम, दोनों आम आदमी के दरवाजे तक पहुंचे. एक ऐसे दौर में जब नौकरशाही का मतलब, सरकारों की हां में हां मिलाना माना जाता रहा हो, शेषन ने अपनी ईमानदारी और डंडे का ऐसा इस्तेमाल किया कि सिस्टम को मनमुताबिक चलाने की सोच रखने वालों में खौफ भर गया. इससे पहले न तो किसी ने चुनाव आयोग का ऐसा रूप देखा था, न ही ऐसा दमदार नौकरशाह.

नेताओं में शेषन का खौफ

चीफ इलेक्शन कमिश्नर, टीएन शेषन की छवि कुछ ऐसी बनी कि कहा जाने लगा- भारत के नेता सिर्फ दो चीजों से डरते हैं. एक भगवान और दूसरे टीएन शेषन. शेषन की ये छवि बेवजह नहीं थी. 1991 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव थे. ये यूं भी सियासी तौर पर एक उबलता हुआ साल था. शेषन ने यूपी के सभी डीएम, पुलिस अफसरों और चुनाव की जिम्मेदारी संभालने वाले करीब 300 पर्यवेक्षकों को साफ कर दिया कि अगर चुनाव में कोई भी गलती होती है तो बख्शा नहीं जाएगा.

यूपी में शेषन ने करीब 50 हजार अपराधियों को विकल्प दिया कि या तो वो अग्रिम जमानत लेलें या खुद को पुलिस को सौंप दें.

उत्तर प्रदेश का एक और किस्सा मशहूर है. कल्पनाथ राय उस वक्त खाद्य मंत्री थे. चुनाव प्रचार बंद हो चुका था. लेकिन डीएम ने उन्हें भतीजे के लिए प्रचार करते पकड़ लिया. उन्हें साफ शब्दों में चेतावनी दी गई कि अगर भाषण नहीं रोका गया तो इलेक्शन कमीशन को ये चुनाव रद्द करने में जरा भी हिचकिचाहट नहीं होगी. ये हिम्मत शेषन की दी हुई थी जिसकी धमक ऊपर से नीचे तक चुनावी मशीनरी में दिखाई देने लगी थी. हिमाचल चुनाव में भी शेषन की कसी हुई मुठ्ठियों ने कइयों की मुश्कें कस दीं.

जब बिहार में लालू का विपक्ष बने टीएन शेषन!

बतौर इलेक्शन कमिश्नर शेषन का सबसे दिलचस्प और मुश्किल चुनाव आया साल 1995 में. जगह थी--बिहार. ये मान कर चला जाता था कि बिहार में साफ-सुथरे चुनाव एक सपना हैं. बूथ कैप्चरिंग आम थी और दुनालियों से गोली निकलते सेकेंड नहीं लगता था. कोई और होता तो शायद हथियार डाल देता. लेकिन नहीं, टीएन शेषन नहीं. लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री थे....और चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री ही बने रहना चाहते थे. शेषन ने पूरे राज्य को अर्धसैनिक बलों से पाट दिया. शेषन को कोई कोताही बर्दाश्त नहीं थी. वो जरा भी शक होने पर चुनाव रद्द कर देते. चार बार चुनाव की तारीख आगे बढ़ चुकी थी. एक तरह से सीएम लालू प्रसाद यादव का मुकाबला विपक्ष से न होकर सीधे शेषन से हो गया. संकर्षण ठाकुर अपनी किताब- द ब्रदर्स बिहारी में लिखते हैं- लालू अपने जनता दरबार में शेषन को जमकर लानतें भेजते. वो अपने ही अंदाज में कहते- शेषनवा को भैंसिया पे चढ़ाकर के गंगाजी में हेला देंगे.

शेषन के सिस्टम चलाने के अंदाज से लालू इस तरह नाराज हुए कि वो सीधे राज्य चुनाव आयुक्त आरजेएम पिल्लई के पास पहुंचे. उन्होंने, पिल्लई से कहा- हम तुम्हरा चीफ मिनिस्टर है, और तुम हमरा अफसर तो ई शेषनवा कहां से बीच में टपकता रहता है?

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लेकिन शेषन डिगे नहीं. वो डरे नहीं. वो सिर्फ अपना फर्ज निभा रहे थे. एक ऐसे राज्य में जहां 1984 लोकसभा चुनाव में 24 लोग मारे गए, 1985 विधानसभा चुनाव में 63, 1989 के आम चुनाव में 40 और जिस साल लालू चुनाव जीतकर सीएम बने 1990 के साल में सबसे ज्यादा यानी 87 लोग.

शेषन ने पैरामिलिट्री फोर्स की 650 टुकड़ियां तैनात कर दीं. चार चरणों में चुनाव का ऐला हुआ और चार बार ही तारीखें बदली गईं. राज्य में आचार संहिता तो लागू थी ही, साथ ही शेषन संहिता भी लागू हो गई! ये देश के इतिहास में सबसे लंबा चलने वाला चुनाव था.

चुनाव का ऐलान 8 दिसंबर 1994 को हुआ और चुनाव खत्म हुआ 28 मार्च 1995 को. लेकिन इस लंबे चुनाव ने एक तरह से लालू की मदद कर दी. लालू को वक्त मिल गया, सूबे के हर हिस्से तक पहुंचने और चुनाव प्रचार करने का. बिहार में शेषन ने अपने दम पर वो कर दिखाया जिसके बारे में कोई सोच तक नहीं सकता था. पहले साफ-सुथरे चुनाव में लालू ने जीत दर्ज की और लालू के साथ ही शेषन के नेतृत्व में चुनाव आयोग के इरादों की भी जीत हुई.

शेषन ने किए कई चुनाव सुधार

शेषन ने तमाम राजनीतिक विरोध को झेलते हुए भी चुनाव में पहचान पत्र अनिवार्य किया. जब नेताओं ने इसे खर्चीली प्रक्रिया बताया तो उनका जवाब था कि ठीक है...अगर ऐसा नहीं होता तो 1 जनवरी 1995 के बाद देश में कोई चुनाव ही नहीं कराया जाएगा.

शेषन ने उम्मीदवारों के लिए चुनावी खर्चे की सीमा भी तय की.

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11 दिसंबर 1996 तक शेषन ने चुनाव आयोग की बागडोर संभाली और 6 साल तक ये संस्था एक ऐसे शेर बनी रही जो सिर्फ दहाड़ता नहीं था बल्कि वक्त आने पर शिकार भी करता था. उन्हें रैमन मैग्सेसे पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया. उन्होंने लोकसभा का चुनाव भी लड़ा और राष्ट्रपति के लिए भी खड़े हुए लेकिन दोनों जगह हार का सामना करना पड़ा.

दिल का दौरा पड़ने की वजह से 10 नवंबर 2019 को टीएन शेषन का निधन हो गया. वह 86 साल के थे.

शेषन के पूरे किरदार को समझना हो तो उनके कलेक्टर की एक बात से समझा जा सकता है जो सर्विस के पहले साल में ही कही गई थी- “शेषन, तुमने अपने लिए नामुमकिन से स्टैंडर्ड बना रखे हैं.

लेकिन, टीएन शेषन ने वो सारे नामुमकिन स्टैंडर्ड...मुमकिन बना दिए.

कैमरा- शिव कुमार मौर्या

वीडियो एडिटर- विवेक

प्रोड्यूसर- प्रबुद्ध जैन

(क्विंट हिंदी पर ये स्‍टोरी पहली बार 12 जनवरी 2018 को छापी गई थी)

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