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‘नहीं...शायद हां’... विपक्ष को ऐसी राजनीति से मिलेगा केवल नुकसान

10 फीसदी आरक्षण पर विपक्ष ने बहस के दौरान इसे खारिज किया,लेकिन बाद में इसे मंजूरी दे दी.इस राजनीति के क्या मायने हैं

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वीडियो एडिटर: विवेक गुप्ता

वीडियो प्रोड्यूसर: अभय कुमार सिंह, सोनल गुप्ता

कैमरापर्सन: नितिन चोपड़ा

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‘नहीं,ये नहीं हो सकता, अभी नहीं...लेकिन सुनिए तो,रुकिए जरा, हां, शायद...’

किसी सर्द रात में आप अपनी डेट के घर के बाहर खड़े हों और वो आपसे पूछें कि‘क्या आप एक कप कॉफी के लिए अंदर आएंगे’,तब तो ऐसा जवाब शायद जादू कर सकता है, लेकिन राजनीति में यह खतरनाक हो सकता है. इसलिए‘सवर्णों को 10 पर्सेंट आरक्षण पर’ राज्यसभा में बहस के दौरान जब एक के बाद एक धुरंधर नेताओं ने शुरू में इसे खारिज किया और बाद में समर्थन तो मैं दंग रह गया. विपक्ष के दिग्गज नेताओं ने इस बहस में क्या कहा,जरा इस पर नजर डालते हैः

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मोदी सरकार की‘निराशावादी,अवसरवादी राजनीति’ की इतनी तीखी आलोचना के बाद आपको लगा होगा कि विपक्ष के धुरंधर नेता विधेयक पर वोटिंग के दौरान ‘नहीं,ना, कभी नहीं’ का बटन दबाएंगे,क्यों? पर आप गलत हैं. इनमें से सबने (आरजेडी,डीएमके, आईयूएमएल को छोड़कर) दुम दबा ली और विधेयक पास हो गया. यहां तक कि राज्यसभा में विपक्षी दलों ने यही किया, जबकि वहां सरकार के पास दो तिहाई बहुमत नहीं है. अगर ये चाहते तो वे विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति के पास भेजने के डीएमके के प्रस्ताव का समर्थन कर सकते थे. ऐसा नहीं हुआ और पूरा देश हैरान होकर यह तमाशा देखता रहा. इसके साथ ही सिर्फ दो दिन में बराबरी का अधिकार देने वाला देश का लोकतांत्रिक ढांचा बदल दिया गया.

संसद में सर्वसम्मति,पर जनता इस पर बंटी हुई है

संसद में आरक्षण विधेयक पर भले ही सर्वसम्मति दिखी,लेकिन जमीनी हालात इससे उलट हैं. इस तरह से देखें तो संसद ने अपनी जिम्मेदारी ठीक तरह से नहीं निभाई. सांसदों को जनता की भावनाओं का ख्याल रखना चाहिए था.

  • कई एससी,एसटी, ओबीसी समुदायों में जिन्हें आरक्षण मिल रहा है, उनमें से कइयों को लगता है कि यह विधेयक एक तरह का टेस्ट है. असल मकसद आगे चलकर देश में जाति आधारित आरक्षण को खत्म करके आर्थिक आरक्षण लागू करना है. आरएसएस के दबदबे वाली सरकार ने यह काम किया है, इसलिए यह आशंका और बढ़ गई है. आरएसएस ने जातीय पहचान को खत्म करने की अपनी ‘इच्छा’ कभी छिपाई नहीं है. देश की मौजूदा आरक्षण व्यवस्था में यह संभव नहीं है. मौजूदा व्यवस्था जातीय पहचान को उभारती है. इसलिए यह आरएसएस के लॉन्ग टर्म प्लान की तरफ पहला कदम हो सकता है. देश का संविधान बनाने वाले (मेरा मतलब डॉ भीमराव आंबेडकर से है, जिनको ठीक से समझा नहीं गया) चाहते थे कि जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था अस्थायी हो. आगे इसकी दुहाई देकर व्यवस्था में बड़ा बदलाव किया जा सकता है.
  • नए विधेयक में जिन लोगों को आरक्षण देने की बात कही जा रही है, वे भी बेचैन हैं. इनमें से कइयों को लगता है कि 2,100 रुपये रोजाना कमाई को पैमाना बनाने से देश के करीब 95 पर्सेंट लोग आरक्षण के हकदार हो जाएंगे. ऐसे में सामान्य वर्ग के समृद्ध लोगों को इसका फायदा होगा और गरीबों के हाथ खाली रह जाएंगे. वे आरक्षण के लिए कम आमदनी, शायद 2.50 लाख सालाना की सीमा के लिए आंदोलन करने को तैयार हैं. उन्हें डर है कि इस विधेयक का फायदा समृद्ध वर्ग को मिलेगा.
  • सैलरीड क्लास को लग रहा है कि एक बार फिर पहला चाबुक उस पर चलाया जा रहा है. वे सैलरी स्टेटमेंट में फर्जीवाड़ा कर नहीं सकते, जबकि काली कमाई करने वाले झूठे सर्टिफिकेट दिखाकर आरक्षण का फायदा ले जाएंगे.
  • आखिर में,‘टॉप 5 पर्सेंट’ का गुस्सा भी बढ़ रहा है, जिसे किसी तरह का आरक्षण हासिल नहीं है. अगर आप इसमें से सुपररिच को हटा दें, जिन्हें आरक्षण से कोई फर्क नहीं पड़ता तो करीब 5 करोड़ मिडल और अपर मिडल क्लास के लोग हैं, जो इस चाबुक की चोट महसूस कर रहे हैं. वे पूछ रहे हैं कि जिस देश में मेरिट की कद्र ही न हो, वहां रहने का क्या मतलब है. मायूस होकर वो देश छोड़ने की सोच रहे हैं.
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दो दिन के संवैधानिक झटके पर कई लोग- आरक्षण से फायदा लेने वाले, आरएसएस से नाता नहीं रखने वाले लोग, सामान्य वर्ग के गरीब, सैलरीड क्लास और सवर्ण आरक्षण से बाहर रखे गए लोग- अपना विरोध दर्ज कराना चाहते हैं. देश की विपक्षी पार्टियां इसे भुना सकती थीं, बशर्ते उन्होंने हां-ना के बजाय बिल के खिलाफ वोट दिया होता. अब उनके लिए इन लोगों का दिल जीतना मुश्किल होगा.

साफ हां या ना कहने का फायदा

सवर्ण आरक्षण पर ना-हां की वजह से विपक्षी नेता न इधर के रह गए हैं, न उधर के. इस विधेयक का सारा श्रेय उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी को दे दिया है. मोदी ‘हिचक के साथ’ उनके बिल के समर्थन करने को भुनाएंगे. वह यह भी कह सकते हैं कि कैसे उन्होंने इस मुद्दे पर विपक्ष के सामने कोई रास्ता नहीं छोड़ा या झांसा दे दिया. मैं मानता हूं कि इस मामले में चित और पट दोनों उनके हाथ लगे हैं.

सच कहूं तो विपक्षी दलों की हरकत से मैं हैरान हूं. वे खुलकर विधेयक का समर्थन कर सकते थे. इससे इतना तो होता कि पूरा श्रेय मोदी नहीं ले पाते या फिर विपक्षी नेता संसद में विधेयक के खिलाफ वोट करते. फिर कहते कि ‘हम इसके समर्थन में हैं, लेकिन चाहते हैं कि इसकी खामियों का पता लगाने के लिए विधेयक को दो हफ्तों के लिए संयुक्त संसदीय समिति के पास भेजा जाए. इसके बाद जब बिल की गलतियों को ठीक कर लिया जाएगा तो हम इसे पास करने के लिए विशेष सत्र बुलाने की मांग करेंगे.’
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इससे वे मोदी की चाल को रोक सकते थे. इस बीच उन्हें विधेयक से नाराज लोगों को साथ लाने का मौका मिल जाता. विपक्ष ने जिस तरह से तिहरे तलाक या सिटिजनशिप बिल को लेकर किया, वही काम वह आरक्षण विधेयक पर भी कर सकता था. तिहरे तलाक और सिटिजनशिप बिल पर विपक्ष अडिग रहा, उसने सत्ता पक्ष का हमला झेला और धीरे-धीरे उसने सरकार से नैरेटिव छीन लिया. इन मुद्दों पर उसके साथ वे लोग तो हैं ही,जिन्हें प्रताड़ित किए जाने और नागरिकता छिनने का डर है.

मुझे समझ नहीं आ रहा है कि आरक्षण विधेयक पर उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया,जबकि हालिया चुनावी नतीजों का सबक उनके सामने था.

जनता जोखिम उठाने वाले नेताओं को पसंद करती है, वह उनके साथ खड़ी होती है. आज देश एक बार फिर से बदलाव चाहता है. वह अपने नेताओं से यह नहीं सुनना चाहता:

‘हम सरकार का समर्थन नहीं करना चाहते, लेकिन क्या करें, मजबूर हैं.’ बॉलीवुड की भाषा में कहें तो यह ऐसा ही हुआ कि ‘मैं पीता नहीं हूं, मुझे पिलाई गई है.’

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