दलितों के प्रोटेस्ट पर काफी चर्चा हो चुकी है. इतना बड़ा स्केल, बिना किसी खास किस्म की लीडरशिप वाला, सब कुछ शायद स्पोनटेनियस.. शायद इसीलिए क्योंकि खबरों की दुनिया से तैयारी की बातें गायब रहीं.
इस पर बहुत बातें हो चुकी हैं. इसके साथ-साथ एक ट्रेंड जो काफी विजिबल था वो ये कि इस प्रोटेस्ट को चीयर कौन कर रहे थे... पार्टियों को छोड़ दीजिए.. विपक्ष का तो काम ही है विरोधी सुर में सुर मिलाना.
नेताओं के बयान को इग्नोर कीजिए... इस पूरे प्रोटेस्ट में चीयरलीडर्स रहे ऐसे ग्रुप जिनको लगता है कि उन्होंने बहुत कुछ खोया है, अपनी आर्थिक हैसियत में लगातार कमी देखी है, अपनी आवाज को लगातार दबते हुए देखा है...सोशल ग्रुप के टर्म में मोटा-मोटी ये कह सकते हैं कि इस प्रोटेस्ट के चीयरलीडर्स रहे ओबीसी और माइनॉरिटी ग्रुप्स.
क्या थ्योरिटिकली यह विरोधाभास नहीं है?
अपने देश में कास्ट पॉलिटिक्स की छोटी हिस्ट्री देखिए, यह 70 के दशक में जोर पकड़ने लगी थी...ग्रीन रिवोल्यूशन पता ही है आपको.. उसके बाद से एक ग्रुप बना, जिसने किसानी से अपनी हैसियत काफी बढ़ाई... इसमें ज्यादा मिडिल कास्ट वाले थे- यादव, कुर्मी, जाट, गुर्जर, कम्मा, रेड्डी, वोक्कालिगा, इनके पास जमीन की मिल्कियत तो थी ही, साथ ही संख्या बल के लिहाज से भी ये मजबूत थे. आर्थिक हैसियत बढ़ी तो राजनीति में भी दखल भी बढ़ा. 80 के दशक के बाद इंडियन पॉलिटिक्स में ओबीसी ग्रुप का दबदबा काफी तेजी से बढ़ा. मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू होने के बाद इसमें और तेजी आई.
इस पूरे प्रोसेस में दलितों की हालत में बहुत सुधार नहीं आया. उनके पास संवैधानिक सुरक्षा के अलावा बहुत कुछ नहीं था.. जमीन की मिल्कियत नहीं के बराबर थी. ऐसे में बहुत सारे इलाकों में दलितों के साथ मदभेद में बहुत सारे ओबीसी ग्रुप्स भी रहे. माना जाने लगा कि गांवों में जो मतभेद होता है वो प्रोक्सिमेट जातियों के बीच होता है... याद कीजिए उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और मायावती के बीच का घमासान.
तो फिर अचानक अब क्या बदल गया है... दलित प्रोटेस्ट को ओबीसी ग्रुप्स क्यों चीयर कर रहे हैं. मायावती और अखिलेश क्यों करीब आ रहे हैं?
एक लाइन में जवाब है mass pauperisation .. किसानों की हालत लगातार खराब हो रही.. बहुत वजहें हैं.. सही दाम नहीं मिल रहा है, और लैंड होल्डिंग का साइज काफी कम हो गया है, जिसकी वजह से किसानी की बदौलत परिवार चलाना असंभव है.
कुछ डेटा देखिए...गांवों में रहने वाले करीब 57 परसेंट लोगों के पास कोई जमीन नहीं है. गांवों मे रहने वाले सिर्फ 10 परसेंट लोगों के पास सैलेरिड जॉब है, और 74 परसेंट परिवारों की औसत मंथली इनकम 5,000 रुपए से कम है. ये सारे आंकड़े सोशियो इकॉनोमिक कास्ट सेंशस से लिए गए हैं.
इसका साफ मतलब है कि बहुत बड़े तबके कि आर्थिक हैसियत एक जैसी हो गई है. ऐसे में काहे का कास्ट conflict और काहे की हेकड़ी...इसीलिए जब किसानों का आंदोलन होता है तो जातियों के बंधन टूटते हैं. दलितों के चीयरलीडर्स ओबीसी हो रहे हैं.
पॉलिटिक्स और चुनाव पर इसका बहुत बड़ा असर होने वाला है
सबसे बड़ा— चुनाव आर्थिक मुद्दों पर लड़े जाएंगे. 2014 के चुनाव को याद कीजिए, लोगों ने जमकर बीजेपी को वोट किया. इस उम्मीद में कि उनकी जिंदगी बदलने वाली है. ऐसे में 2019 चुनाव के सारे दावेदारों के सामने एक चुनौती है कि वो लोगों को आर्थिक तरक्की का भरोसा कैसे दिलाएंगे?
दूसरा मैसेज— अखिलेश और मायावती जैसे combination नेचुरल भले ही ना दिखे, लेकिन जमीन पर उनके कैडर्स के बीच दूरियां कम हो रही हैं.
और तीसरा बड़ा मैसेज— सारी पार्टियों के लिए एक वॉर्निंग है कि please do not take the support of social groups that once supported you for granted.
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