“मैं हॉकी इसलिए खेलती हूं क्योंकि मुझे बड़े होकर ऑफिसर बनना है. मुझे आर्मी में जाना है. ताकि मेरे पापा का सपना पूरा हो. मुझे अच्छी नौकरी मिले तो फिर मेरे पापा को मजदूरी नहीं करनी पड़ेगी.”
ये बातें झारखंड के राजधानी से करीब 15 किलोमीटर दूर हुलहुणडू की रहने वाली होलिका तिर्की कहती हैं. हाथों में हॉकी, माथे पर पसीना और धूल के बीच हॉकी की प्रैक्टिस करती होलिका छठी क्लास में पढ़ती है. होलिका के पिता मजदूरी करके रोजाना 350 रुपये कमाते हैं.
होलिका की तरह हॉकी के मैदान पर करीब-करीब सभी लड़कियां गरीब परिवार से हैं. किसी के पिता मजदूरी करते हैं तो किसी की मां खेत में काम.
स्कॉलरशिप में देरी
इन लड़कियों को हॉकी सिखा रही कोच दुलारी बताती हैं कि झारखंड सरकार की तरफ से लड़के-लड़कियों के लिए बोर्डिंग सेंटर चलता है जिसमें करीब 25 लड़कियां ट्रेनिंग लेती हैं.
हॉकी स्टिक, किट, गेंद जो भी मिल रहा है वो सरकार पिछले 5-6 सालों से दे रही है. इसका फायदा ग्राउंड में तो होता है, लेकिन इसके अलावा हर महीने 500 रुपये स्कॉलरशिप मिलनी चाहिए, वो 4 महीने, 6 महीने या एक साल में मिलता है. एक तो ये पैसा बहुत कम है ऊपर से इतनी देरी से मिलेगा तो कैसे इन बच्चों को फायदा होगा.दुलारी, कोच
हॉकी के सहारे नौकरी की उम्मीद
हॉकी प्रैक्टिस के बाद अपनी बेटी को लेने आए राजेश तिर्की हॉकी खेलने के पीछे का असल मकसद बताते हैं. वो कहते हैं, “हॉकी के पीछे का असल मकसद है कि आगे चलकर अच्छा खेलेगी तो खेल में नौकरी मिल सकती है. खेल के जरिये स्पोर्ट्स कोटा से नौकरी मिलती है. नौकरी मिल गई तो अपने पांव पर खड़ी हो जाएगी. साथ ही पुलिस की अगर नौकरी निकालती है, जिसके लिए दौड़ आना चाहिए, तो उसे दौड़ में दिक्कत नहीं होगी.”
डाइट से लेकर स्कॉलरशिप की सच्चाई?
जब हमने इन बच्चियों के कोच से इनको मिल रही सुविधाओं के बारे में पूछा तो उन्होंने इस बात को माना कि सरकार हॉकी किट तो देती है, साथ ही स्कॉलरशिप भी मिलता है, लेकिन ये बहुत कम है और समय पर नहीं मिलता है. कोच जेम्स कहते हैं,
“ये बच्चे घर से सुबह स्कूल आते हैं. उसके बाद उन्हें स्कूल में खाना मिलता है, जिसके बाद वो लोग ग्राउंड पर आते हैं. इन बच्चों को यहां या घर पर खाना या कोई स्पेशल डाइट नहीं मिलता है. घर में रूखा-सूखा खाकर प्रैक्टिस करने आते हैं, ऐसे में तो नहीं हो पाएगा. जैसे हरियाणा, पंजाब और बाकी राज्यों में सुविधाएं हैं, वैसे यहां पर नहीं मिलता है. सरकार की तरफ से उन्हें डाइट मिलनी चाहिए.
एक तरफ गरीबी दूसरी तरफ समाज की बंदिशों को तोड़तीं लड़कियां
इन बच्चियों को ट्रेन करने वाली कोच दुलारी हॉकी की नेशनल खिलाड़ी रही हैं. वो बताती हैं कि किस तरह उन्हें इन बच्चियों को ट्रेनिंग देने के लिए परेशानी उठानी पड़ी है. दुलारी ने कहा, “ये सेंटर 2009 से शुरू हुआ. बहुत दिक्कत हुई, बहुत संघर्ष करना पड़ा. अपने समाज में प्रथा चलती आई है कि लड़कियां बाहर नहीं आती हैं, पुरानी सोच के लोग हैं. नहीं समझ पाते हैं कि खेल से क्या होगा. अभी यहां ग्राउंड तक लोग आते हैं और कहते हैं कि खेल में क्या रखा है.”
भूख, गरीबी, संसधानों की कमी जैसी परेशानियों के बाद भी इन बच्चियों में अपने परिवार की हालत को सुधारने के साथ-साथ देश का नाम रोशन करने की चाहत है. और इस बार भी चुनाव इन बच्चियों और परिवारों के लिए उम्मीद लेकर आया है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)