वीडियो एडिटर: पुनीत भाटिया
प्रोड्यूसर: नीरज गुप्ता/ त्रिदीप के मंडल
(यह स्टोरी पहली बार 3 मई 2019 को छपी थी, प्रेस फ्रीडम डे के मौके पर इसे दोबारा प्रकाशित किया जा रहा है.)
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने वाला मीडिया असल में कितना आजाद है? ‘प्रेस फ्रीडम डे’ से पहले इस सवाल का जवाब जानने के लिए क्विंट के दो सीनियर रिपोर्टर पहुंचे दो अलग-अलग अखबारों के दफ्तर. कश्मीर का राइजिंग कश्मीर और शिलॉन्ग का द शिलॉन्ग टाइम्स. ये दोनों अखबार मीडिया पर मंडराते खतरों और दबाव की मिसाल हैं.
एडिटर को तलाशता उसका अखबार
14 जून, 2018 की शाम राइजिंग कश्मीर के एडिटर इन चीफ शुजात बुखारी जैसे ही ऑफिस से निकले, तीन अज्ञात बंदूकधारियों ने उन्हें गोली मार दी. बुखारी और उनके दो बॉडीगार्ड की मौके पर ही मौत हो गई. कोई नहीं जानता बुखारी की हत्या किसने की. उस हमले ने राइजिंग कश्मीर के पत्रकारों पर क्या असर डाला ये जानने हम पहुंचे श्रीनगर में अखबार के दफ्तर.
शुजात के बाद राइजिंग कश्मीर देख रहे फैसल यासीन कहते हैं
शुजात साहब के बाद न्यूज पेपर वैसे ही चल रहा है. लेकिन जो उन्होंने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काम किया था. उनके जो कॉन्टेक्ट्स थे, उनकी कमी खलती है. उनके बिना हमारे ऑर्गनाइजेशन में कहीं न कहीं एक खालीपन है.फैसल यासीन, एसोसिएट एडिटर, राइजिंग कश्मीर
अखबार के रिपोर्टर मनसूर पीर के मुताबिक- ‘शुजात सर संपादक ही नहीं थे. वो एक परिवार के मुखिया की तरह थे. वे रिपोर्टर्स के संपादक थे.’
ऑर्डर.. ऑर्डर.. कटघरे में एडिटर
75 साल पुराना अंग्रेजी दैनिक द शिलॉन्ग टाइम्स देश के सबसे पुराने अखबारों में से एक है. लेकिन कोर्ट के एक आदेश ने उसकी आजादी पर खतरा खड़ा कर दिया. 9 मार्च, 2019 को मेघालय हाईकोर्ट ने द शिलॉन्ग टाइम्स के संपादक और प्रकाशक पर दो-दो लाख रुपये का जुर्माना लगाया.
अखबार में छपी एक रिपोर्ट में जस्टिस एसआर सेन के एक फैसले पर उंगली उठाई गई थी. आदेश में कोर्ट ने साफ कहा कि जुर्माना अदा नहीं करने पर न्यूज पेपर बंद कर दिया जाएगा. अखबार की एडिटर पेट्रीसिया मुकीम कहती हैं-
हमने सरकार को आदेश देने वाले जजों के फैसले के बारे में लिखा था जिसमें उन्हें रिटायरमेंट के बाद मुआवजा पैकेज देने की बात थी. हमने सिर्फ ऑर्डर छापा था. सिर्फ कैप्शन अपना लगाया था. फैसले के पहले हमें 8 बार कोर्ट में हाजिर होने के लिए बुलाया गया. हर बार हमें अपमानित किया गया. मुझ से पूछा गया कि आपकी योग्यता क्या है. जब मैंने बताया कि बीए ऑनर्स, बीएड तो उन्होंने कहा कि आप एडिटर बनने के लायक नहीं हैं.पेट्रीसिया मुकीम, एडिटर, द शिलॉन्ग टाइम्स
18 अप्रैल, 2018 को पेट्रीसिया मुकीम के घर पर पेट्रोल बम फेंका गया था. हमलावरों की आज तक गिरफ्तारी नहीं हो पाई.
कश्मीर में रिपोर्टिंग बेहद मुश्किल
आतंकियों और सेना के बीच हर दिन वाले एनकाउंटर और पत्थरबाजों के हमलों के बीच कश्मीर में रिपोर्टिंग बेहद मुश्किल है.
गोलियां चलने के दौरान जब हम देखने जाते हैं कि मिलिटेंट और फोर्स के बीच में क्या चल रहा है तो सुरक्षा बल घटनास्थल पर जाने की इजाजत नहीं देते. वो नहीं चाहते कि आप देखें कि क्या हो रहा है. इसी बीच सुरक्षा बलों और लोगों के बीच पत्थरबाजी हो जाती है. ये एक और चुनौती है. चुनावी कवरेज के दौरान हम पर कई बार हमले हुए.जावेद अहमद कहते हैं , रिपोर्टर, राइजिंग कश्मीर
अखबार के एक और रिपोर्टर इरफान कहते हैं:
यहां एक नई ब्रीड बरपा हुई है जिसका नाम ‘अनआइडेंटिफाइड गनमैन’ है. अभी तक ना तो सरकार हत्याओं की जिम्मेदारी ले रही है, ना मिलिटेंट कोई जवाब दे रहे हैं. अगर आप उसपर बात करेंगे तो आपकी जान खतरे में आ सकती है.इरफान, रिपोर्टर, राइजिंग कश्मीर
‘हम सवाल पूछना बंद नहीं करेंगे’
लेकिन खास बात है कि तमाम मुश्किलों के बावजूद राइजिंग कश्मीर शुजात बुखारी की विरासत को आगे बढ़ाना चाहता है. उसके पत्रकारों का कहना है कि तमाम खतरों के बीच भी अखबार को उसी ठसक से चलाना ही शुजात बुखारी को असली श्रद्धांजलि होगी.
अगर हम डर जाते तो ‘राइजिंग कश्मीर’ एक साल बाद भी वैसे ही काम नहीं कर रहा होता जैसे शुजात साहब की हत्या से पहले कर रहा था. हम न डरे थे, ना डरेंगे. सिस्टम, सिस्टम की तरह काम करेगा. हम मीडिया की तरह काम करेंगे. सवाल पूछते रहेंगे. वो कैसे इसे हैंडल करेंगे, वो जानें लेकिन हम सवाल पूछना बंद नहीं करेंगे.फैसल यासीन, एसोसिएट एडिटर, राइजिंग कश्मीर
शिलॉन्ग टाइम्स के एग्जीक्यूटिव एडिटर दिपांकर राय कहते हैं:
हमें जो लिखना है हम लिखेंगे. अगर किसी को उससे कोई फर्क पड़ता है तो पड़ता रहे. जब तक हम नैतिक रूप से सही हैं हमें किसी बाहरी खतरे के सामने झुकने की कोई जरूरत नहीं है.दिपांकर राय, एग्जीक्यूटिव एडिटर, द शिलॉन्ग टाइम्स
2019 के प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में दर्ज 180 देशों में से भारत 140वें नंबर पर है. पत्रकारों के लिए यहां माहौल अफगानिस्तान और सूडान जैसे देशों से भी ज्यादा खराब है. लेकिन तमाम खतरों के बीच काम कर रहे पत्रकारों का जज्बा देखकर अकबर इलाहाबादी का ये शेर याद आता है-
न कमान निकालो, न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालोअकबर इलाहाबादी
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