बिहार पर पूरे देश की नजर है. पूर्व बीजेपी अध्यक्ष और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने 7 जून को वर्चुअल रैली कर बिहार में चुनाव प्रचार की शुरुआत की. चुनाव के मुहाने पर खड़े बिहार में सबसे विकट चुनौती है विपक्ष और उसमें भी खासतौर पर राष्ट्रीय जनता दल के सामने जो पहली बार बिना लालू यादव के चुनाव मैदान में उतरेगा.
क्या आरजेडी और कांग्रेस कोई विनिंग नैरेटिव बिहार में खड़ा कर पाएंगे?- यह इस वक्त सबसे बड़ा सवाल है जो आने वाले दिनों में ना सिर्फ बिहार बल्कि देश की राजनीतिक-सामाजिक दिशा-दशा तय करेगा.
नीतीश का दम
पिछले 15 साल में पहली बार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सुशासन बाबू की छवि पर बट्टा लगा दिख रहा है लेकिन इसके बावजूद उनकी पार्टी जेडीयू बाकी के मुकाबले ज्यादा सुसज्जित दिख रही है. इसकी वजह विपक्षी गठबंधन में नेतृत्व का अभाव और इसके चलते शुरू हुए बिखराव को ही माना जा सकता है.
नीतीश कुमार इस विपक्षी कमजोरी का फायदा उठाने में कोई भी चूक नहीं कर रहे हैं. पिछले दिनों आरजेडी के पांच विधानसभा सदस्यों का जेडीयू में शामिल होना इसका बड़ा उदाहरण है. बीजेपी नेतृत्व ने बिहार में उनको अपना नेता पहले से ही घोषित कर रखा है और इस तरह लड़ाई का पहला चरण नीतीश कुमार ने जीत ही लिया है.
जाति का गणित
हर दो साल में होने वाले विधान परिषद चुनाव में पार्टी ने जो जातीय समीकरण बैठाने की कोशिश की है, उससे महागठबंधन को झटका लगना तय माना जा रहा है. जेडीयू ने अपने जो तीन उम्मीदवार उतारे उनसे साफ है कि वह अति पिछड़े वोटों को मजबूत करने के साथ-साथ मुसलिम समुदाय में भी मजबूत संदेश देने की कोशिश कर रही है.
पिछले दो साल में मुकेश सहनी निषाद समुदाय के दम पर अपनी राजनीतिक हैसियत बनाने की कोशिश कर रहे हैं. नीतीश कुमार ने इस समुदाय को नोनिया जाति में शामिल करने की सिफारिश कर और अब भीष्म सहनी को विधान परिषद का टिकट देकर स्पष्ट संकेत देने की कोशिश की है.
इसके अलावा, नीतीश कुमार ने महिला सशक्तिकरण की दिशा में कई महत्वपूर्ण काम तो किये हैं और फिर शराबबंदी का फैसला.
26 फीसदी अति पिछड़ों और 16 फीसदी दलित समुदाय की महिलाओं के बीच नीतीश की छवि बहुत बेहतर
जहां तक मुसलिम समुदाय का सवाल है तो विधानसभा व विधान परिषद को मिलाकर अगर आरजेडी के 12 मुसलिम सदस्य हैं तो जेडीयू के 11
साफ है कि नीतीश कुमार हिंदुत्व की राजनीति करने वाली बीजेपी के साथ होते हुए भी भविष्य की राजनीति के लिए अपनी यह छवि बनाए रखना चाहते हैं.
इस बार जेडीयू ने राज्य में संगठन मजबूत करने के लिए जमीनी काम भी किया है. खराब कानून-व्यवस्था, प्रशासनिक कमजोरियों, अपने घोषित धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों से समझौता और कोरोना संकट में राजनीतिक विवशता के बावजूद विपक्ष में मजबूत नेतृत्व न होने के चलते फिलहाल नीतीश को कोई नुकसान होता नजर नहीं आ रहा.
बीजेपी की दिक्कत
बिहार में एक और बड़ा सवाल है कि बीजेपी विधानसभा चुनाव अपने बूते लड़ने की हिम्मत क्यों नहीं कर पा रही? सारे समीकरण साधने की जुगत लगाकर 2015 में बीजेपी ने जरूर इसकी कोशिश की थी लेकिन उसे औंधे मुंह ही गिरना पड़ा. इसके कारण 2005 से पहले बिहार में पिछड़ों और दलितों के राजनीतिक सशक्तीकरण की प्रक्रिया में तलाशे जा सकते हैं- बथानी टोला, लक्ष्मणपुर बाथे, शंकरबीघा से लेकर मियांपुर कांड तक में.
अमीरदास आयोग को बीजेपी के दबाव में भंग किया जाना और फिर 2015 में कोबरापोस्ट के स्टिंग आपरेशन में बीजेपी नेताओं का नाम रणवीर सेना के मददगारों के रूप में सामने आना कहानी साफ कर देता है. 2015 के नतीजों का विश्लेषण भी बीजेपी ने किया ही होगा. यही वजह है कि प्रखर राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के माहौल में भी बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर बीजेपी आश्वस्त नहीं हो रही.
बिखरा विपक्ष, कमजोर नेतृत्व
2019 के आमचुनाव में महागठबंधन जितना मजबूत दिख रहा था, आज उतना ही बिखरा हुआ है. इसकी बड़ी वजह है नेतृत्व में राजनीतिक दूरदृष्टि, कौशल और जमीनी संघर्ष की क्षमता का अभाव. अगर जातिगत समीकरणों पर नजर डालें तो इस गठबंधन की पार्टियों आरजेडी, कांग्रेस, रालोसपा, हम व वीआईपी का पलड़ा भारी लगेगा. बड़ा सवाल यह है कि क्या नेतृत्व इनको साथ लेकर चल पाने में सक्षम है?
साढ़े चार साल के राजनीतिक जीवन में तेजस्वी यादव के खाते में कोई भी राजनीतिक उपलब्धि दर्ज न हो सकी. बिहार के सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक तानेबाने की समझ के मामले में भी वे अब तक कमजोर ही दिखाई दिये हैं. सरकार में रहते हुए या नेता विपक्ष के तौर पर तेजस्वी कोई भी राजनीतिक कार्यक्रम दे पाने अक्षम रहे हैं, सोशल मीडिया पर राजनीति के अलावा.
इसके चलते जीतनराम मांझी व मुकेश सहनी को तो वह दूर करते ही जा रहे हैं, आरजेडी के पुराने लोग भी छिटक रहे हैं. पिछले दिनों शिवानंद तिवारी व रघुवंश प्रसाद सिंह का अलग होना और पांच विधान परिषद सदस्यों का जेडीयू में चले जाना इसका उदाहरण है.
आरजेडी में अंदरूनी पहुंच रखने वालों का तो कहना है कि आरजेडी के कई एमएलए भी विधानसभा चुनाव से ऐन पहले पाला बदलने की तैयारी में हैं. कांग्रेस की ज्यादा हैसियत बिहार में है नहीं. 2015 में उसे 28 सीटें अपने बूते नहीं बल्कि महागठबंधन में होने की वजह से मिली थीं. इसलिए तेजस्वी के साथ रहना कांग्रेस की मजबूरी है.
उपेंद्र कुशवाहा की अपनी राजनीति हैं जिसके केंद्र में जनता नहीं वह खुद हैं. मुकेश सहनी 2015 विधानसभा चुनाव में पहली बार प्रधानमंत्री मोदी की रैली के सामने मुजफ्फरपुर में अपनी रैली करके चर्चा में आए थे. लेकिन चुनावी राजनीति में उनको तवज्जो किसी ने दी नहीं. नवंबर 2018 में मुकेश ने वीआईपी पार्टी बनाई और महागठबंधन में शामिल होकर आम चुनाव में तीन सीटों पर लड़े. नतीजा तो सिफर रहा ही और वोट भी बहुत कम ही मिले. लालू प्रसाद यादव अगर इस समय मैदान में होते तो स्थितियां शायद कुछ और होतीं.
वोट का जातीय गणित
बिहार में वोट के लिहाज से
मुसलिम 16.8 फीसदी
ओबीसी समुदाय 51 फीसदी (इसमें- यादव 14 फीसदी, कुशवाहा 6.4 फीसदी, कुर्मी 4 फीसदी)
अति पिछड़े लगभग 26 फीसदी ( जिसमें 8 फीसदी मुसलिम अति पिछड़े, 11 फीसदी निषाद)
अगड़ी जातियों का वोट लगभग 17 फीसदी ( जिसमें ब्राह्मण 5.7 फीसदी, राजपूत 5.2 फीसदी, भूमिहार 5 फीसदी और कायस्थ लगभग 1.3 फीसदी)
दलित करीब 15 फीसदी (जिनमें दुसाध 4 फीसदी और मुसहर 2.8 फीसदी)
(राजेंद्र तिवारी वरिष्ठ पत्रकार हैं जो इन दिनों स्वतंत्र पत्रकारिता करते हैं. लेख में शामिल विचारों से क्विंट हिंदी का सहमत होना जरूरी नहीं है)
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