ADVERTISEMENTREMOVE AD

मास्क की जगह दुपट्टा:जान जोखिम में डाल रोज निकलतीं 9 लाख आशा बहनें

देश की 9 लाख आशा वर्कर्स की यही कहानी है.

Published
भारत
6 min read
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

जूली जोसेफ की जिम्मेदारी तय है. आंध्र प्रदेश के चित्तूर में वह हर हफ्ते दो बार अपनी देखरेख वाले 500 घरों का दौरा करती हैं, लोगों में बीमारी के लक्षणों की पड़ताल करती हैं और उनकी आवाजाही का रिकॉर्ड रखती हैं – अपनी सुरक्षा के लिए उसके पास सिर्फ दुपट्टा होता है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

देश की 9 लाख आशा वर्कर्स की यही कहानी है. ये महिलाएं कोरोना महामारी से भारत की जंग में सबसे आगे खड़ी हैं, लेकिन डॉक्टरों और नर्सों की तरह इन पर किसी की नजर नहीं जाती.

मार्च की शुरुआत में जब भारत में कोरोना के खिलाफ जंग तेज हुई, कई राज्य सरकारों ने आशा वर्कर्स, जो कि आम जनता और लोक स्वास्थ्य प्रणाली के बीच की कड़ी हैं, की मदद ली और उन्हें मोर्चे पर तैनात किया. अब इन पैदल-सैनिकों ने खुद को इस लड़ाई में झोंक दिया है, ये महिलाएं घर-घर जाती हैं और भारत के कोने-कोने में कोरोना के खिलाफ लोगों को जागरूक करती हैं.

आशा का अर्थ होता है उम्मीद, लेकिन इन महिलाकर्मियों को बस एक ही उम्मीद है कि सुरक्षा उपकरण, सम्मान और अच्छी सैलरी की जंग लड़ते हुए वो कोरोना को मात देने में कामयाब हो जाएं.
देश की 9 लाख आशा वर्कर्स की यही कहानी है.
0

‘मास्क नहीं, दुपट्टे से कर रही हैं अपना बचाव’

मोर्चे पर सबसे आगे होने का मतलब यह है कि आशा महिलाओं को संक्रमण का खतरा सबसे ज्यादा है.

“मैं हर हफ्ते कम-से-कम 1000 लोगों से बात करती हूं. लेकिन मुझे मास्क नहीं दिया जाता. हम लोगों को बताते हैं कि वो बार-बार अपने हाथ धोएं लेकिन हमारे पास खुद सैनिटाइजर नहीं होता. हम जहां जाते हैं उन घरों में ही अपने हाथ धोते हैं. हमें कोरोना वायरस का डर सताता है. लेकिन लोगों को इस बारे में बताना जरूरी है.”

बेंगलुरू जैसे शहरों में भी आशा वर्कर्स के लिए हालात कोई बेहतर नहीं हैं. कर्नाटक आशा वर्कर्स संघ की सचिव नागलक्ष्मी ने द क्विंट से बात करते हुए आरोप लगाया कि सरकार उनकी सुरक्षा के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठा रही है.

“हमें मास्क और सैनिटाइजर दिया जाना चाहिए. हम सरकार पर लगातार दबाव बनाते हैं लेकिन जिलों में इन चीजों की नियमित सप्लाई नहीं होती. बेंगलुरू में भी हम दुपट्टा से अपने मुंह और नाक ढकने को मजबूर हैं.”
नागलक्ष्मी, सचिव, कर्नाटक आशा वर्कर्स संघ
देश की 9 लाख आशा वर्कर्स की यही कहानी है.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

आशा वर्कर्स की अखिल भारतीय समन्वय समिति ने केन्द्र सरकार को चिट्ठी लिखकर बेहतर सुविधाओं की मांग की है, सरकार को इस बात की जानकारी दी है कि ज्यादातर महिलाओं से कहा जाता है कि वो अपने पैसों से हैंड सैनिटाइजर और मास्क खरीदें. यह समन्वय समिति पांच लाख आशा वर्कर्स का प्रतिनिधित्व करती है.

“यह निहायत जरूरी है कि इन महिलाकर्मियों को मास्क, ग्लव्स, फुल कवर सूट, हैंड सैनिटाइजर और साबुन जैसी सुरक्षा की तमाम चीजें ड्यूटी पर रिपोर्ट करते ही मुहैया कराई जाए. सर्वे पर भेजे जाने से पहले इन आशा वर्कर्स को पूरी ट्रेनिंग दी जानी चाहिए. और क्योंकि इनकी तनख्वाह बहुत कम होती है, सरकार को इन्हें ज्यादा पैसे देकर इसकी भरपाई करनी चाहिए.’
हिंदुस्तान टाइम्स से आशा वर्कर रंजना निरुला
देश की 9 लाख आशा वर्कर्स की यही कहानी है.

ये आशा वर्कर्स क्यों अहम हैं

पूरे देश में लॉकडाउन के बाद शहरों से प्रवासी मजदूरों के अपने घर लौट जाने से इन आशा वर्कर्स की जिम्मेदारी और बढ़ गई है.

‘पिछले एक हफ्ते में मुंबई और पुणे से बड़ी तादाद में लोग घर लौट आए हैं. हमें कहा गया है कि हम उनके तापमान पर नजर रखें, देखें कि उन्हें सर्दी या खांसी तो नहीं. अगर ऐसा होता है तो हम उन्हें कम से कम दो हफ्ते तक घरों के अंदर रहने के लिए कहते हैं. उन्हें घरों के अंदर रखना सबसे मुश्किल काम होता है,’ मौसमी पाटिल, जो कि महाराष्ट्र के सोलापुर में 50 आशा वर्कर्स का नेतृत्व करती हैं, ने द क्विंट को बताया.

देश की 9 लाख आशा वर्कर्स की यही कहानी है.
बाहर से आए हुए लोगों का पता लगाने और उनके संपर्क में आए लोगों को ढूंढने के लिए ज्यादातर राज्य सरकारें आशा वर्कर्स के नेटवर्क की ही मदद लेती हैं.

जैसे कि उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में मार्च के शुरुआत में एक शख्स दुबई से लौटकर आया और उसने अधिकारियों को इसकी कोई जानकारी नहीं दी. एक आशा वर्कर को उस शख्स के लौटने की खबर मिली और उसने जिला प्रशासन को इसकी जानकारी दी. जब उस शख्स में कोरोना संक्रमण के लक्षण दिखने लगे, उसे और उसके परिवार को दो हफ्ते के लिए क्वॉरंटीन कर दिया गया.

कोरोना लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा की वारदातों में बढ़ोतरी हुई है. इंडियास्पेंड की रिपोर्ट के मुताबिक - नागालैंड, मेघालय और असम में सक्रिय महिला अधिकार संगठन, नॉर्थ ईस्ट नेटवर्क (NEN) ने घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं की मदद के लिए आशा वर्कर्स का सहारा लिया क्योंकि संगठन के लोग लॉकडाउन के दौरान बाहर नहीं निकल सकते थे.

असम में NEN की निदेशक अनुरिता पाठक ने बताया कि आशा वर्कर्स भारत में कोविड-19 को रोकने की पहल में मोर्चे पर सबसे आगे हैं, किसी भी घरेलू हिंसा की वारदात की सूरत में उन्हें सूचना देकर जल्द से जल्द पीड़ित महिला तक पहुंचा जा सकता है.

घंटों का काम और थोड़ी सी कमाई

मौजूदा वक्त में आशा वर्कर्स जी तोड़ मेहनत कर रही हैं – उन्हें पहले से दोगुना काम करना पड़ रहा है क्योंकि काम का बोझ भी दोगुना हो गया है. कोरोना के खिलाफ इतनी अहम भूमिका निभाने के बावजूद उन्हें ‘अवैतनिक स्वयंसेवक’ माना जाता है और इतनी कड़ी मेहनत के बावजूद इन्हें प्रति महीने सिर्फ 2000 रूपये दिए जाते हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD
“जिला प्रशासन हमें दूसरे काम की तलाश करने के लिए कहता है. खेती के मौसम में हम दूसरे काम ढूंढने की कोशिश करते हैं. जब कोरोना नहीं था तब भी घर-घर जाना आसान नहीं होता था, पूरा राउंड खत्म करने में छह घंटे तकलग जाते थे. मैं आपको बता दूं कि हमें हर महीने पैसे भी समय पर नहीं मिलते. अगर हम प्रति महीने 18,000 रुपये दिए जाने की मांग कर रहे हैं तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है.”
आशा वर्कर

कई सालों के विरोध प्रदर्शन के बाद, आंध्र प्रदेश में आशा वर्कर्स को 10,000 रुपये प्रति महीने मिलने लगे हैं, जो कि पूरे देश में इन कार्यकर्ताओं को दी जानी वाली सबसे बड़ी रकम है. जहां कर्नाटक में इन्हें 6000 रुपये की बंधी हुई रकम दी जाती है, महाराष्ट्र में इन्हें हर महीने सिर्फ 2000 रुपये मिलते हैं.

पूरे देश में आशा वर्कर्स की सिर्फ दो मांगें हैं: कम-से-कम 18,000 रुपये सैलरी और पूर्ण सरकारी कर्मचारी की पहचान.

देश की 9 लाख आशा वर्कर्स की यही कहानी है.

‘हमें सम्मान चाहिए’

पैसे और जरूरी संसाधनों की कमी के अलावा शहरी इलाकों में रहने वाली आशा वर्कर्स एक दूसरी तरह की चुनौती का सामना कर रही हैं. कोरोना महामारी की जानकारी जुटाने के दौरान, कई इलाकों में इन्हें बदसलूकी का सामना करना पड़ रहा है, कई बार लोग इनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हैं. जैसे कि 2 अप्रैल को बेंगलुरु में हुआ जब दो आशा वर्कर्स पर लोगों ने हमला कर दिया.

हमले का शिकार रही एक आशा वर्कर कृष्णवेणी ने द क्विंट को बताया कि दूसरी महिलाकर्मियों के साथ वह पिछले 10 दिनों से इस इलाके में घर-घर जाकर अपना काम कर रही थी.
देश की 9 लाख आशा वर्कर्स की यही कहानी है.

कृष्णवेणी, जो कि पिछले 5 साल से आशा वर्कर का काम कर रही है, ने कहा, “उन लोगों ने हमारे मोबाइल फोन और बैग छीन लिए, हमें किसी को फोन तक नहीं करने दिया. हमने किसी तरह पास में अपने साथियों को इसकी सूचना भिजवाई और आखिरकार पुलिस की गाड़ी हमें बचाने के लिए आई. ये एक बेहद परेशान करने वाला वाकया था, हम इन लोगों की भलाई के लिए ही यहां आते हैं, फिर भी यह सब हमारे खिलाफ खड़े हो जाते हैं और हमें तंग करते हैं. ऐसे लोगों को सजा मिलनी चाहिए.”

ऐसी ही एक घटना में हैदराबाद में हुई जहां अनिता नाम की एक आशा वर्कर को कथित तौर पर सर्वे के दौरान लोगों के अपशब्द का सामना करना पड़ा.

जब भारत कोरोना के 4000 से ऊपर मामलों से जूझ रहा है और 7 अप्रैल तक 100 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है, यह बेहद जरूरी हो गया है कि हमारे यह ‘सैनिक’ महफूज रहें और सरकार इन कार्यकर्ताओं के लिए कोई रणनीति तैयार करे.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×