ADVERTISEMENTREMOVE AD

विमेन एंपावरमेंट के लिए शराब, गाली, मल्टीपल रिलेशनशिप जरूरी हैं?

एक स्टीरियोटाइप समाज में या कहें समाज के एक हिस्से में हैं कि अगर आजाद ख्याल नजर आना है तो कुछ चीजें करनी होंगी.

Updated
भारत
6 min read
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

हाल ही में वीरे दी वेडिंग फिल्म का ट्रेलर रिलीज इन दिनों चर्चा में है. इसे करोड़ों लोग देख चुके हैं. इस ट्रेलर में बहुत कुछ है. 4 लड़कियां हैं, जो दोस्त हैं, उनका रिलेशनशिप है, नाच गाना है, साथ में है ढेर सारी गालियां. और गाली ऐसी भी जो महिलाओं को लेकर बनी है.

यह फिल्म अर्बन, अपर क्लास की 4 लिबरेटेड लड़कियों की कहानी है, जो आजादख्याल हैं. एक स्टीरियोटाइप समाज में या कहें समाज के एक हिस्से में हैं कि अगर आजाद ख्याल नजर आना है, तो कुछ चीजें करनी होंगी.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

मर्दों की तरह गाली देना उनमें से एक है. लड़की बिंदास मानी जाएगी, अगर वह मुंह खोलकर गालियां देती है. गांव की औरत का गाली देना गंवारपन है, लेकिन शहरी खाती-पीती पढ़ी-लिखी कई लड़कियों के लिए यह टशन है, स्टाइल है.

ऐसी गालियां देती औरतें अक्सर यह भी ध्यान नहीं देतीं कि ये गालियां औरतों की देह और उनके अंगों को केंद्र में रखकर पुरुषों ने बनाई हैं. चूंकि जेंडर न्यूट्रल गालियां नहीं हैं, इसलिए अगर गालियां देनी हैं, तो आपके लिए सिर्फ ऐसी ही गालियां मौजूद हैं, जिनमें निशाने पर औरतों की देह है. पुरुष अगर गाली देता है, तो महिलाएं भी ऐसा कर सकती हैं.

गुस्से की अभिव्यक्ति अगर गाली से होती है, तो महिलाएं भी गाली क्यों न दें? अगर यह बुरा है तो उतना ही बुरा है, जितना पुरुषों का गाली देना. समस्या सिर्फ यह है कि पुरुषों की देह को केंद्र में रखकर गालियां बनाई नहीं गई हैं.

आप इस पूरे आर्टिकल का आॅडियो यहां सुन सकते हैं:

0

चलिए, सबसे पहले उन प्रतीकों की बात करें, जिनके आधार पर भारत में अक्सर किसी महिला को लिबरेटेड या स्वतंत्र होना मान लिया जाता है. यहां हम लिबरेटेड शब्द को उसी अर्थ में ले रहे हैं जो लोक विमर्श में प्रचलित है और फिलहाल हम इस बहस में नहीं पड़ते कि लिबरेटेड होना अच्छा है या संस्कारी होना.

अब बात करते हैं महिलाओं के सिगरेट पीने से. सिगरेट पीने को लम्बे समय तक और आज तक भी, महिलाओं के एम्पावरमेंट से जोड़कर देखा जाता है. जैसे कोई लड़की सिगरेट पीती है, तो वो आजाद ख्याल मान ली जाती है. भारतीय सन्दर्भ में देखें, तो ये बात पूरी तरह निराधार भी नहीं लगती. हमारे समाज में खुले में सिगरेट वही लड़कियां पी सकती हैं, जिनके पास आजादी नाम की थोड़ी बहुत कोई चीज है.

क्या लड़की का शादी का रिश्ता आये और लड़की के घरवाले ये बताएं कि उनकी लड़की सिगरेट पीती है और कभी-कभार शराब पीती है, तो कितने लड़के वाले इस बात को नॉर्मल ले लेंगे. लेकिन यही बात लड़के के बारे में बोली जाए, तो शायद ज्यादा फर्क डालने वाली चीज नहीं होगी. ऐसे में किसी लड़की का सार्वजनिक स्थानों में सिगरेट पीना उसका मुक्ति की दिशा में एक कदम ही माना जाएगा. हालांकि स्वास्थ्य की दृष्टि से इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

परंपरागत समाज में यह माना जा सकता है कि शराब या सिगरेट पीने वाली लड़की तो सिर्फ चरित्रहीन ही हो सकती है. लड़कियों के शराब सिगरेट पीने को जिस तरह चरित्र से जोड़कर देखा जाता है, उसकी एक प्रतिक्रिया यह भी हो सकती है कि लड़कियां सिगरेट और शराब पीकर फिर यह कहें कि इनको पीना चरित्र को डिसाइड या डिफाइन नहीं करता. लेकिन यह एक ट्रैप है.

सेहत खराब कर देने वाली चीजों को सिर्फ इसलिए अपना लेना कि इनका इस्तेमाल मर्द करते हैं, एक खतरनाक स्थिति है. इन चीजों को अपना लेना भर विमेन एम्पावरमेंट या फेमिनिज्म नहीं है. ये उस रास्ते कि बहुत छोटे और शुरुआती दौर के पड़ाव भर है.

ऐसे ही जब कुछ लड़कियां शराब पीकर अगर सड़क पर हंगामा करें, तो वो नेशनल न्यूज बन जाती है, जबकि यही काम लड़के करें, तो यह नॉर्मल लगता है. शोर-शराबे से इतर जो लड़कियां शराब पीना चाहती हैं, उन्हें घर वालों से छिपकर पीना पड़ता है, जबकि बेटे शराब पीते हैं, तो यही बात परिवार और समाज को सामान्य लगती है.

एक स्टीरियोटाइप समाज में या कहें समाज के एक हिस्से में हैं कि अगर आजाद ख्याल नजर आना है तो कुछ चीजें करनी होंगी.
ये सब टैबू यानी रुढ़ मान्यताएं टूटनी ही चाहिए, और टूट भी रही हैं. यह स्त्री-पुरुष समानता की ओर एक कदम है, लेकिन इतना भर कर लेना नारीवाद नहीं है. हाल के दिनो में शराब की दुकानें मॉल में भी खुली हैं, जहां लड़कियां सहजता से शराब खरीद पाती हैं. यह समानता के रास्ते में एक और कदम है.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

आजादी का जश्न या कॉरपोरेट चाल का हिस्सा

लेकिन यह पूरा मामला खासा जटिल और पेचीदा है. खासकर, महिलाओं का सिगरेट पीना और इसे नारी मुक्ति से जोड़ना एक विज्ञापन/पब्लिक रिलेशन कैंपेन की वजह से हुआ. आधुनिक पब्लिक रिलेशन के पिता कहे जाने वाले एडवर्ड बरनेस को अमेरिकन टोबैको कंपनी ने यह काम दिया था कि वे महिलाओं को सिगरेट के प्रति आकर्षित करें. बरनेस ने इस काम के लिए कुछ महिलाओं को हायर किया और 1929 को न्यूयॉर्क में ईस्टर संडे परेड के दौरान इन महिलाओं ने चलते हुए अचानक अपनी सिरगेट जला ली. ये तस्वीरें मीडिया को रिलीज की गईं और देखते ही देखते पूरे अमेरिका में इसकी चर्चा हो गई.

इसके बाद से साल दर साल महिलाओं में सिगरेट का चलन बढ़ता चला गया. दरअसल उस समय तक सिगरेट पीने वाली महिलाओं को संदिग्ध चरित्र का माना जाता था और महिलाएं अगर सिगरेट पीती भी थीं, तो प्राइवेट जगहों पर. इसलिए सार्वजनिक रूप से सिगरेट पीने को एक विद्रोह के तौर पर देखा गया और तब से लेकर अब तक सिगरेट पीने वाली महिलाओं की यह छवि बनी हुई है.

हालांकि पश्चिमी देशों में नारीवाद वहां से अब काफी आगे बढ़ चुका है और वहां महिलाओं और पुरुषों दोनों वर्गों में सिगरेट का चलन घट रहा है. लेकिन भारत में अभी नारीवाद वहां नहीं पहुंचा है. सिगरेट और शराब पीती महिलाएं कब आजादी का जश्न मनाती हैं और कब कॉरपोरेट योजना या चाल का हिस्सा बन जाती हैं, यह समझ पाना मुश्किल है.

एक स्टीरियोटाइप समाज में या कहें समाज के एक हिस्से में हैं कि अगर आजाद ख्याल नजर आना है तो कुछ चीजें करनी होंगी.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

इसी तरह, महिलाओं के एकाधिक यौन संबंध या मल्टीपल रिलेशन को लेकर भी यह कहा जाता है कि यह खुलेपन का प्रतीक है और ऐसा करने वाली महिलाएं आजाद हैं. महिलाओं की सेक्सुअलिटी को कंट्रोल करने के चलन के प्रतिरोध के तौर पर इसे देखा जाता है.

पुरुषों में चूंकि यह बात भारत में बेहद आम है, इसलिए महिलाएं यह कह सकती हैं कि हमें भी ऐसा ही बनना है. लेकिन यह बात विवादों के दायरे में है कि यह नारीवाद है या नहीं या कि इससे स्त्री-पुरुष समानता आएगी या नहीं.

मुमकिन है कि यह महिलाओं के दैहिक शोषण का कारण बन जाए. इस पर सावधानी से विचार किए जाने की जरूरत है. मुझे नहीं लगता कि यह नारीवाद है कि एक समय में एक से ज्यादा रिलेशनशिप रखे जाएं, खासकर जब एक कमिटेड रिलेशन मौजूद हो.

आजकल कई सारी सेक्स वर्कर्स अपने प्रोफेशन के बारे में खुलकर बात करने लगी हैं. इनमें से कई ऐसी हैं, जो किसी दबाव या मजबूरी में नहीं, अपनी मर्जी से प्रोफेशन में आई हैं.

यह एक तरह का सशक्तिकरण ही है, क्योंकि जो पुरुष सेक्स के लिए महिला को रुपए देता है, उसे बुरा नहीं माना जाता, जबकि देह बेचने वाली को हमेशा बुरा माना जाता है. यह बदलाव महत्वपूर्ण है कि कुछ महिलाएं खुलकर बताने लगी हैं कि वे देह बेचती हैं. हालांकि इस धंधे में शोषण महिलाओं का ही होता है.

एक स्टीरियोटाइप समाज में या कहें समाज के एक हिस्से में हैं कि अगर आजाद ख्याल नजर आना है तो कुछ चीजें करनी होंगी.
फिल्म ‘लिप्स्टिक अंडर माय बुर्का’ का एक सीन
(फोटो: द क्विंट)
ADVERTISEMENTREMOVE AD

अगर यूरोप की बात करें, तो वहां नारीवाद की पहली और दूसरी लहर मुख्य रूप से अधिकारों को हासिल करने के आसपास केंद्रित रही है. इसकी शुरुआत महिलाओं के वोटिंग राइट्स, सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं के होने के अधिकार, नौकरी के समान अधिकार, समान वेतन के अधिकार, ऊंचे पदों पर होने के अधिकार, मैटरनिटी राइट्स जैसी मांगों के साथ हुई. सेकेंड वेव फेमिनिज्म के साथ महिलाओं की अलग-अलग श्रेणियों के विशिष्ट अधिकारों की मांग तेज हुई.

यह माना गया कि ब्लैक और ह्वाइट महिलाओं की समस्याएं पूरी तरह समान नहीं है या हैस्पैनिक महिलाओं की कुछ विशिष्ट समस्याएं हैं और उनका अलग तरह का समाधान होना चाहिए. इसके साथ ही लेस्बियन और थर्ड जेंडर के सवाल सामने आए. नारीवाद का मुख्य केंद्र स्त्री-पुरुष समानता, सुरक्षा और अधिकार हासिल करना बना रहा. इसलिए सुरक्षा और अधिकार की बात भारतीय नारीवाद के केंद्र में भी होनी चाहिए.

(ये आर्टिकल गीता यादव ने लिखा है. लेखिका भारतीय सूचना सेवा में अधिकारी हैं.इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

ये भी पढ़ें-

आखिर देवियों के मंदिर में क्यों नहीं होतीं महिला पुजारिन?

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×