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महिलाओं सुनो! दुविधा मत रखो, छेड़खानी की शिकायत खुलकर करो!

जेनपेक्ट कंपनी के एक एग्जिक्यूटिव ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगने के बाद आत्महत्या कर ली.

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भारत 130 करोड़ लोगों का देश है और भारत सरकार बताती है कि पिछले साल यहां ऑफिसों या कार्यस्थलों में सेक्सुअल हैरासमेंट के सिर्फ 570 केस दर्ज हुए. इन आंकड़ों के दो ही मतलब हैं, या तो भारत औरतों के लिए जन्नत के समान देश है और यहां के ऑफिस औरतों के लिए बेहद शानदार जगह हैं. या फिर ये कि यौन उत्पीड़न के ज्यादातर केस ऑफिस से निकलकर पुलिस तक पहुंचते ही नहीं है. ये कह पाना मुश्किल है कि ऑफिसों में यौन उत्पीड़न के इतने कम आंकड़े पर देश की महिलाओं को खुश होना चाहिए या अफसोस जताना चाहिए.

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पिछले दिनों हुए #MeToo आंदोलन का शोर बहुत रहा, लेकिन गौर करें कि ये सारे आरोप महिलाओं ने आम तौर पर वर्षों बाद लगाए, जब उनका करियर नाजुक दौर से निकल चुका था या वे काम छोड़कर घरेलू जिंदगी में सैटल हो चुकी थीं. #MeToo में आरोप तो बीसियों लगे, लेकिन मुकदमा किसी भी मामले में नहीं हुआ. इन मामलों में एकमात्र मुकदमा पूर्व केंद्रीय मंत्री और पत्रकार एमजे अकबर ने (पीड़ित महिला ने नहीं कोई केस नहीं किया है) आरोप लगाने वाली एक महिला पर किया है. इस मुकदमे में जीत या हार से ये तय नहीं होगा कि एमजे अकबर ने यौन उत्पीड़न किया था या नहीं. ये मानहानि का मुकदमा है, जिसके खारिज होने से भी अकबर का दोषी होना सिद्ध नहीं होने वाला है.

ऐसे समय में आईटी सेक्टर की दिग्गज कमेटी जेनपैक्ट के नोएडा कैंपस में दो सहकर्मियों द्वारा यौन उत्पीड़न की शिकायत के बाद एक सीनियर एक्जिक्यूटिव स्वरूप राज की आत्महत्या को किस नजरिए से देखा जाना चाहिए?

जो लोग इस बहस में शामिल नहीं रहे हैं, उनके लिए बता दें कि जेनपेक्ट में दो महिला सहकर्मियों ने जब अपने एक सीनियर सहयोगी के खिलाफ यौन उत्पीड़न की शिकायत की तो, कंपनी ने इसकी जांच के लिए इंटरनल कंप्लेंट कमेटी को सौंपी. कमेटी ने जांच पूरी होने तक उस एक्जिक्यूटिव को सस्पेंड कर दिया. कंपनी की इस कार्रवाई के बाद उक्त एक्जिक्यूटिव ने आत्महत्या कर ली. उसने अपने सुसाइड नोट में खुद को बेकसूर बताया. इस घटना के बाद से मृत एक्जिक्यूटिव के परिवार के लोग आंदोलन कर रहे हैं और मांग कर रहे हैं कि कंपनी के अधिकारियों और शिकायत करने वाली महिला सहकर्मियों को दंडित किया जाए. पुरुष अधिकार संगठन इनके साथ हैं. परिवार की शिकायत पर पुलिस ने जेनपेक्ट के एक अधिकारी और उक्त शिकायतकर्ताओं के खिलाफ आत्महत्या के लिए उकसाने की धारा 306 के तहत मुकदमा दर्ज कर लिया है.

जेनपैक्ट ने जो किया, वह सही था या गलत?

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भारत में वर्कप्लेस में महिलाओं के यौन उत्पीडन को रोकने के लिए संसद से पारित कानून है. राजस्थान में एक अल्पकालिक सरकारी कर्मचारी भंवरी देवी के साथ बलात्कार के मामलों की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार ये व्यवस्था दी कि काम के दौरान होने वाले यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए गाइडलाइंस होने चाहिए. चूंकि ये मुकदमा विशाखा नाम का एक एनजीओ लड़ रहा था, इसलिए जब केंद्र सरकार ने गाइडलाइंस बनाए तो उसका नाम विशाखा गाइडलाइंस रखा गया. भंवरी देवी साथिन थी और उसका काम गांवों में होने वाले बाल विवाहों को रोकना था. जब उन्होंने ऐसी एक शादी को रोकने की कोशिश की तो लड़की के परिवार के लोगों ने भंवरी देवी पर हमला कर दिया और पति की उपस्थिति में उनके साथ बलात्कार किया.

सरकारी गाइडलाइंस के तहत जेनपेक्ट ने शिकायतों को गंभीरता से लिया, शिकायत की जांच इंटरनल कंप्लेंट कमेटी को सौंपी और जांच पूरी होने तक स्वरूप को टैंपररी सस्पेंशन में डाल दिया. अगर कंपनी ये तीनों कदम न उठाती तो क्या ये सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन न होता? स्वरूप राज को जांच पूरी होने तक ऑफिस न आने को कहा गया था. जांच कमेटी का ये कदम उसके अधिकार क्षेत्र के अंदर आता है.

सवाल उठता है कि क्या यौन उत्पीड़न के गंभीर मामलों में जांच पूरी होने तक आरोपी को उन्हीं पीड़ितों के बीच में उठने-बैठने दिया जाए या नहीं? जेनपेक्ट की जांच कमेटी ने माना कि आरोपी को ऐसा करने देना सही नहीं होगा. जांच कमेटी का ये फैसला सही या गलत हो सकता है, लेकिन कानून के खिलाफ नहीं है.
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महिलाओं को सुरक्षित माहौल देना कंपनी का कर्त्तव्य

सेक्सुअल हैरासमेंट ऑफ वीमन इन वर्कप्लेस कानून 2013 के तहत नौकरीदाता कंपनी का कर्तव्य है कि वह महिलाओं के लिए कार्यस्थल पर सुरक्षित माहौल उपलब्ध कराए. इसके साथ ही, उसका यह भी कर्तव्य है कि वह इंटरनल कंप्लेंट कमेटी का गठन करे और सुनिश्चित करे कि यौन उत्पीड़न को मिसकंडक्ट मान कर दोषी के खिलाफ कार्रवाई की जाए.

ये कानून आरोपी को ये संरक्षण प्रदान करता है कि अगर जांच से ये पता कि शिकायत बेबुनियाद है और गलत नीयत से की गई है, तो शिकायतकर्ता के खिलाफ सर्विस रूल्स के तहत कार्रवाई की जाएगी. लेकिन आरोप सिद्ध करने में असमर्थता को इसके तहत दोष नहीं माना गया है. दोषी वह तभी होगी, जब उसने शिकायत गलत इरादे से की है.

इस मामले में दो बड़े सवाल है. एक, क्या कंपनियों को यौन उत्पीड़न की शिकायत के मामलों को नरमी से लेना चाहिए? और दो, यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं को क्या करना चाहिए? क्या उन्हें शिकायत करने से पहले ये सोच लेना चाहिए कि उनकी शिकायत के बाद आरोपी आत्महत्या कर सकता है और आत्महत्या के लिए उकसाने का मुकदमा उन पर हो सकता है?
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यौन उत्पीड़न के बेशुमार मामलों में कुछ सौ मामले ही पुलिस तक इसलिए पहुंचते हैं क्योंकि महिलाओं पर तमाम तरह के दबाव पहले से होते हैं. शिकायत चूंकि आम तौर पर अपने के ऊपर के स्तर के कर्मचारी के खिलाफ होती है, इसलिए इस बात का खतरा होता है कि शिकायत को हायर मैनेजमेंट दबा दे या शिकायत करने वाले के खिलाफ ही किसी और मामले में बहाना बनाकर कार्रवाई कर दी जाए. यौन उत्पीड़न की शिकायत अगर सार्वजनिक हो जाती है, या कंपनी के अंदर फैल जाती है, तो ऐसी महिला के करियर पर बुरा असर पड़ सकता है और शिकायतकर्ता को दूसरी कंपनी में काम मिलने में भी दिक्कत हो सकती है. भारत में जेंडर रिलेशन की जो मौजूदा स्थिति है, उसमें यौन उत्पीड़न के मामलों में ‘इज्जत’ तो महिलाओं की ही खराब होती है, जिसका ‘लांक्षण’ लेकर महिलाओं को ही जीना पड़ता है.

अगर जेनपेक्ट की तरह के चंद और अपवाद की तरह होने वाले मामलों की वजह से कंपनियां, यौन उत्पीड़न की शिकायतों को गंभीरता से लेना बंद कर दें, तो ये बेहद दुर्भाग्यपूर्ण होगा क्योंकि इससे यौन उत्पीड़न मुक्त वर्क प्लेस बनाने का लक्ष्य प्रभावित होगा.

आत्महत्या से बेगुनाही साबित नहीं होगी

महिलाओं के लिए ये बेहद कठिन स्थिति है. अगर उनके ऊपर ये दबाव भी हो कि आरोपित व्यक्ति के आत्महत्या कर लेने पर शिकायतकर्ता के खिलाफ पुलिस मुकदमा कर देगी, तो यौन उत्पीड़न की शिकायत करने से वे और भी ज्यादा करताएंगी.

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ऐसे मामलों में कंपनी से लेकर पुलिस और कर्मचारियों से लेकर समाज तक को ये समझने की जरूरत है कि आरोप लगने के बाद आत्महत्या कर लेना ये साबित नहीं करता है कि लगाए गए आरोप गलत हैं. आगरा में बहुचर्चित संजली केस में परिवार के जिस युवक ने आत्महत्या कर ली, उसे दोषी मान लिया जाता है, वहीं स्वरूप राज केस में आत्महत्या करने वाले को मासूम मानकर शिकायत करने वाली महिलाओं के खिलाफ केस दर्ज कर लिया जाता है.

आत्महत्या की तमाम स्थितियां हो सकती हैं, और इसे निर्दोष होने के प्रमाण के तौर पर कानून नहीं देखता. समाज को भी अपना नजरिया बदलना चाहिए.

(लेखिका भारतीय सूचना सेवा में अधिकारी हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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