दो साल तक चले विरोध के बाद पंजाब यूनिवर्सिटी सिंडिकेट ने होशियारपुर के स्वामी सर्वानंद गर्ल रीजनल सेंटर में रहने वाली छात्राओं के लिए अघोषित कर्फ्यू को हटा दिया है. अब छात्राएं किसी भी समय बाहर निकल सकती हैं. पहले उन्हें रात नौ बजे के बाद हॉस्टल से बाहर जाने की अनुमति नहीं थी. अब उन्हें भी चंडीगढ़ कैंपस की तरह रात को बाहर जाने दिया जाएगा. हां, 11 बजे के बाद रजिस्टर में एंट्री करनी होगी. चंडीगढ़ में इस आजादी के लिए लड़कियों ने महीनों संघर्ष किया था. अब उनकी खींची लकीर, दूसरे यूनिवर्सिटी कैंपस में लड़कियों को प्रोत्साहित कर रही है.
यह इत्तेफाक ही है कि पंजाब विश्वविद्यालय के इस फैसले के चंद रोज बाद केरल उच्च न्यायालय ने भी इसके समर्थन में अपना फैसला सुनाया. त्रिशूर के श्री केरला वर्मा कॉलेज की एक छात्रा ने अपने तमाम अधिकारों के लिए दो साल पहले अदालत का दरवाजा खटखटाया था. इस पर फैसला सुनाते हुए अदालत ने साफ कहा कि लड़कियों को भी लड़कों जैसे अधिकार हैं और कॉलेज उन्हें इन अधिकारों से महरूम नहीं कर सकता.
आखिर कॉलेज हॉस्टलों में लड़कियों के लिए रात का अघोषित कर्फ्यू क्यों लगाया जाता है?
चूंकि हम यह मानकर चलते हैं कि रात का समय सिर्फ आवारागर्दी के लिए होता है. 2017 में महिला और बाल कल्याण मंत्री ने रात के कर्फ्यू को लड़कियों के लिए लक्ष्मण रेखा बताया था. चूंकि छात्र-छात्राएं कम उम्र में हारमोनल विस्फोट के शिकार हो सकते हैं इसलिए यह रेखा खींचनी जरूरी है. यानी दिन भर लड़के-लड़कियां जो मर्जी करें, लेकिन शाम होते ही अपने-अपने पिंजरों में घुस जाएं. बाहर निकलेंगे तो उनके हारमोनल विस्फोट से सारा समाज, सारी संस्कृति तहस-नहस हो जाएगी.
‘प्रेग्नेंट होकर वापस मत आना’
दिल्ली के मिरांडा हाउस में पढ़ चुकी और हॉस्टल में रहने वाली एक लड़की ने बताया था कि उसकी वॉर्डन कहा करती थी- शाम के बाद हॉस्टल से बाहर निकलो- बस, प्रेग्नेंट होकर वापस मत आना. यह हिदायत यह सोचकर दी गई थी कि लड़कियां नासमझ होती हैं. पर हॉस्टल में रहने वाली हर उम्र, हर च्वाइस की लड़की हो सकती है. बैचलर्स वाली या पीएचडी वाली... अक्सर एडल्ट, मैच्योर. ऐसी लड़की को समाज इतनी छूट तो दे ही सकता है कि वे हारमोनल विस्फोट को अपने आप काबू करें... या ना भी करें. यह फैसला उन्हें खुद ही लेने दिया जाए.
लड़कियां अपने फैसले अपने आप नहीं ले पाती हैं
पर लड़कियां अपने फैसले अपने आप कहां ले पाती हैं? अक्सर उनके रहनुमा ही उनकी एवज में फैसले लेते हैं. रहनुमाओं में उनके लिए तय किया कि उन्हें जन्म लेना है या नहीं लेना है. 2011 की जनगणना कहती है कि पिछले दस सालों में 80 लाख लड़कियों को पैदा ही नहीं होने दिया गया. समाज ही तय करता है कि लड़कियों को स्कूल जाना है, पर कॉलेज नहीं. शादी किस उम्र में करनी है. बच्चे कब पैदा करने हैं- कितने पैदा करने हैं, क्यों नहीं पैदा करने हैं. बाहर काम करना है या घर में. बाहर काम करना है पर आदमियों की बराबरी में नहीं.
हमारे यहां हर 100 लोगों में सिर्फ 65 लड़कियां स्कूल में दाखिला ले पाती हैं. फिर सेकेंडरी स्कूल पहुंचते-पहुंचते उनमें से 50 प्रतिशत स्कूल छोड़ देती हैं. देश में 20 से 24 साल की लगभग आधी लड़कियां शादीशुदा हैं तो इसकी वजह यह है कि उनकी शादियां 18 साल की कानूनी उम्र से पहले ही कर दी जाती है. युनाइडेट नेशंस डिपार्टमेंट ऑफ इकोनॉमिक्स एंड सोशल अफेयर्स वर्ल्ड फर्टिलिटी रिपोर्ट ऐसे आंकड़े देने के साथ यह भी कहती है कि पहले बच्चे को जन्म देने के समय औसत भारतीय औरतों की उम्र 20 साल होती है. यह भी सच है कि नौकरीपेशा महिलाओं को आदमियों के मुकाबले 27 प्रतिशत कम वेतन मिलता
अदालत के फैसले तक नहीं मान रहे कॉलेज
दिलचस्प यह है कि पंजाब विश्वविद्यालय से इतर केरल का कॉलेज उच्च न्यायालय के फैसले के बावजूद लड़कियों को पिंजरों से आजाद करने को तैयार नहीं. समाज के लिए भी यह आसान है कि सब अपने-अपने पिंजरों में रहें तब सरकारों और समाज की जिम्मेदारी खत्म हो जाएगी. बतौर प्रशासक, यह उनकी जिम्मेदारी है कि सभी के लिए सुरक्षित समाज बनाएं. पब्लिक स्पेस और पब्लिक ट्रांसपोर्ट को चाक-चौबंद किया जाए. शहरों, कस्बों और गांवों में प्लानिंग ऐसी की जाए जहां लड़कियां खुद को सुरक्षित महसूस करें. सड़कों को पैदल यात्रियों के चलने लायक बनाया जाए. इस बात का ध्यान रखा जाए कि रात को सभी जगहों पर रोशनी हो. बसों की लास्ट स्टॉप कनेक्टिविटी बढ़ाई जाए.
पुरुषवादी सोच रोक रहा है रास्ता
ऐसे कदम उठाने में समाज और सरकारों को मेहनत करनी पड़ेगी. ऐसी मेहनत तब भी करनी पड़ती, अगर यूजीसी की 2015 के रेगुलेशंस को अपनाने की इच्छा होती. प्रिवेंशन, प्रोहिबिशन एंड रीड्रेसल ऑफ सेक्सुअल हैरसमेंट ऑफ विमेन इंप्लॉयीज एंड स्टूडेंट्स इन हायर एजुकेशनल इंस्टीट्यूट नाम के इन रेगुलेशनों को सरकार की तरफ से ही जारी किया गया था. इसके तहत हर कॉलेज में चुनी हुई इंटरनल सेक्सुअल हैरेसमेंट कंप्लेन कमिटी होनी चाहिए. इन रेगुलेशनों में कहा गया है कि हॉस्टलों में भेदभाव वाले नियम नहीं होने चाहिए. कैंपस में महिला गायनाकोलॉजिस्ट होनी चाहिए. स्टूडेंट्स, नॉन टीचिंग और सिक्योरिटी स्टाफ के लिए जेंडर बेस्ड वर्कशॉप जरूर आयोजित होनी चाहिए. अच्छा इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे स्ट्रीट लाइट और पब्लिक ट्रांसपोर्ट होना चाहिए.
लड़कियों को देह की हदबंदियों में बांधने वाले इस दिशा में काम करने को तैयार नहीं. लड़के और लड़कियों की दोस्ती हमारे समाज की अच्छी सेहत का नतीजा होती है. सेहत अच्छी होगी, तभी समाज तरक्की करेगा. वरना हारमोनल विस्फोट दब भले जाए, लैंगिक असंतुलन जरूर पैदा हो जाता है. इसीलिए पिंजरों पर ताला मारने की बजाय उन्हें खोलने पर ध्यान दिया जाना चाहिए.
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