विवाह को सर्वाधिक पवित्र और सात जन्मों का संबंध मानने वाले देश में सतह के नीचे, और अब तो सार्वजनिक रूप से, एक ट्रेंड बहुत तेजी से जोर पकड़ रहा है. हालांकि सरकार ने इसके आंकड़े नहीं जुटाए हैं, लेकिन अगर आप शहरों में रह रहे हैं और आस-पड़ोस पर आपकी नजर है, तो आपको दिख रहा होगा कि बड़ी संख्या में लोग लिव-इन रिलेशन यानी सहजीवन में रह रहे हैं. बड़ी संख्या में लोग लिव इन रिश्तों को छिपा भी नहीं रहे हैं. हालांकि छिपकर लिव इन में रहनेवालों की संख्या भी कम नहीं है.
लिव इन की भारतीय विवाह कानूनों में कोई परिभाषा नहीं है. जब विवाह कानून बने थे, तब यह चलन कम होगा या छिपा हुआ होगा, इस वजह से इसे परिभाषित करने की जरूरत नहीं पड़ी होगी. लेकिन अब तो इसका चलन इतना बढ़ चुका है कि इस ओर से आंख बंद करने का कोई आधार नहीं रह गया है.
लिव इन की परिभाषा और इसमें रहने वालों के कानूनी अधिकार के बारे में भारतीय अदालतें लगातार फैसले सुना रही हैं. इन फैसलों की वजह से लिव इन रिलेशन को लेकर धुंध अब छंट रही है. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कहा है कि वह इस बारे में कानून बनाए. ऐसा होने के बाद मानव संबंधो की इस नई और लोकप्रिय होती श्रेणी को लेकर स्थिति और साफ हो जाएगी.
लिव इन संबंधों के पांच प्रकार हैं:
- अविवाहित और वयस्क स्त्री और पुरुष के बीच के घरेलू संबंध
- विवाहित पुरुष और वयस्क अविवाहिता स्त्री के बीच आपसी सहमति से घरेलू संबंध
- अविवाहित पुरुष और विवाहित महिला के बीच आपसी सहमति से घरेलू संबंध
- विवाहित स्त्री और विवाहित पुरुष के विवाह संबंध के बाहर के आपसी सहमति से घरेलू संबंध
- समान सेक्स के लोगों के बीच के आपसी सहमति से घरेलू संबंध
इन तमाम मामलों में पहली कटेगरी के लिव इन संबंध कम पेचीदा होते हैं और ऐसे मामलों में पार्टनर के कानूनी अधिकार भी ज्यादा स्पष्ट हैं. हालांकि बाकी किस्म के संबंधों को लेकर भी उम्मीद की जानी चाहिए कि अदालतें अपने फैसलों के जरिए कानूनी स्थिति को स्पष्ट करेगी.
अगर आप लिव इन में हैं, तो सबसे पहले ये जान लें कि आप कोई गैरकानूनी काम नहीं कर रहे हैं. एक ही स्थिति इसका अपवाद है. अगर आप पुरुष हैं और किसी विवाहिता स्त्री के साथ रिश्ते में हैं और यह काम उस स्त्री के पति की सहमति के बिना हो रहा है तो आईपीसी की धारा 497 के तहत आप यानी वह पुरुष व्यभिचार के अपराध का दोषी है और उसे पांच साल तक की सजा हो सकती है. इस मामले में स्त्री पर कोई मुकदमा नहीं चलेगा. यह जरूरी है कि केस उस महिला के पति ने किया हो.
बहरहाल, 1978 में सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार एक लिव इन रिश्ते को कानूनी तौर पर सही ठहराया और इसे कानूनी तौर पर विवाह के बराबर ठहराया. जस्टिस कृष्ण अय्यर ने फैसले में लिखा कि अगर पार्टनर्स लंबे समय तक पति और पत्नी की तरह रहे हों, तो पर्याप्त कारण है कि इसे विवाह माना जाए. इसे चुनौती दी जा सकती है, लेकिन यह संबंध विवाह नहीं था, यह साबित करने का दायित्व उस पक्ष पर होगा, जो इसे विवाह मानने से इनकार कर रहा है.
यह एक ऐतिहासिक फैसला था, क्योंकि विवाह अब तक एक धार्मिक कृत्य भी हुआ करता था और इसे सामाजिक मान्यता की जरूरत होती थी. लिव इन को विवाह के समकक्ष रखकर अदालतों ने समाज के बदलाव को स्वीकृति दी वरना आज लाखों लिव इन रिश्ते गैरकानूनी होते और इसमें रह रही महिलाओं और इससे पैदा हुए बच्चों के कोई कानूनी अधिकार न होते. आप कल्पना कीजिए कि लाखों लिव इन रिश्ते अगर अवैध हो जाएं तो उन बच्चों का क्या होगा.
इस फैसले के बाद भी 2005 में जब फिल्म एक्ट्रेस खुशबू ने एक पत्रिका को दिए इंटरव्यू में लिव इन रिलेशन और विवाहपूर्व सेक्स के पक्ष में बोला तो उनके खिलाफ मुकदमे किए गए. लेकिन अदालत ने 2010 में दिए फैसले में खुशबू को निर्दोष ठहराया और समाज बेशक लिव इन को अनैतिक मानता हो लेकिन कानून की नजर में यह गैरकानूनी नहीं है. कोर्ट ने कहा कि साथ रहना जीवन के अधिकार का हिस्सा है और इस वजह से गैरकानूनी नहीं है.
अदालतों ने लगातार ऐसे फैसले दिए हैं जिससे लिव इन संबंधों का दर्जा विवाह के बराबर होता जा रहा है.
सुप्रीम कोर्ट के 2008 के तुलसा बनाम दुर्घटिया केस के बाद अब लिव इन संबंधों से पैदा हुए बच्चों को पिता की संपंति पर बेटों के बराबर हक है. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे बच्चों को कानूनी दर्जा दिया. हालांकि यह भी कहा गया है कि यह जरूरी है कि दोनों पार्टनर एक घर में रह रहे हों. साथ रहना पर्याप्त समय के लिए होना चाहिए. यह नहीं कि आए और गए (walk in and walk out relationship) और इस बीच पैदा हुए बच्चे को कानूनी दर्जा मिल जाएगा.
2010 के बाद से सुप्रीम कोर्ट ने एक के बाद एक दिए गए फैसलों में यह कहा है कि लंबे समय तक अगर दो पार्टनर पति और पत्नी की तरह जीवन बिता रहे हैं तो उसे शादी में होना माना जाएगा और ऐसे संबंधों के टूटने की स्थिति में महिला को अपने लिव इन पार्टनर से भरण-पोषण भत्ता पाने का अधिकार होगा. यानी यह नहीं हो सकता है कि कोई पुरुष किसी महिला के साथ लिव इन में लंबे समय तक पति-पत्नी की तरह रहे और जब मन आए, उसे छोड़कर मुक्त हो ले. उसे अपनी पार्टनर को मैंटेनेंस की रकम देनी होगी. 2010 के ही एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने लंबे समय तक लिव इन में रही एक महिला को पार्टनर की जायदाद का अधिकारी माना, जबकि परिवार वाले दलील दे रहे थे वह महिला “रखैल” (Mistress) है.
इस तरह से लिव इन संबंधों को डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट यानी घरेलू उत्पीड़न कानून के तहत ले आया गया है. लिव इन संबंधों के टूटने के स्थिति में महिलाएं इस कानून के आधार पर गुजारा भत्ता मांग सकती हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने 2013 के एक फैसले में यह भी बताया है कि किन रिश्तों को कानूनी दृष्टि से लिव इन रिलेशन माना जाएगा. सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइंस के मुताबिक कोई रिश्ता लिव इन रिलेशन तभी है, जब-
1. वह रिश्ता पर्याप्त समय से चल रहा है. पर्याप्त समय को कोर्ट ने परिभाषित किया है कि रिश्ते में होने का समय इतना होना चाहिए कि वह टिकाऊ हो. यह समय हर केस में अलग अलग हो सकता है.
2. कोई रिश्ता लिव इन कहलाएगा अगर पार्टनर पर्याप्त समय तक एक साथ, एक जगह रह रहे हों.
3. कोई रिश्ता लिव इन रिलेशन कहलाएगा अगर दोनों पार्टनर अपने संसाधन बांट रहे हों. एक पार्टनर अगर दूसरे पार्टनर को लगातार संसाधन यानी रिसोर्स दे रहा है, और यह लंबे समय तक हो रहा हो, तो रिश्ता लिव इन कहलाएगा.
4. लिव इन संबंध को कानूनी मान्यता के लिए जरूरी है कि पार्टनर के बीच यौन संबंध हों.
5. अगर इस संबंध के दौरान बच्चा पैदा होता है, तो रिश्ते को लिव इन माना जाएगा.
6. अगर दोनों पार्टनर समाज में साथ आते-जाते हों तो इस रिश्ते को लिव इन में होना माना जाएगा.
7. सार्वजनिक व्यवहार में अगर दोनों पार्टनर पति और पत्नी की तरह व्यवहार कर रहे हों, तो दोनों को लिव इन में होना माना जाएगा.
8. अगर दोनों पार्टनर घरेलू काम मिल जुलकर कर रहे हों तो इस रिश्ते को लिव इन में होना माना जाएगा.
खासकर साझा वित्तीय संबंध को परिभाषित करते हुए कोर्ट ने कहा कि यह तब साबित होगा अगर दोनों या कोई अपने पार्टनर को आर्थिक रूप में मदद करता हो, दोनों के साझा बैंक एकाउंट हों, ज्वायंट नाम से या महिला के नाम से दोनों ने प्रॉपर्टी खरीदी हो, दोनों ने मिलकर लंबी अवधि का निवेश किया हो, शेयर खरीदें हों.
कुल मिलाकर अगर आप लिव इन में हैं, तो आपको पता होना चाहिए कि आप रखैल नहीं हैं कि पार्टनर जब चाहे आपको छोड़ दे. आपके पास वो सारे कानूनी अधिकार हैं, जो किसी पत्नी को हासिल हैं. सावधानी यह बरतनी होगी कि आपको लिव इन में होने के सबूत सुरक्षित रखने चाहिए. खासकर आर्थिक लेनदेन के कागज रखने चाहिए. साथ रहने के सबूत रखने चाहिए.
भारत में यूं तो जोड़ियां स्वर्ग में बनती हैं और विवाह सात जन्मों का बंधन होता है, जो एक बार हो गया तो मरकर भी खत्म नहीं होता, लेकिन स्वर्ग की ये बातें किसी स्वर्ग में ही लागू होती होंगी.
व्यवहारिक स्थिति यही है कि भारत में ज्यादातर शादियां बाप-मामा-फूफा की मर्जी से होती हैं और जब उन्हें टूटना होता है तो टूट भी जाती हैं और शादी में रहते हुए भी तमाम तरह के रिश्ते बनते-बिगड़ते रहते हैं. भारतीय शादियों के टिकाऊपन का हाल यह है कि बिहार जैसे राज्य में जहां आधुनिकता का सबसे कम प्रवेश हुआ है, वहां इस समय विवाह संबंधी 50,847 केस अदालतों में पेंडिंग हैं, वहीं सबसे शिक्षित और मॉडर्न माने जाने वाले राज्य केरल में विवाह विवादों के 52,000 केस पेंडिंग हैं. यह हाल तब है जबकि केरल में एक साल में अदालतों ने ऐसे 50,000 से ज्यादा केसों में फैसलों सुनाए हैं. यानी विवाह पर विवाद और संकट अखिल भारतीय है और ये उन मामलों की बात है, जो अदालत तक पहुंचे हैं. बाकी आंकड़ों का आप अंदाजा ही लगा सकते हैं.
ईश्वर की बनाई जोड़ी बिखर सकती है, शादियां टूट जाती हैं, सात जन्मों के संबंध महीने और साल भर भी नहीं टिकते तो लिव इन संबंध में भी टूट सकते हैं. टूट रहे हैं.
मतलब यह कि टूटकर प्यार कीजिए, लिव इन में रहना है तो रहिए. लेकिन याद रहे कि इस संबंध में आपके कानूनी अधिकार हैं. लगभग उतने ही जितने अधिकार शादी में हैं. घरेलू हिंसा से आपको संरक्षण प्राप्त है. प्रॉपर्टी पर अधिकार हैं. संबंध विच्छेद की स्थिति में गुजारा भत्ता पाने का अधिकार है. बच्चे को विरासत का अधिकार है.
आशा रखिए कि आने वाले दिनों में इस बारे में कानूनी स्थिति और स्पष्ट होगी. वैसे भी यूरोप और अमेरिका में तो विवाहिता महिलाओं से ज्यादा ऐसी महिलाएं हैं जो विवाह के अंदर नहीं हैं. भारत में भी लिव इन का चलन बढ़ने ही वाला है. इसलिए आने वाले ट्रैंड को पहचानिए. खुद को मजबूत रखिए. अपने कानूनी अधिकारों को पहचानिए.
(लेखिका भारतीय सूचना सेवा में अधिकारी हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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