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‘आधार’ हम भारतीयों की स्वैच्छिक दासता का उदाहरण है

विरोध का अभाव और अन्याय को परोक्ष सहमति काफी हद तक साफ कर देते हैं कि सदियों तक हम भारतीय गुलाम क्यों रहे.

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मुंबई के अंधेरी पश्चिम में UIDAI का दफ्तर आधार कार्ड की अर्जियां सुबह 8.30 से 9.30 के बीच लेता है. बीसियों दूसरे लोगों की तरह मैं भी काफी पहले दफ्तर के दरवाजे के बाहर कतार में खड़ा हो गया. सुबह 5 बजे मेरा नंबर कतार में सैंतीसवां था.

सुबह 8.30 पर अधिकारी दफ्तर से बाहर निकले, कतार में खड़े शुरुआती 30 लोगों को चुना और बाकी करीब 70 लोगों को कहा कि उनकी अर्जियां उस दिन नहीं ली जाएंगी. उन अधिकारियों के चेहरे पर कोई खेद या सहानुभूति नहीं थी, उन्होंने लोगों को वहां से चले जाने का आदेश दे दिया, जी हां, आदेश. और लोग भी बिना किसी विरोध के, चुपचाप जाने लगे, ताकि अगले दिन फिर से कतार में लग सकें, शायद 2 बजे रात से.

मुझे इस नकारा सरकारी तंत्र पर बेहद गुस्सा आया जो आम लोगों पर गैर-जरूरी बोझ डालता रहता है, ऐसा तंत्र जो लोगों का समय, ऊर्जा और पैसा बर्बाद करता है. लेकिन जिस चीज से मुझे निराशा हुई वो थी लोगों का इस तंत्र को निरपेक्ष भाव से स्वीकार कर लेना.
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विरोध का अभाव और अन्याय को परोक्ष सहमति काफी हद तक साफ कर देते हैं कि सदियों तक हम भारतीय गुलाम क्यों रहे.

‘मुझे देश के लिए चिंता होती है’

सरकारी विभाग में सिर्फ एक अर्जी जमा कराने के लिए घंटों तक चुपचाप कतार में इंतजार करना कोई बड़ा अत्याचार नहीं है, लेकिन ये एक कहीं गहरी समस्या का संकेत है: स्वैच्छिक गुलामी.

नेता और अफसर लगातार ऐसे तकलीफदेह नियम बनाते हैं जिन्हें लोग बिना किसी शिकायत के बर्दाश्त करते रहते हैं. मालिक-गुलाम के इस रिश्ते को लोग उसी आसानी से स्वीकार करते हैं जैसे मौसम के बदलने को.

मुझे देश के लिए चिंता होती है. मौजूदा सरकार के “मिनिमम गवर्मेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस” के वादे उसी तरह खोखले और निरर्थक साबित हुए हैं जैसे पिछली सरकारों के अलग-अलग वादे.

बुनियादी हकों- जायदाद, प्राइवेसी, कानून की नजर में बराबरी- पर सरकार के हमले लगातार इन संदिग्ध तर्कों के साथ हो रहे हैं कि ये भ्रष्टाचार पर काबू पाने, आतंकवाद से लड़ने, जनहित या ऐसे ही किसी बकवास के लिए जरूरी हैं.

विलियम पिट (यंगर) ने सैकड़ों साल पहले कहा था, मानव स्वतंत्रता के हर उल्लंघन के लिए आवश्यकता की सफाई देना तानाशाहों का तर्क और गुलामों का मत होता है.

तो क्या भारत धीरे-धीरे तानाशाही की तरफ अपने कदम बढ़ा रहा है? कदम चाहे कितने भी छोटे हों, अगर दिशा सही है, तो मंजिल पर पहुंचना तय है.

आधार: तानाशाही की तरफ एक कदम

आधार तानाशाही की तरफ एक बड़ा और निश्चित कदम है. नेताओं को ये पसंद है, इस आइडिया को जन्म देने वाले कारोबारी इससे मुनाफा कमा रहे हैं, लेकिन ये चीज परेशान करती है कि बहुत कम लोगों को इसकी वजह से प्राइवेसी और आजादी के खोने की चिंता है.

आप पूछेंगे कि फिर मैंने क्यों इसकी अर्जी दी? क्योंकि आधार अब हर चीज के लिए जरूरी है- बैंक खाता खोलने से लेकर मोबाइल कनेक्शन हासिल करने तक.

अर्थव्यवस्था के साथ सरकार की अक्सर निरर्थक और हमेशा नुकसान करने वाली छेड़छाड़ बुरी है, लेकिन जब सरकार लोगों की प्राइवेसी में दखल देने लगती है तो खतरा बढ़ जाता है. हर नागरिक की हर गतिविधि की बायोमेट्रिक निगरानी देश की मौजूदा सरकार के लिए हर समस्या का हल है, जिसे वो “सबका विकास” कहती है.

अनैच्छिक दासता तो काफी पुरानी है. लेकिन स्वैच्छिक दासता तो सरकारों और राष्ट्र राज्यों के गठन के बाद ही चलन में आई है.

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दासता का चरम रूप है गुलाम प्रथा. 1818 में अमेरिका में एक गुलाम के रूप में पैदा हुए फ्रेडरिक डगलस को “19वीं शताब्दी का सबसे प्रभावशाली अफ्रीकी अमेरिकी” माना जाता है. अपने एक भाषण में उन्होंने कहा था:

पता लगाइए कि लोग किस चीज पर चुपचाप समर्पण कर देंगे और आपको पता चल जाएगा कि उन पर किस हद तक अन्याय और गलत तरीके थोपे जाएंगे, और ये तब तक चलते रहेंगे जब तक कि उनका विरोध या तो शब्दों से या चोट से, या दोनों से ना किया जाए. तानाशाहों की सीमाएं उन लोगों की सहनशीलता से तय होती हैं जिनका वो दमन करते हैं.

ब्रिटिश राज की वापसी?

डगलस ने ये बात 1857 में कही थी. ये वही साल था जब भारत के लोगों ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह किया था. डगलस की ये बात आज भी प्रासंगिक है.

आज के भारतीय भी दमन को लेकर उतने ही सहिष्णु हैं जितने उनके पूर्वज ब्रिटिश राज में थे. ये ब्रिटिश राज पार्ट-2 है. शासकों की चमड़ी का रंग बदला है, लेकिन मालिक-गुलाम वाली मानसिकता नहीं.

हां, यहां लोकतंत्र है लेकिन वो केवल लोगों के अपने मालिकों को चुनने तक सीमित है. मौजूदा शासक भी अपने ब्रिटिश पूर्ववर्तियों की तरह जानते हैं कि लोग किस हद तक अन्याय सहन कर सकेंगे.

आजादी के इस लगातार नुकसान पर भारतीयों को कैसी प्रतिक्रिया करनी चाहिए? फ्रेडरिक डगलस ने इसका जवाब एक नौजवान अश्वेत को 1895 में दिया था, “आंदोलन! आंदोलन! आंदोलन!”

क्या भारतीय आंदोलन करेंगे? मेरी दिली इच्छा है कि वो करें लेकिन मेरा डर है कि शायद वो नहीं करेंगे.

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(अतानु डे एक अर्थशास्त्री हैं और ‘ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया’ के लेखक हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके हैं. क्विंट ना तो इसका समर्थन करता है और ना ही इसकी जिम्मेदारी लेता है.)

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