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प्रधानमंत्री के लिए अपशब्द: नेहरू के जमाने से चली आ रही ये समस्या

यह सिर्फ नरेंद्र मोदी के साथ ही नहीं हो रहा, पूर्व प्रधानमंत्रियों समेत कई  बड़े नेताओं के  बारे में अपशब्द कहे गए. 

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राहुल गांधी ने हाल ही में कहा कि देश के नौजवान नरेंद्र मोदी को डंडे से मारेंगे. पिछले साल उन्होंने कहा था कि मोदी चोर है. नरेंद्र मोदी में चाहे जो कमी हो, मगर उन्होंने कभी इसी तरह की जवाबी प्रतिक्रिया नहीं दी. उन्होंने उपहास उड़ाने और व्यंग्य का सहारा लिया. यही आरएसएस की ट्रेनिंग है.

जुबान के स्तर पर गिरावट एक सवाल खड़ा करता है: ऊंचे पद पर बैठे किसी व्यक्ति का अपमान क्या उस पद का भी अपमान है? मैंने 2006 में भी यह सवाल पूछा था जब प्रभावहीन राजनीतिज्ञ रहे नटवर सिंह ने एक अन्य प्रभावहीन राजनीतिज्ञ मनमोहन सिंह का अनादर किया था.

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लेकिन तब उन दोनों के बीच एक बहुत महत्वपूर्ण फर्क था. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे और नटवर सिंह पूर्व मंत्री, वो व्यक्ति जिनका वोल्कर रिपोर्ट में महज जिक्र आया था कि उन्होंने मंत्री रहते हुए अटपटे काम किए.

मेरा कहना तब यह था कि दफ्तर उस व्यक्ति से अलग है जो उस दफ्तर पर काबिज है. अगर आप व्यक्ति का अपमान करते हैं तो इससे दफ्तर की गरिमा गिराते हैं. हालांकि यह समस्या नेहरू के दिनों से ही हमेशा से रही है. अब यह बहुत गंभीर हो चुकी है. केवल विपक्ष और दूसरे नाराज नेता है ऐसा नहीं कर रहे हैं . ट्विटर आदि के कारण पब्लिक भी कर रही है. दफ्तर का कद छोटा हो गया है. शक्ति अब भी है, लेकिन अधिकार में कमी आ गई है.

अपमानजक शब्द कई हैं. फूहड़ भी, शिष्ट भी. नेहरू को हर तरह के नामों से बुलाया गया. और ऐसा करने वाले सभ्य लोग थे, लेकिन अंदाज ऐसा था मानो किसी उच्च वर्ग की सासू मां की जुबान हो.उनके बाद प्रधानमंत्री बने लाल बहादुर शास्त्री, जो महज 5 फीट के थे, उनके लिए उनकी जाति और लंबाई से जुड़े बयान दिए गए. यह एक तरह की अवमानना थी.

जब प्रधानमंत्रियों का बना मजाक...

इंदिरा गांधी को गूंगी गुड़िया कहा गया जब वह प्रधानमंत्री बनी ही थीं. पेशाब के सेवन को लेकर मोरारजी देसाई का मजाक बनाया गया. राजीव को उनके ही पूर्व वित्तमंत्री ने चोर कहा था. एक आरएसएस चिंतक ने अटल बिहारी वाजपेयी को संघ का मुखौटा कहा. और मनमोहन सिंह को निकम्मा कहा गया.

लेकिन ये अपेक्षाकृत परिष्कृत और नरम संबोधन हैं. अब परिस्थिति बदल गयी है. जब से नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय राजनीति में बड़ा कारक बने हैं, उनके विरोधियों ने उनके साथ अभद्रता की है. मुख्यमंत्री के तौर पर उन्हें ‘मौत का सौदागर’ कहा गया. प्रधानमंत्री के तौर पर उन्हें साइकोपैथ कहा गया. लेकिन यह सिर्फ भारतीय घटना नहीं है. अन्य देशों ने भी ऐसी ही अभद्रता का सामना किया है.

इमरान खान हैं, डोनाल्ड ट्रंप हैं, बोरिस जॉनसन, एंजिला मर्केल, इमैनुएल मैक्रॉन, व्लादिमिर पुतिन हैं. यह लिस्ट लंबी है. इन सबको न जाने क्या-क्या कहा गया. इससे उनके पद की गरिमा कम हुई.
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सिर्फ अपशब्दों से ही पद नहीं गिराई जा रही, (जो कि नया ट्रेंड है). नेहरू-गांधी परिवार ने राष्ट्रपति को लगातार निशाने पर रखा. नरम रूप में ही सही, नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद के कद को छोटा किया क्योंकि वो उनके हिन्दू समाज को आधुनिक बनाने की कोशिशों का विरोध करते थे. मुद्दा था - हिन्दू सिविल कोड में सुधार.

जब राष्ट्रपति के दफ्तर की बदनामी हुई

1975 में अपनी बारी आने पर इंदिरा गांधी ने फखरूद्दीन अली अहमद को आपातकाल पर हस्ताक्षर करने के लिए तब पकड़ा, जब वे बाथ टब में थे. इससे भी राष्ट्रपति के दफ्तर की बदनामी हुई. फिर उन्होंने राष्ट्रपति के दफ्तर को भी औपचारिक रूप से बंद कर दिया. वह अनुच्छेद 74 में बदलाव लेकर आईं जो यह कहता है कि राष्ट्रपति सरकार की बात मानने के लिए बाध्य हैं.

तीसरे थे राजीव गांधी जिन्होंने प्रधानमंत्री बनने पर शुरुआती दिनों में न केवल राष्ट्रपति जैल सिंह को नजरअंदाज किया, बल्कि अपने मित्रों के सामने उनकी नकल भी उतारी. जैल सिंह तक बात पहुंची तो वे नाराज हुए. उसके बाद रस्साकशी चली लेकिन आखिरकार जैल सिंह ही जीते. उन्होंने बातों-बातों में धमकी दे डाली कि वे राजीव को बरखास्त कर सकते हैं.
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आगे मनमोहन सिंह ने राष्ट्रपति के सम्मान को ठेस पहुंचाई. राष्ट्रपति कलाम जब मॉस्को में थे तो मनमोहन ने उनसे बिहार विधानसभा भंग करने के लिए आधी रात में सम्पर्क किया. कलाम को भी बदला लेने का अवसर मिला जब उन्होंने लाभ के पद वाले विधेयक को वापस भेज दिया. इस विधेयक का मकसद सांसद रहते हुए सोनिया गांधी को एक और लाभ के पद पर बने रहने की छूट देना था.

संक्षेप में हमने न सिर्फ प्रधानमंत्री कार्यालय की, बल्कि राष्ट्रपति कार्यालय की भी गरिमा गिराई है. अब हम शिकायत करते हैं कि दफ्तर की गरिमा गिर रही है.

स्पष्ट है कि हमारे सामने एक समस्या है जिसे हल करने की जरूरत है. मौखिक व्यवहार के लिए आचारसंहिता लाते हुए चुनाव आयोग इसकी शुरुआत कर सकता है.

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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