ये खबर कि वो क्षेत्र जो डिस्टर्ब्ड एरियाज एक्ट के तहत आते हैं यानी Armed Forces Special Powers Act (AFSPA) का अग्रदूत, इसे महत्वपूर्ण ढंग से कम कर दिया गया है, ये बात मीडिया में एक अस्थायी लहर लेकर आई, हालांकि जल्द ही ये पब्लिक अटेंशन से गायब हो गई क्योंकि, मेनस्ट्रीम मीडिया ने अपना फोकस पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान की जोखिम भरी गुगली की तरफ कर लिया.
इसका श्रेय केंद्र में भारतीय जनता पार्टी सरकार को देते हुए, यहां कहना होगा कि सिर्फ इसी सरकार ने 8 उत्तर पूर्व के राज्यों के बारे में इतनी गंभीरता से सोचा और इसकी समीक्षा की, कि क्या AFSPA को हटाने की जरूरत है और अगर ऐसा है तो चार राज्यों के किन जिलों से, जहां इसे लागू किया गया है.
केंद्रीय गृह मंत्री ने 31 मार्च को घोषणा की, कि नागालैंड और मणिपुर के कई जिलों और असम के एक जिले से आंशिक तौर पर Disturbed Areas Act हटा लिया जाएगा.
मणिपुर में AFSPA अब 6 जिलों के 15 पुलिस स्टेशन क्षेत्रों पर लागू नहीं होगा. इसी तरह नागालैंड में सात जिलों 15 पुलिस स्टेशन क्षेत्रों पर प्रभाव में नहीं होगा.
नागालैंड में चुनौतियों का सामना कौन कर रहा है?
ऊपरी तौर पर गृह मंत्रालय ने उच्च स्तरीय कमेटी की सिफारिशों पर काम किया है. ये कमेटी पिछले साल दिसंबर महीने में नागालैंड में ओटिंग हत्या के बाद बनाई गई थी, जिसमें 14 नागरिकों को आतंकवादी समझकर मार दिया गया था.
कमेटी AFSPA को पूरी तरह से हटाने की संभावना पर विचार करने वाली थी, लेकिन इस कमेटी ने कैसे ये नतीजा निकाला कि कौन से क्षेत्रों से AFSPA को हटाया जाए-कौन कहां नहीं. ये एक ऐसा मामला है, जिसकी स्वतंत्र सुरक्षा विशेषज्ञों द्वारा सावधानीपूर्वक विश्लेषण की जरूरत है.
दिलचस्प है कि इसमें ये बात तो सुर्खियों में रही कि तीन राज्यों नागालैंड, मणिपुर और असम के कुछ क्षेत्रों से AFSPA को हटाया जा रहा है, लेकिन इसमें ये शामिल नहीं किया गया कि 1 अप्रैल से कुछ राज्यों में AFSPA को अगले 6 महीने के लिए फिर से लागू कर दिया गया है.
नागालैंड में जिन क्षेत्रों को अभी भी डिस्टर्ब्ड माना जा रहा है, वो हैं, Dimapur, Niuland, Chumoukedima, Mon, Kiphire, Noklak, Phek, Peren और Zunheboto जिले, इसके अलावा जो क्षेत्र कोहिमा जिले में Khuzama, Kohima North, Kohima South, Zubza और Kezocha पुलिस स्टेशन के तहत आते हैं, Mokokchung जिले में Mangkolemba, Mokokchung-I, Longtho, Tuli, Longchem और Anaki 'C' पुलिस स्टेशन के तहत आते हैं, उन्हें भी डिस्टर्ब्ड माना गया है. इसमें Longleng जिले का Yanglok और Wokha जिले का Bhandari, Champang, Ralan और Sungro भी शामिल है.
हम अब इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं कि एक कमर्शियल हब के तौर पर इस क्षेत्र के लोग किस तरह लगातार नागा लड़ाकों के समूहों द्वारा जबरन वसूली और डराने धमकाने की घटनाओं का सामना कर रहे हैं और राज्य की पुलिस के पास ऐसे कोई साधन नहीं हैं या इतनी हिम्मत नहीं है कि वो इन घटनाओं को रोक सके क्योंकि, NSCN(IM) की सरकार पर मजबूत पकड़ है. एक स्वतंत्र फोर्स को ये गंदा काम करना पड़ता है.
असम में 'disturbed area' का टैग 23 जिलों और राज्य के 33 जिलों के एक सब डिविजन से पूरी तरह हटा लिया गया है. यहां सिर्फ 9 जिलों और एक सब डिविजन को अभी भी इस कानून के तहत ‘disturbed area' माना गया है.
मणिपुर में नस्लीय भेदभाव
मणिपुर में इम्फाल के पश्चिमी जिले के सात पुलिस स्टेशन क्षेत्रों में अब 'disturbed area' टैग मान्य नहीं रहेगा. वहीं इम्फाल पूर्वी जिले के 4 पुलिस स्टेशनों पर भी ये लागू नहीं होगा. इसके अलावा जिन क्षेत्रों में ये कानून अब मान्य नहीं रहेगा, उनमें Thoubal, Bishnupur, Kakching और Jiribam जिले का एक एक पुलिस स्टेशन शामिल है. 6 जिले जहां से AFSPA वापस लिया गया है, ये सभी घाटी में हैं. साल 2004 से AFSPA इम्फाल नगरपालिका से वापस है.
मणिपुर के पहाड़ी इलाकों में जहां NSCN(IM) और दूसरे कुकी समूह सक्रिय हैं, वहां AFSPA अभी भी लागू रहेगा. यहां साफ तौर पर एक नस्लीय भेदभाव है, जो मणिपुर में हमेशा से रहा है. जहां पहाड़ और मैदानी इलाकों की राजनीति हमेशा से तकरार की अहम वजह रही है.
60 विधानसभा सीटों में से 40 इम्फाल की घाटियों से हैं और सिर्फ 20 नागा जनजातियों के पहाड़ी इलाकों से.
अरुणाचल प्रदेश जहां कोई बदलाव नहीं हुआ है. Tirap, Changlang और Longding जिले नागालैंड के Mon जिले की सीमा से लगते हैं. ये एक ऐसा क्षेत्र है जिस पर नागा लड़ाकों के कई गुटों का प्रभुत्व है.
अरुणाचल के Namsai जिले के Namsai और Mahadevpur पुलिस स्टेशन असम में उन क्षेत्रों की सीमा से लगते हैं, जिनका इस्तेमाल ULFA लड़ाके म्यांमार तक जाने के लिए रास्ते के तौर पर करते हैं.
इन सभी क्षेत्रों को 'disturbed areas' घोषित किया गया है और यहां AFSPA को 1 अप्रैल से 6 महीने तक के लिए बढ़ाया गया है. बाकी का अरुणाचल प्रदेश इसकी तुलना में शांतिपूर्ण है.
दूसरे राज्य 'त्रिपुरा मॉडल' को फॉलो क्यों नहीं कर सकते?
यहां ये जान लें कि Disturbed Areas Act ही आगे AFSPA की तरफ लेकर जाता है. Disturbed Areas Act राज्य के गर्वनर या केंद्र सरकार द्वारा लगाया जा सकता है और तब जब किसी क्षेत्र को डिस्टर्ब्ड घोषित कर दिया जाता है, तब यहां AFSPA लागू किया जा सकता है. इसलिए जब किसी क्षेत्र से ‘Disturbed Area’ का टैग हटा लिया जाता है तो अपने आप ही वहां से AFSPA भी हट जाता है.
नॉर्थ ईस्ट के एक राज्य जिसने एक उदाहरण स्थापित किया और केंद्र सरकार को इस बात को लेकर आश्वस्त करने के बाद कि अब राज्य में AFSPA की जरूरत नहीं है, अपने यहां से इस कानून को हटाया, वो राज्य था, त्रिपुरा. जिसके मुख्यमंत्री माणिक सरकार थे. ये अगस्त 2016 में हुआ.
हालांकि त्रिपुरा विद्रोहियों से मुक्त हो गया, लेकिन अभी भी समय समय पर राजनीतिक हिंसा की घटनाएं सामने आती रहती हैं.
अब यहां सवाल ये उठता है कि क्यों दूसरे राज्य जो AFSPA से सताए हुए हैं, वो त्रिपुरा मॉडल को फॉलो नहीं कर सकते? क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि राज्य सरकारें कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए काफी हद तक केंद्र पर निर्भर हैं?
क्यों राज्य की पुलिस नागालैंड और मणिपुर में लगातार हो रही जबरन वसूली और इस तरह की घटनाओं से निपटने में सक्षम नहीं है?
क्या हमें वाकई सेना की जरूरत है, वो फोर्स जिसका काम देश के दुश्मनों से निपटना है, उसकी जरूरत हथियारबंद, तबाही फैलाने वाले समूहों के लिए है? जो समय समय पर संप्रभुता को लेकर आवाज उठाते रहते हैं और अलग संविधान की मांग करते हैं, जबकि वो आज्ञाकारी भारत सरकार द्वारा मिली सभी सुविधाएं का भरपूर लाभ ले रहे हैं
ये आंदोलन हिंसक और नेतृत्वहीन हो गया था. तत्कालीन वायसराय Linlithgow ने इस कानून का प्रचार इस तरह किया कि ये हिंसा को नियंत्रित करने में सबसे कारगर होगा. इसी कानून को कुछ संशोधनों के साथ साल 1958 में तब नागा विद्रोहियों से निपटने के लिए संसद में दोबारा पेश किया गया. जीवन रेड्डी कमेटी अपने निष्कर्षों के साथ आई लेकिन इसका कोई नतीजा नहीं निकला.पीड़ित को शोषक से प्रेम?
नागालैंड और मणिपुर में ऐसी वैकल्पिक आवाजें हैं, जो जोर देते हुए ये कहती है कि अगर AFSPA को हटा लिया गया तो ये उन्हें उन भूमिगत संस्थाओं के सामने कमजोर बना देगा, जो ऊपरी तौर पर भारत सरकार के साथ शांति वार्ता में हैं. लेकिन अपने क्षेत्रों में वो किराए के सैनिकों की तरह हैं, जिनका इस्तेमाल जब चाहे किया जा सकता है. यहां Stockholm Syndrome की याद दिलाना जरूरी है, जहां पीड़ित को उसी से प्रेम हो जाता है, जो उसका उत्पीड़क है.
पिछले साल नागालैंड के Mon जिले में 14 लोगों की हत्या के बाद लोगों का भारी गुस्सा फूटा था.
लेकिन वैसे AFSPA लगातार रहने वाली एक महामारी या कहें कि एक घाव है, जिसके साथ नॉर्थ ईस्ट के लोगों ने रहना सीख लिया है. वहीं इस मामले को मानवाधिकार संगठनों द्वारा सुप्रीम कोर्ट लेकर जाने ने नागालैंड और मणिपुर के लोगों को बहुत कम ही तसल्ली दी है.
निश्चित ही इसके लिए शीर्ष अदालत ने जीवन रेड्डी कमेटी का गठन किया, जिससे 1942 के इस औपनिवेशिक कानून का आकलन किया जा सके. जो तब लागू किया गया था, जब भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन अपने चरम पर था और इसके नेताओं ने अंग्रेजों से भारत छोड़ने की मांग की थी.
ये आंदोलन हिंसक और नेतृत्वहीन हो गया था. तत्कालीन वायसराय Linlithgow ने इस कानून का प्रचार इस तरह किया कि ये हिंसा को नियंत्रित करने में सबसे कारगर होगा. इसी कानून को कुछ संशोधनों के साथ साल 1958 में तब नागा विद्रोहियों से निपटने के लिए संसद में दोबारा पेश किया गया. जीवन रेड्डी कमेटी अपने निष्कर्षों के साथ आई लेकिन इसका कोई नतीजा नहीं निकला.
'जंगलियों' को 'साहिबों' से दूर रखने के लिए ILP का इस्तेमाल
ये याद दिलाना किसी बात को दोहराना लग सकता है कि AFSPA जिसे लेकर हमने बार-बार ये सुना कि ये कानून सेना और दूसरी सेंट्रल पैरा मिलिट्री फोर्सेज को ऐसे क्षेत्रों में जान से मार देने, घरों की तलाशी लेने और ऐसी किसी भी संपत्ति को तबाह करने का लाइसेंस देता है, जिस पर ये शक हो कि इसका इस्तेमाल विद्रोहियों द्वारा किया जा रहा है. ये कानून उन सभी क्षेत्रों में लागू है, जिसे गृह मंत्रालय ने डिस्टर्ब्ड करार दिया है.
दशकों पहले एक नये स्वतंत्र राष्ट्र के तौर पर भारत शायद उत्तर पूर्व के इलाकों के इकोसिस्टम से पूरी तरह परिचित नहीं था. यहां एक ऐसा क्षेत्र था, जहां अलग अलग प्रजातियों, वर्गों के लोग रहते थे और ये दिखने में, संस्कृति में और कई दूसरी बातों में कहीं से भी आर्यन या द्रविड़ियन जैसे नहीं थे. इनकी भिन्नता को इस बात ने और बिगाड़ दिया कि ब्रिटिश शासन में इन्हें तब के असम राज्य के मैदानी इलाकों में रहने वाले सभ्य लोगों से दूर रखा जाता था और इसके लिए जिस हथियार का इस्तेमाल किया गया था, वो था 1873 का Eastern Bengal Frontier Regulation Act, अब इसे इनर लाइन परमिट यानी ILP के तौर पर जाना जाता है.
ब्रिटिश शासन ने इस कानून का इस्तेमाल जंगली असभ्य लोगों को दूर रखने के लिए किया, जो उनके चाय उगाने वाले साहबों को नुकसान पहुंचा सकते थे. तब के NEFA की नागा और अबोर जनजातियां के बारे कहा जाता है कि वो लगातार चाय बगानों में जोखिम उठाकर अपना अधिकार जताने के लिए आती थीं क्योंकि, उन्हें पता था कि ये उनके क्षेत्र हैं.
अब ये सहज रूप से समझा जा सकता है कि उसी ILP ने अपना सिर उठाया और अब इसका इस्तेमाल दूसरे भारतीय विजिटर्स को नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों में आने से रोकने के लिए किया जा रहा है जब तक कि उन्हें एंट्री परमिट नहीं मिलता.
और इन सभी हैरान करने वाली बातों में सबसे हैरान करने वाला ये है कि बीजेपी की सरकार ने 2017 के विधानसभा चुनावों से पहले मणिपुर में ILP लागू कर दिया था.
अकेले मणिपुर में फेक एनकाउंटर्स के 1500 से ज्यादा मामले हैं. 1958 से जब भी किसी राज्य की क्षेत्रीय अखंडता पर खतरा मंडराया, AFSPA का इस्तेमाल बड़ी ही उदारता से बार बार किया गया है. साल 1983 में विद्रोह के सालों के दौरान इस कानून का इस्तेमाल पंजाब में किया गया था और 1991 में जब राज्य में सबकुछ पटरी पर लौट आया तो इसे हटा लिया गया.
हालांकि आर्म्ड फोर्सेज AFSPA का पुरजोर समर्थन करती हैं, लेकिन इस कानून ने फेक एनकाउंटर्स में कई लोगों की जान ली है. मणिपुर में अकेले ऐसे 1,528 मामले दर्ज हुए हैं और इन्हें सुप्रीम कोर्ट के सामने रखा गया है. अगर पिछले सात दशकों में भारत ने एक ऐसी फोर्स नहीं विकसित की है, जो आंतरिक विद्रोहियों से लड़ सके और उन्हें रोक सके, तो एक राष्ट्र के तौर पर भारत को हारा हुआ माना जाएगा.
यह परेशान करने वाला है कि एक देश जो औपनिवेशिक शासन से मुक्त हुआ, वो अभी तक उन्हीं कानूनों का इस्तेमाल कर रहा है, जिनका इस्तेमाल विदेशी शक्तियां अपने अधीन लोगों पर करती थीं.
क्या तब नॉर्थ ईस्ट के लोगों को इस बयान के लिए दोष देना चाहिए कि एक औपनिवेशिक शक्ति यानी ब्रिटिशर्स की जगह दूसरी औपनिवेशिक शक्ति भारत ने ले ली है.
क्या इसका अर्थ ये निकलता है कि देश की अष्ट लक्ष्मी पर कोई भी सही फैसला लेने के लिए तब तक यकीन नहीं किया जा सकता जब तक उसके सभी काम एक फोर्स से संरक्षित न हों, वो फोर्स या सेना जिसके होने का मकसद बाहरी दुश्मनों से लड़ना है?
ऐसे सवाल तब उठते हैं जब देश के एक हिस्से को औपनिवेशिक कानूनों के नीचे दबा दिया जाता है.
एक लिबरल डेमोक्रेसी में जो ऐसे संविधान में भरोसा करती है जो अपने नागरिकों को जीने के अधिकार की गारंटी देता है, AFSPA और देशद्रोह जैसे कानून इस देश के इतिहास पर काले धब्बे की तरह हैं. समय आ गया है कि इन्हें और दूसरे औपनिवेशिक कानूनों को हम अपनी कानून की किताबों से निकालकर बाहर फेंक दें.
(लेखिका द शिलॉन्ग टाइम्स की एडिटर और NSAB की पूर्व सदस्य हैं. उनका ट्विटर हैंडल है, @meipat. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी विचार हैं.)
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