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सुब्रह्मण्यम के बाद नया इकनॉमिक एडवाइजर रखने की जरूरत है क्या?

सुब्रह्मण्यम के जाने के बाद क्या वाकई फिर से एक नया चीफ इकनॉमिक एडवाइजर (CEA) नियुक्त होना चाहिए?

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चीफ इकनॉमिक एडवाइजर (मुख्य आर्थिक सलाहकार) अरविंद सुब्रह्मण्यम ने अपना कार्यकाल खत्म होने से एक साल पहले ही इस्तीफा दे दिया है. मीडिया से उनके रिश्ते इतने अच्छे थे कि उनके जल्द अमेरिका लौट जाने को लेकर सभी बेहद दुखी हैं. बहुत कुछ ऐसा ही माहौल उस वक्त भी देखने को मिला था, जब 2016 में रघुराम राजन जा रहे थे. उनके भी मीडिया के साथ बेहतरीन रिश्ते थे.

लेकिन सच्चाई यही है कि इन पदों पर काम करने वाले लोग आते-जाते रहते हैं. सुब्रह्मण्यम से पहले करीब 15 मुख्य आर्थिक सलाहकार काम कर चुके हैं. वो सभी ऊंची योग्यता रखने वाले लोग थे, लेकिन सरकार की नीतियों पर कोई असर नहीं डाल सके.

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इसलिए सवाल ये है कि सुब्रह्मण्यम के जाने के बाद क्या वाकई फिर से एक नया चीफ इकनॉमिक एडवाइजर (CEA) नियुक्त होना चाहिए? क्या आर्थिक सर्वेक्षण तैयार करने के अलावा CEA का कोई और योगदान होता है?

मिसाल के तौर पर, नोटबंदी जैसे अहम फैसले के बारे में सुब्रह्मण्यम से कोई सलाह नहीं ली गई थी. यूनिवर्सल बेसिक इनकम और 'बैड बैंक' जैसे उनके सुझाव भी रद्दी की टोकरी में डाल दिए गए. कौशिक बसु के साथ भी ऐसा ही हुआ था. इससे साफ जाहिर है कि प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री की नजर में चीफ इकनॉमिक एडवाइजर के पद की कोई खास उपयोगिता नहीं है.

अरुण जेटली ने एक बार कहा था कि CEA "मंत्रालय में एक आउटसाइडर होता है, जो बाद में इनसाइडर बन जाता है." इससे असली इनसाइडर यानी आईएएस अफसर चिढ़ जाते हैं और CEA को नजरअंदाज करते हैं. निजी बातचीत में वो आपको बताते हैं कि ये आदमी एक सिरदर्द है, क्योंकि ये पॉलिटिकल इकनॉमी को नहीं समझता. अपनी 38 साल की पत्रकारिता के दौरान मैंने लगातार ऐसा होते देखा है. वैसे भी, चीफ इकनॉमिक एडवाइजर, इकनॉमिक अफेयर्स सेक्रेटरी यानी एक आईएएस अफसर के मातहत ही काम करता है.

ये बात कम लोग जानते हैं कि CEA दरअसल वित्त मंत्रालय का मुख्य आर्थिक सलाहकार होता है, भारत सरकार का नहीं. आर्थिक सलाहकार तो हर मंत्रालय में होते हैं, जो इंडियन इकनॉमिक सर्विस से आते हैं. उनका चयन यूपीएससी के जरिये ही होता है. 2009 तक मुख्य आर्थिक सलाहकार का ओहदा भी यूपीएसएसी से आए अफसरों से ही भरा जाता था.

आईएएस बनाम सीईए

जहां तक आईएएस अफसरों का सवाल है, खास तौर पर वित्त मंत्रालय के अफसर तो यही मानते हैं कि सीईए का काम सिर्फ आर्थिक सर्वेक्षण तैयार करना है. ये बात सच है कि आर्थिक सर्वेक्षण, आंकड़ों और उनके विश्लेषण के संग्रह और नए-नए क्रांतिकारी सुझावों को पेश करने वाले प्लेटफॉर्म के तौर पर उभरा है.

सबसे पहले 1984 से 1989 के दौरान बिमल जालान ने और फिर 1992 से 1994 के दौरान अशोक देसाई ने आर्थिक सर्वेक्षण के स्तर में काफी सुधार किया, जिससे ये पहले से ज्यादा पढ़ने लायक बना है. लेकिन आंकड़ों का संग्रह तैयार करना अब पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा आसान है, जिसे बड़ी आसानी से बजट दस्तावेज में शामिल किया जा सकता है, या सांख्यिकी मंत्रालय के हवाले किया जा सकता है.

सच ये है कि आर्थिक सलाह तो आर्थिक अखबारों और वेबसाइट पर मुफ्त में उपलब्ध है. लिहाजा, मुख्य आर्थिक सलाहकार रखने की जरूरत ही क्या है?

बहरहाल, सीईए के ओहदे को खत्म करना अगर मुमकिन नहीं है, तो कम से कम इसे अभी जो अहमियत दी जाती है, उसे तो कम किया ही जा सकता है. सीईए की भूमिका महज एक सलाहकार की होती है, वो कोई पॉलिसी बनाने वाला नहीं होता. लिहाजा, ऐसा माहौल बनाने की कोई जरूरत नहीं है, मानो पॉलिसी बनाने में सीईए की बड़ी अहम भूमिका होती हो. सुब्रह्मण्यम और उनसे पहले इस पद पर रहे लोगों को भी ये हकीकत जल्द ही समझ आ गई थी.

दूसरा विकल्प ये हो सकता है कि सीईए की भूमिका में बदलाव करते हुए इसे सांख्यिकी मंत्रालय में डाल दिया जाए, जिसके कामकाज की निगरानी और मार्गदर्शन के लिए एक ऐसे अर्थशास्त्री की सख्त जरूरत है, जो आर्थिक और वित्तीय आंकड़ों के विश्लेषण में सांख्यिकी और गणित के इस्तेमाल की बारीकियों को अच्छी तरह जानता-समझता हो. पिछले दो चीफ स्टैटिस्टीशियन यही जिम्मेदारी निभा रहे थे. लेकिन वो पोस्ट अब खाली पड़ी है.

वाकई ये अधिकार अगर मेरे पास होता, तो मैं सरकार में मौजूद सभी अर्थशास्त्रियों को सांख्यिकी मंत्रालय में डाल देता, जो वहीं रहते हुए बाकी सभी मंत्रालयों की मदद कर सकते थे. इससे न सिर्फ दो मंत्रालयों के बीच लगातार चलने वाली खींचतान खत्म हो जाती, बल्कि बंद किए जा चुके योजना आयोग के बेकार बैठे अर्थशास्त्रियों को भी उनकी विशेषज्ञता के हिसाब से कुछ काम मिल जाता.

वित्त मंत्रालय के पास इंडियन इकनॉमिक सर्विस और बाहर से लाए गए कई आर्थिक सलाहकार पहले से ही मौजूद हैं. मौजूदा प्रिंसपिल इकनॉमिक एडवाइजर भी बाहर से ही आए हैं. उन्होंने एक अच्छी किताब लिखी है और उनकी अंग्रेजी भी बढ़िया है. मुझे पूरा भरोसा है कि वो एक अच्छा आर्थिक सर्वेक्षण तैयार कर सकते हैं.

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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