चाहे शहरी इलाका हो या ग्रामीण, भारत में सभी जगहों पर लोग प्रदूषण की मार झेल रहे हैं. एक इंटरनेशनल स्टडी के नतीजों में यह बात सामने आई है कि भारत की आबादी के महज 1 फीसदी लोगों को ही वैसी हवा नसीब हो पाती है, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के अनुरूप है.
हवा में बढ़ता प्रदूषण सेहत के लिए गंभीर खतरा बन चुका है. भारत में बढ़ती बीमारियों और मृत्युदर में भी प्रदूषण एक गंभीर कारक है. ऐसे में जबकि केंद्र और राज्य सरकारें प्रदूषण में कमी लाने के लिए कदम उठा रही हैं, प्रदूषण पैदा करने वाले दूसरे स्रोतों पर विचार करना जरूरी हो जाता है.
अगर गाड़ियों की बात छोड़ दी जाए, तो इसके अलावा प्रदूषण पैदा करने
वाले कई स्रोत हैं. इसमें निर्माण कार्य के दौरान उड़ने वाली धूल, कचरों का जलाया जाना, कोयला-उपला आदि का ईंधन के रूप में उपयोग आदि शामिल हैं.
त्योहारों के मौके पर पटाखे और दिवाली-लोहड़ी आदि के मौके पर लकड़ियों के जलाने से हवा प्रदूषित होती है. अंतिम संस्कार के दौरान लकड़ियां जलाने से भी हवा की शुद्धता को नुकसान पहुंचता है.
कुछ स्रोत ऐसे हैं, जो किसी खास मौसम में असर डालते हैं. जाड़े के दिनों में खुले में लकड़ियां और कचरा जलाना इसमें शामिल हैं. समस्या इसलिए ज्यादा जटिल हो जाती है, क्योंकि प्रदूषण किसी भी सीमा को नहीं मानता.
दूसरे राज्यों की प्रदूषित हवा दिल्ली पर भी अपना असर डालती है. पंजाब के किसान जब फसलों की खूंटी जलाते हैं, तो उससे भी दिल्ली में प्रदूषण बढ़ता है. थार के रेगिस्तान से आने वाली हवा भी असर छोड़ती है.
धूल से होने वाले प्रदूषण का खतरा
सोचिए, अगर किसी ऐसे कमरे में अगरबत्ती जलाई जाए, जिसमें कोई खिड़की आदि न हो. इसकी तुलना उस कमरे से कीजिए, जिसमें खिड़कियां हों और उसमें अगरबत्ती जलाई जाए. प्रदूषण के बारे में भी यही बात लागू होती है.
जब तापमान ज्यादा होता है और हवा की गति तेज होती है, तो प्रदूषण एक जगह नहीं टिकता है. इससे विपरीत स्थिति में प्रदूषण दूसरी जगह नहीं जा पाता.
प्रदूषण पैदा करने वाले तत्व किसी केमिकल के बने होते हैं. रासायनिक प्रतिक्रिया के बाद ये कई बार किसी जटिल तत्व में बदलकर वातावरण में मिल जाते हैं. इससे भी कुल मिलाकर प्रदूषण बढ़ता है.
- केंद्र और राज्य सरकारें प्रदूषण में कमी लाने के लिए कदम उठा रही हैं. अब प्रदूषण पैदा करने वाले दूसरे स्रोतों पर विचार करना जरूरी है.
- भारत की आबादी के महज 1 फीसदी लोगों को ही वैसी हवा मिल पाती है, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के अनुरूप है.
- धूल या राख आदि में जब रासायनिक चीजें घुल-मिल जाती हैं, तो यह इंसान के लिए खतरनाक साबित होता है.
- दिल्ली में सड़कों की धूल पर की गई स्टडी में यह बात सामने आई है कि इसमें तांबा, तस्ता, कैडमियम, लेड जैसे भारी धातु मिले होते हैं.
- गाड़ियों की तादाद में कमी लाना इस मायने में ज्यादा अहम है कि इसमें प्रदूषण कम करने की सरकार की इच्छा-शक्ति झलकती है.
- अब उन शहरों की ओर भी ध्यान देने की जरूरत है, जहां प्रदूषण का स्तर दिल्ली जैसा ही है.
जब हम धूल की बात करते हैं, तो इसमें कई चीजें होती हैं. इसमें जमीन की सतह की मिट्टी भी शामिल है, जो आम तौर पर नुकसानदेह नहीं है. सड़कों की धूल, निर्माण के काम से पैदा होने वाली धूल या राख आदि में जब रासायनिक चीजें घुल-मिल जाती हैं, तो यह इंसान के लिए खतरनाक साबित होता है.
दिल्ली में सड़कों की धूल पर की गई स्टडी में यह बात सामने आई है कि धूल में तांबा, तस्ता, कैडमियम, लेड जैसे भारी धातु मिले होते हैं. यही धूल बार-बार उड़ती है, जब हम गाड़ी चलाते हैं या टहलते हैं.
अभी और कदम उठाने की जरूरत
दिल्ली सरकार ने हाल में जो ऑड-ईवन फॉर्मूला लागू किया है, उसके बाद मिली-जुली प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं. नियम लागू होने के पहले ही दिन 1 जनवरी को ही कई तरह की रिपोर्ट सामने आई. एक ओर दावा किया गया कि प्रदूषण के स्तर में कमी आई. दूसरी ओर कुछ रिपोर्ट में कहा गया कि इसका कोई असर नहीं पड़ा.
गाड़ियों की तादाद में इस तरह की कमी लाना इस मायने में ज्यादा अहम है कि इसमें प्रदूषण कम करने में सरकार की इच्छा-शक्ति झलकती है.
तथ्य यह है कि दोपहिया वाहनों को इस फॉर्मूले से फिलहाल बाहर रखा गया है. ये भी सीधे तौर पर प्रदूषण पर असर डालते हैं. जैसा कि मैंने पहले कहा है, मौसम भी अपनी भूमिका निभाता है. 1 जनवरी से हवा की स्थिति लगभग शांत बताई जा रही है.(अब फिर उस बंद कमरे के बारे में सोचिए).
बहरहाल, अगर शहर को सांस लेने लायक और रहने लायक बनाना है, तो बहुत-कुछ किए जाने की जरूरत है. दिल्ली को हर दिन ट्रैफिक जाम की मार झेलनी पड़ती है. इससे न केवल धुएं से, बल्कि टायर और ब्रेक से धातु के कण हवा में घुलते-मिलते हैं.
सेहतमंत भविष्य बनाइए
कारों के चलने पर इस तरह के सीमित प्रतिबंध से ट्रैफिक ठीक होने में मदद मिल सकती है. साथ ही वातावरण प्रदूषित होने से भी बच जाता है. निर्माण वाली साइट्स पर भी कुछ पाबंदियां लगाकर प्रदूषण को भी कम किया जा सकता है. मशीनों में इस्तेमाल के लिए सल्फर की कम मात्रा वाला तेल इसमें मददगार साबित हो सकता है.
अच्छी खबर यह है कि ऑड-ईवन इकलौती ऐसी सरकारी योजना नहीं है, जिससे प्रदूषण नियंत्रण के लिए बनी है. इस तरह के कई अन्य पहल भी किए गए हैं. इनमें मशीनों से सड़कों की सफाई, खुले में टायर, लकड़ी या कचरों के जलाने पर रोक, बदरपुर पावर प्लांट बंद किया जाना आदि शामिल हैं.
इस तरह की पहल से हवा की गुणवत्ता में सुधार होगा और लोगों का भविष्य भी ज्यादा सेहतमंद हो सकेगा. साथ ही हम लोगों के लिए भी प्रदूषण पैदा करने वाले स्रोतों के बारे में लगातार जानकारी जुटाना और इसे बताना अहम है.
अंत में, दिल्ली में प्रदूषण पर नियंत्रण करने के लिए पहल करना तो जरूरी है ही, साथ ही अब उन शहरों की ओर भी ध्यान देने की जरूरत है, जहां प्रदूषण का स्तर दिल्ली जैसा ही है.
(यह आलेख पल्लवी पंत ने लिखा है, जो अमेरिका के मैसाचुसेट्स यूनिवर्सिटी में रिसर्चर हैं.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)