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महाराष्ट्र की कलह: 'पवार लैंड' में जो कुछ नजर आता रहा, हकीकत उससे कहीं जुदा है

शरद पवार अपनी 56 साल की राजनीति में लगातार सत्ता के केंद्र में या उसके करीब रहे हैं, कभी भी उससे बहुत दूर नहीं रहे.

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शरद पवार (Sharad Pawar) ने कांग्रेस से निष्कासित अपने साथियों के साथ मिलकर 24 साल पहले जून 1999 में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP-नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी) का गठन किया था. उन्होंने इटली में जन्मी सोनिया गांधी का मुद्दा उठाया जो उस समय पार्टी अध्यक्ष थीं, और अगर पार्टी को चुनावी बहुमत मिलता तो वह भारत की प्रधानमंत्री बन सकती थीं. हालांकि, पवार द्वारा उठाया गया विदेशी मूल का मुद्दा महज चार महीने बाद ही उस समय मुंबई की शांत हवा में खो गया जब पवार ने महाराष्ट्र में राज्य सरकार बनाने के लिए कांग्रेस के साथ गठबंधन किया. अब इसे ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है, क्योंकि उनकी पार्टी (NCP) दो हिस्सों में बंटती नजर आ रही है. बीते रविवार को अजित पवार ने एनसीपी के एक गुट का नेतृत्व करते हुए एकनाथ शिंदे-देवेंद्र फड़णवीस या शिवसेना-बीजेपी सरकार के साथ हाथ मिलाया है.

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और भी बहुत कुछ है. 2014 में, जब महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से पहले दोनों भगवा दल अलग हो गए और बीजेपी बहुमत से कुछ ही दूर रह गई थी, तब शरद पवार ने तेजी से लेकिन चुपचाप फड़णवीस को एनसीपी के समर्थन की पेशकश की थी. 2019 में, अजित पवार ने एक कदम आगे बढ़कर फड़णवीस के साथ मंत्री पद की शपथ ली थी, जबकि शरद पवार अपनी पार्टी का शिवसेना और कांग्रेस के साथ गठबंधन करने का प्रयास कर रहे थे. हालांकि इस बात की प्रबल संभावना है कि शरद पवार को अजीत पवार के इस कदम के बारे में पता था. इसके अलावा यह भी याद रखना चाहिए कि धर्मनिरपेक्षता पर अपने दृढ़ रुख के बावजूद, शरद पवार ने अपने गृहनगर बारामती में बड़े ही धूमधाम और भव्यता के साथ प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की मेजबानी की है. वहीं दूसरी ओर उनके द्वारा 1970 और 80 के दशक में किये गये तख्तापलट या लगभग तख्तापलट के उदाहरण भी हैं.

महाराष्ट्र में राजनीतिक पुनः गठजोड़

अभी तक जो चलता आ रहा है वह है कि अपने 56 साल के राजनीतिक जीवन में शरद पवार लगातार सत्ता के केंद्र में या उसके करीब रहे हैं, कभी भी उससे बहुत दूर नहीं रहे. एक बार यह बात समझ में आ जाए तो यह समझना संभव है कि पवार क्या कदम उठाते हैं और उनकी पार्टी क्या दिशा लेती है.

पिछले कुछ वर्षों में महाराष्ट्र में जो राजनीतिक पुनः गठजोड़ हुए हैं, उसकी अपनी-अपनी लालसाएं रही हैं. लेकिन, उनके भीतर, पवार के पास सुलझाने को कई मुद्दे हैं- जैसे अपनी पार्टी के भविष्य को सुरक्षित करना जो उनके सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद एक क्षेत्रीय पार्टी बनी हुई है, भतीजे अजित पवार को अलग किए बिना बेटी सुप्रिया सुले के लिए उत्तराधिकार का रास्ता सुलझाएं, उन पर और उनकी पार्टी के नेताओं पर वास्तविक या फर्जी मामलों पर केंद्र ने केंद्रीय जांच एजेंसियों को खुला छोड़ दिया है. ऐसे में वे प्रतिशोधी शासन के साथ शांति स्थापित करें, प्रदेश की राजनीति पर फिर से अपना वर्चस्व स्थापित करें और अगले साल होने वाले आम चुनाव के साथ-साथ राज्य विधानसभा चुनावों के लिए भी जमीन तैयार करें.

82 साल की उम्र में, इस लिस्ट पर काम करना काफी कठिन है. लेकिन अपनी बीमारियों के बावजूद, कभी भी पवार को शारीरिक सहनशक्ति की कमी महसूस नहीं हुई; उनकी मानसिक चपलता पहले की तरह ही तेज है और उनकी राजनीतिक कुशलता और भी तेज है. रविवार की घटनाओं से अप्रभावित, जिसमें उन्होंने एनसीपी के दूसरे स्तर के अधिकांश नेताओं को (जिनमें दिलीप वाल्से पाटिल जैसे करीबी सहयोगी और नई दिल्ली में भरोसेमंद प्रतिनिधित्व करने वाले प्रफुल्ल पटेल भी शामिल थे) खो दिया, लेकिन पार्टी को जमीनी स्तर से पुनर्जीवित करने के लिए वह अगले दिन सड़क पर उतरे.

क्या वह ऐसा कर सकते हैं, क्या यह लक्ष्य हासिल किया जा सकता है? उनके प्रति मिली सहानुभूति की प्रचुर मात्रा को देखते हुए, वह पार्टी में, विशेषकर युवाओं में, उद्देश्य की एक नई भावना पैदा करने में सक्षम हो सकते हैं. किसी भी स्थिति में, उन्हें जहाज (पार्टी) को स्थिर रखने में सक्षम होना चाहिए. हालांकि, महाराष्ट्र के बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए, जहां विपक्षी दलों को कमजोर और अस्थिर करने की बीजेपी की नीयत हावी है, वहां के राजनीतिक ढांचे में यह पर्याप्त नहीं हो सकता है. लगभग चार वर्षों से चल रहे पूर्ण मोर्चे के हमले में शिवसेना और एनसीपी की विधायी शाखाएं टूट गईं; कांग्रेस, जिसे सबसे कमजोर माना जाता था, वह अभी भी कायम है. पवार को राजनीति से भी ज्यादा की जरूरत है.

नजर न आने वाले फैक्टर 

राजनीति के पीछे की ताकत को ध्यान में रखे बिना महाराष्ट्र के पॉलिटिकल ड्रामा को समझने का प्रयास करना नासमझी होगी. अन्य ताकतवर लोगों के अलावा, पवार ने अपने मुंबई आवास पर कॉर्पोरेट दिग्गज गौतम अडानी की एक बार नहीं बल्कि दो बार (एक बार अप्रैल में और फिर जून की शुरुआत में) मेजबानी की है. अडानी की प्रधानमंत्री के साथ निकटता और मोदी-पवार का व्यक्तिगत समीकरण, दोनों ही अच्छी तरह से ज्ञात हैं. यह कोई संयोग नहीं हो सकता कि मुंबई में राजनीतिक पुनः गठजोड़ का दूसरा दौर इसके तुरंत बाद शुरू हुआ.

बढ़ती संख्या में लोगों का मानना है कि रविवार का एनसीपी विद्रोह किसी तरह से पवार की राजनीति के दूसरे पक्ष यानी कि सहकारी क्षेत्र में उनकी प्रभावशाली उपस्थिति से जुड़ा है. सहकारी क्षेत्र की राज्य भर में व्यापक और गहरी उपस्थिति है. कृषि से लेकर डेयरी, माइक्रो-फाइनेंस से लेकर बैंकिंग और अन्य कई तरीकों से इसके नेटवर्क में किसी न किसी तरह से लाखों लोग शामिल हैं.

सहकारी क्षेत्र महाराष्ट्र के सामाजिक-राजनीतिक विकास की रीढ़ या नींव भी रहा है, इसमें से कई ताकतवर सहकारी मालिक राजनीतिक नेताओं के रूप में सामने आए हैं. एक समय ऐसा था जब यह बात केवल कांग्रेस के लिए सच थी, लेकिन स्वर्गीय गोपीनाथ मुंडे से लेकर केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी तक, बीजेपी और एनसीपी के अधिकांश राजनेताओं की सहकारी क्षेत्र में बड़ी उपस्थिति है. यह देखते हुए कि अन्य सांप्रदायिक रूप से कमजोर राज्यों के उलट, महाराष्ट्र की राजनीति को अकेले सांप्रदायिकरण से चलाना कठिन है, फूट या बाधा पैदा करने के लिए एक अलग दृष्टिकोण रखना होगा.

बीजेपी और उसके प्रमुख फंडर्स के लिए, सहकारी नेटवर्क पर हिट करने से बेहतर क्या हो सकता है, क्या इस प्रतीत होने वाले अभेद्य बाजार में पैर जमा सकते हैं, और इसे बढ़ते निजीकरण की दिशा में फिर से संगठित कर सकते हैं?

दृष्टिकोण महाराष्ट्र से परे है और नजरें इस महीने के अंत में विपक्षी दलों की होने वाली अहम बैठक पर हैं. पवार एक महत्वपूर्ण व्यक्ति रहे हैं, क्योंकि उन्हें राजनीतिक विभाजन से आगे बढ़कर मैत्रीपूर्ण संबंधों वाले पितामह के रूप में देखा जाता है, लेकिन उनकी अपनी पार्टी की स्थिति को देखते हुए विपक्षी एकता में उनके योगदान और अन्य दलों तक पहुंचने के उनके बड़े कार्य के बारे में सवाल उठाए जाएंगे.

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राजनीति में कैसे तोड़-मरोड़ होता है

पवार-फडणवीस युद्ध, जिसमें फडणवीस ने सबसे हालिया दौर में पवार के सबसे भरोसेमंद लोगों को तोड़कर जीत हासिल की, यह घटनाक्रम महाराष्ट्र की राजनीति के साथ-साथ एनसीपी के भविष्य को भी बदल देगा. लेकिन यह कौन सा युद्ध है जिसमें बीजेपी दो जुबानों से बात करती हुई दिखाई दे रही है? महाराष्ट्र में वह आक्रामक और शत्रुतापूर्ण दिखती है, लेकिन केंद्र में सभ्य और कभी-कभी मित्रवत व्यवहार के साथ दिखती है? इस पहेली में एनसीपी में विद्रोह और अजीत पवार द्वारा मोदी की प्रशंसा करते हुए बीजेपी सरकार में जाने वाले फैसले को समझने के लिए सुराग छिपे हो सकते हैं.

अब तक, यह सर्वविदित है कि रविवार को जिन नौ लोगों ने पद की शपथ ली है उनको केंद्रीय जांच एजेंसियों द्वारा पूछताछ या मामलों का सामना करना पड़ा है. महाराष्ट्र में एक साल में दूसरी बार बीजेपी द्वारा खुलेआम स्पष्ट रूप से इस रणनीति को लागू करने से लोगों को पीछे हटना चाहिए था; लेकिन इसके बजाय, फड़णवीस ने इस 'मास्टरमाइंड' रणनीति के लिए जमकर प्रशंसा बटोरी है. यदि सरकार में शामिल होने से उनके लोग जादुई तरीके से 'स्वच्छ' और गैर-भ्रष्ट हो जाते हैं, तो पवार इसका स्वागत करेंगे. जिस गति से पुनः गठजोड़ हो रहा है उसे देखते हुए बाद में अंततः उनकी घर वापसी का एक समय होगा.

पवार परिवार को 'तोड़ने' से बीजेपी को बहुत कुछ हासिल होगा. पार्टी के भीतर सीनियर लीडरशिप को लगभग साफ करके पवार को छोटा करने की रणनीति के अलावा, पार्टी के पास अब पवार के अपने गृह क्षेत्र बारामती में पवार के खिलाफ एक और पवार को मैदान में उतारने का मौका है; ऐसा बताया जा रहा है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में सुप्रिया सुले को टक्कर देने के लिए अजित पवार के बेटे पार्थ को उम्मीदवार बनाया जाएगा. दूसरे शब्दों में देखा जाए तो पार्टी यहां अमेठी वाली चाल दोहराए और पवार से उनका गृह क्षेत्र छीन ले. लेकिन इसे अंजाम देने या क्रियान्वित करने की तुलना में इसकी योजना बनाना आसान हो सकता है.

इसके अलावा, इससे बीजेपी को मदद मिल सकती है अगर वह हमेशा से कांग्रेस से अधिक आक्रामक रहे दो क्षेत्रीय दलों (शिव सेना और एनसीपी) को असमंजस की स्थिति (यह पता लगाने में व्यस्त रहती है कि पार्टी कौन सा गुट प्रतिनिधित्व करेगा और इसके लिए वे अदालतों में उलझे रहे) में रखती है. 2014 और 2019 दोनों में, छह महीने पहले आम चुनाव में शानदार प्रदर्शन करने के बावजूद बीजेपी महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में अपने दम पर स्पष्ट बहुमत हासिल करने से दूर रही थी. अब इन पैंतरेबाजी को किसी के खराब प्रदर्शन से बचने के लिए विपक्ष को बिगाड़ देने या अस्त-व्यस्त कर देने के संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए. बीजेपी चाहती है कि शिवसेना और एनसीपी कमजोर हों; वहीं महाराष्ट्र विकास अघाड़ी को समर्थन देने के बावजूद पवार चाहेंगे कि शिवसेना कमजोर हो जाए.

जिन प्रफुल्ल पटेल को पिछले महीने ही पवार ने राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया था, वही प्रफुल्ल पटेल हाल के घटनाक्रम में एक प्रमुख वार्ताकार थे और अजीत पवार और अन्य लोगों के शपथग्रहण के दौरान हंसते रहे, यह एक महत्वपूर्ण संकेत है कि जो कुछ नजर आता है उसके पीछे उससे कहीं अधिक छिपा होता है. इससे पता चलता है कि पवार खत्म होने से अभी कोसों दूर हैं; यह बात एनसीपी पर भी लागू होती है. सत्ता के लिए, पवार ने कई राजनीतिक कलाबाजियां अपनाई हैं और कई रणनीतियों के मास्टरमाइंड रहे हैं. हाल की घटनाएं उनसे उनकी शक्ति और कमान नहीं छीन सकती हैं.

(स्मृति कोप्पिकर, मुंबई की एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आप पॉलिटिक्स, शहरों, जेंडर और मीडिया जैसे विषयों पर लेखन करती हैं. ट्विटर पर @smrutibombay से ट्वीट करती हैं. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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