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अमेरिका ने काबुल में IS-K हमले का बदला तो ले लिया, पर आगे क्या करेगा? 4 विकल्प

अमेरिका को समझना होगा कि Pakistan ने उसे कठपुतली की तरह इस्तेमाल किया है

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जब अफगान लोग हताश होकर देश छोड़ने को बेताब थे, तब काबुल हवाई अड्डे (Kabul Airport) पर हमला बहुत त्रासद था. इस विस्फोट में 13 अमेरिकी सैनिक और कई नागरिकों की मौत हो गई. मरने वालों की संख्या 170 से ज्यादा हो चुकी है, और 200 से ज्यादा लोग घायल हैं. अमेरिका ने 28 अगस्त की सुबह इस्लामिक स्टेट-खोरासन (आईएस-के) के योजनकार के खिलाफ नंगरहार में ड्रोन हमले का ऐलान किया. इस इलाके पर हक्कानी नेटवर्क का बड़े पैमाने पर नियंत्रण है और इसमें IS-K के कैडर भी शामिल हैं. दिक्कत यह है कि उनके बीच फर्क करना मुश्किल है.

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हवाई अड्डे और पास के बैरन होटल में दो बार आत्मघाती विस्फोट हुए और एक आतंकी ने गोलियां भी चलाईं. ऐसा लगता है कि हमले के जरिए वहां अफगान लोगों की भीड़ को निशाना बनाया गया था. हमलावर वहां बहुत आसानी से घूम रहे थे. पेंटागन का कहना है कि हवाई अड्डे पर तालिबान के नियंत्रण होने के बावजूद हमला हुआ. वैसे अमेरिकी सेना को आईएस-के के हमले की चेतावनी मिल चुकी थी और वह तालिबान की मदद से देश से बाहर निकलने की जल्दबाजी में थी.

हैरान होने की बात है कि एक महाशक्ति को उन लड़ाकों का सहारा लेना पड़ रहा है, जिन्हें अफगानिस्तान से बाहर निकालने के इरादे से उसने एक अनजान धरती पर कदम रखा था. दिलचस्प यह भी है कि उसे इस बात की खुफिया सूचना कैसे मिली और आईएस-के उस महाशक्ति पर हमला क्यों कर रहा है जो खुद उसे पूरा देश थमा चुका है.
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IS-K की अनोखी फितरत

खोरासन का इस्लामिक स्टेट एक खास ग्रुप है. ज्यादातर पश्चिमी विश्लेषक इसे सीरिया के इस्लामिक स्टेट का नातेदार बताते हैं. राष्ट्रपति बाइडेन ने इसे ‘तालिबान का जानी दुश्मन’ बताया था. सच्चाई यह है कि यह दोनों बातें गलत हैं. आईएस-के एक ऐसा ग्रुप है जिसमें पहले तहरीक-ए-तालिबान के लड़ाके शामिल थे. उन्हें कबायली इलाकों में पाकिस्तान के ऑपरेशंस से भागना पड़ा था. इसके बाद अफगान खूफिया तंत्र ने उन्हें रिझाया और नंगरहार में उनका ग्रुप बन गया. जब आईएस-के और तालिबान के बीच झड़पें शुरू हुईं तब तालिबान ने सीरिया के इस्लामिक स्टेट से इसकी शिकायत की. उसने अपने ‘नातेदार’ को तालिबान पर हमला करने से रोक दिया.

हक्कानी नेटवर्क इस ग्रुप पर काफी भारी पड़ा, और ग्रुप बिखर गया. इसके बाद अमेरिकी बलों ने आईएस-के के नेताओं पर निशाना साधना शुरू किया. इसके कई लीडर्स मार गिराए गए. लगता था कि जमीनी स्तर पर कोई चाहता है कि ग्रुप खत्म हो जाए. लेकिन बाद में हालात बदल गए. काबुल की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाते बढ़ाते, आईएस-के अफगान सरकार के खिलाफ हो गया.

एक आईएस-के उत्तर में उभर आया, जिसके बारे में मॉस्को ने आरोप लगाया कि उसे अमेरिका का समर्थन मिला हुआ है. फिर एक आईएस-के ने काबुल में सिर उठाया. काबुल का ग्रुप दूसरे ग्रुप्स के मुकाबले ज्यादा ताकतवर था, और उसके नेता और नेटवर्क्स के बारे में कोई नहीं जानता था. ग्रुप का स्वरूप भी बहुत अनोखा है. नंगरहार में आईएस-के के लगभग सभी सदस्य पाकिस्तानी हैं. जबकि उत्तर में उसमें मध्य एशियाई मूल के लड़ाके शामिल हैं. काबुल में वह कैसा है, कोई नहीं जानता.
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क्या IS-K खुद हक्कानी है?

2020 तक आईएस-के शिया लोगों पर बड़े हमले कर रहा था और फिर शांतिपूर्ण तरीके से रहने वाले सिखों को निशाना बनाया जाने लगा. तालिबान ने ऐसा कभी नहीं किया था.

दिलचस्प बात यह है कि इनमें से एक हमलावर मोहम्मद मोहसिन केरल से है. भारत की राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को पता चला है कि 2018 से ऑनलाइन रिक्रूटमेंट अभियान के जरिए केरल के कैडर्स आईएस-के में शामिल हो रहे हैं. इसके बाद खबरें आईं कि उनके परिवार अफगान जेलों में बंद हैं. यह ध्यान देने लायक है कि भारतीय अब तक सीरिया में, या यहां तक ​​कि कश्मीर संघर्ष में भी आईएस के लालच में नहीं फंसे हैं.

हालांकि अफगान खुफिया एजेंसी ने असलम फारूकी को मूल रूप से पाकिस्तान के ओरकजई से गिरफ्तार किया था. फारुकी पहले लश्कर-ए-तैयबा के साथ था. इससे भी अच्छी एक बात है. जून 2021 में संयुक्त राष्ट्र की 12वीं मॉनिटरिंग रिपोर्ट में आईएस-के और हक्कानी नेटवर्क के बीच मजबूत दोस्ती का जिक्र है. संभव है कि इसका नेता शहाब अल-मुहाजिर शायद पहले हक्कानी कमांडर था. अफगान अधिकारी तो लंबे समय से कहते आए हैं कि काबुल में आईएस-के कोई और नहीं, बल्कि खुद हक्कानी हैं.
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इसका क्या नतीजा होगा?

अब लगता है कि अमेरिका ने अपना बदला ले लिया है. यह सिर्फ अमेरिकी वोटर्स के लिए अहम नहीं है. पूरी दुनिया को ऐसा लगने लगा था कि अमेरिका का वक्त गुजर चुका है. फिलहाल उसकी इज्जत बच गई है. लेकिन कहानी अभी बाकी है. ‘योजनाकार’ मारा गया है लेकिन ग्रुप अभी मौजूद है. और इसमें कोई शक नहीं कि अमेरिका बाकियों का भी काम तमाम करना चाहेगा.

ग्रुप का बाकी का कैडर पाकिस्तान खिसक गया होगा. सवाल यह है कि इसकी खूफिया जानकारी अमेरिका को कौन देगा? हमले की मौजूदा चेतावनी शायद अफगान खुफिया एजेंसियों के उन सदस्यों से मिली हो, जो अब भी अमेरिका के खैरख्वाह हों. नेशनल डायरेक्टोरेट ऑफ सिक्योरिटी भी उनकी गतिविधियों की सूचना दे सकती है, जो कभी बहुत काबिल एजेंसी हुआ करती थी. अब वे इसे मानें या न मानें, यह अलग बात है.
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दूसरी संभावना यह है कि आईएस-के दोबारा से संगठित हो, और हमले करे. यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे इन हमलों से क्या हासिल करना चाहते हैं. याद कीजिए कि मुल्ला बरादर को 2010 में पाकिस्तान ने गिरफ्तार किया गया था. उस पर आरोप लगाया गया था कि वह पाकिस्तान की चुगली कर रहा था और नए राष्ट्रपति हामिद करजई से अलग से शांति वार्ता कर रहा था. उस समय यह बात इंताबुल और अमेरिका, दोनों को रास नहीं आई थी. लगता है, जब बरादार शीर्ष पदों को गुल आगा और मुल्ला जाकिर के लिए महफूज करने की कोशिश कर रहा है तब उसे फिर से याद दिलाया गया है कि असली आका कौन है. ध्यान देने की बात यह है कि काबुल अमेरिका की कूटनीतिक मौजूदगी चाहता है, जबकि तुर्की की सेना के हाजिर होने की भी अफवाहें हैं. दूसरे शब्दों में काबुल हिफाजत चाहता है.

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अमेरिका के लिए डगर कठिन है

तीसरी संभावना यह है कि, जोकि आगे के हमलों से और पुष्ट हो सकता है, कि अमेरिका न सिर्फ अपना दूतावास बहाल रखे, बल्कि एक स्पेशल फोर्सेज़ ग्रुप भी बनाए जोकि हमलावरों को ढूंढ निकाले. यह ग्रुप समुद्र में किसी जहाज पर तैनात किया जा सकता है, जो तब काम करना शुरू करे, जब खुफिया जानकारी मिल जाए. इसका एक मतलब यह भी है कि पाकिस्तान के एयरस्पेस पर उड़ान भरी जाए. यानी इस्लामाबाद को और तोहफे मिल सकते हैं. दूसरे शब्दों में, यह अफगानिस्तान में अमेरिका की मौजूदगी का एक और कारण बन सकता है, और दौलत की बारिश का सबब भी.

चौथा, और जिसकी संभावना सबसे कम है, पर असर जोरदार. अमेरिका पाकिस्तान के वजीरिस्तान और उन इलाकों में बम गिराए जहां मुसीबत की जड़ है. सच तो यह है कि राष्ट्रपति बाइडेन दूसरे सभी राष्ट्रपतियों के मुकाबले पाकिस्तान की कारस्तानियों से ज्यादा अच्छी तरह से वाकिफ हैं. वह कभी इस बात से अचंभित हुआ करते थे कि पाकिस्तान में अल कायदा को निशाना क्यों नहीं बनाया गया.

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फॉरेन रिलेशंस कमिटी के सीनेटर और चेयरमैन होने के नाते उन्होंने एक ऐसे कानून की रूपरेखा तैयार की थी जिसके जरिए पाकिस्तान को तिगुनी आर्थिक मदद दी गई थी, लेकिन उसके साथ एक शर्त भी जुड़ी हुई थी. वह यह कि “विदेश मंत्री यह प्रामाणित करेंगे कि पाकिस्तानी सुरक्षा बल अल कायदा और दूसरे संबंधित आतंकवादी गुप्स को पाकिस्तान में ऑपरेट करने से रोकने की कोशिश करेंगे... कोशिश करेंगे कि तालिबान पाकिस्तान को पनाहगाह के तौर पर इस्तेमाल न करे... और पाकिस्तान की राजनीतिक या न्यायिक प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण तरीके से दखल न दे.”

इससे पाकिस्तान की सेना नाराज हो गई थी, और अमेरिका से उसके द्विपक्षीय संबंध लगभग टूट गए थे. ऐसा फिर से हो सकता है. लेकिन एक सीनेटर और एक राष्ट्रपति, दोनों की पहल अलग-अलग होती है. फिर, इसके लिए अमेरिका को अपनी आंखों से कूटनीतिक पट्टी भी हटानी होगी, और इस सच्चाई का सामना करना पड़ेगा कि इस्लामाबाद ने उसे कठपुतली की तरह इस्तेमाल किया है.

इस बीच अगाथा क्रिस्टी के किरदार हरक्यूल पोयरोट की सलाह मानें. एक किताब में पोयरोट ने कहा था, 'हत्या में हमेशा यह देखें कि उससे किसे फायदा होगा.' हवाई अड्डे पर जो भी हुआ, आखिरकार वह हत्या ही तो थी.

(डॉ. तारा कर्था इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कंफ्लिक्ट स्टडीज़ (आईपीसीएस) की डिस्टिंग्विश्ड फेलो हैं. वह @kartha_tara पर ट्विट करती हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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