अभी तक अमेरिकी स्पीकर नैंसी पेलोसी(Nancy Pelosi) के ताइवान दौरे पर चीन से जिस तरह की प्रतिक्रिया की उम्मीद की जा रही थी, लगभग ये वैसी ही रही है, जैसे सैन्य अभ्यास, ताइवान की हवाई सीमा में घुसपैठ और आर्थिक पाबंदियां.
असली धक्का तो अमेरिका और चीन के रिश्ते को दुरस्त करने की संभावनाओं को लगा है. मुख्य मुद्दा यह है कि संबंधों में स्थिरता लाने के सवाल पर ही दोनों ही देश अलग अलग नजरिया रखते हैं. लेकिन इससे भी बड़ा संकट है– अमेरिका की असंगत नीति.
वैसे तो अमेरिका अभी लोकतंत्र और तानाशाही में चुनाव को अपनी मौजूदा नीति की बुनियाद बताता है. ताइवान की संसद में नैन्सी पेलोसी ने कहा, "आज, दुनिया लोकतंत्र और निरंकुशता के बीच एक विकल्प चुनने का सामना कर रही है. यहां ताइवान और दुनिया में लोकतंत्र बनाए रखने के लिए अमेरिका ने लोहे जैसा मजबूत संकल्प ले रखा है. ”
लेकिन फिर भी दो हफ्ते पहले ही अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन मध्यपूर्व में थे और लोकतंत्र विरोधी दो सरकारों सउदी अरब और इजरायल के साथ गलबहियां कर रहे थे. इस सबसे ज्यादा ऐसा लगता है कि पेलोसी का दौरा एशिया पैसिफिक में अमेरिकी दबदबा बढ़ाने के लिए था.
एक स्तर पर, लोकतंत्र और तानाशाही के बीच चुनाव को अमेरिका अपनी नीति बना रहा है लेकिन वहीं दो हफ्ते पहले ही अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन मध्य पूर्व में थे. उन दोनों ही देशों के दौरे पर जो लोकतंत्र विरोधी हैं.
कई मायने में असली संकट चीन की बढ़ती ताकत से निपटने को लेकर अमेरिका के भीतर आम सहमति का नहीं होना है.
1950 के दशक में चीन के लिए अमेरिका ने जो नीति बनाई उसे 2020 के दशक में जारी रखे जाने से भी स्थिरता को खतरा है.
कुछ विद्वान मौजूदा अमेरिका-चीन में तनातनी को Thucydides Trap के तौर पर देखते हैं जहां एक स्थापित ताकत किसी उभरती ताकत को मानने से इंकार कर देती है और युद्ध को टालना असंभव हो जाता है. लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं है जिसे टाला नहीं जा सके.
चीन पर बाइडन प्रशासन में कनफ्यूजन
कई मायनों में समस्या अमेरिका के भीतर बलवान होते चीन से निपटने को लेकर आम सहमति का नहीं होना है. करीब एक दशक पहले अमेरिका ने इलाके में चीनी वर्चस्व को कमजोर करने के लिए ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (TPP) बनाया और तब से यह सब ज्यादा ही कन्फ्यूजन का शिकार होता गया. यह समझौता अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की राजनीति में चर्चा का बड़ा मुद्दा रहा जबकि इसे लाने वाली यानि मूल प्रस्तावक हिलेरी क्लिंटन ने भी इसकी निंदा की थी. इसलिए इस बात पर आश्चर्य नहीं कि राष्ट्रपति के रूप में डोनाल्ड ट्रम्प ने जो सबसे पहले कुछ काम किए थे, उसमें से TPP को छोड़ने का फैसला था. उन्होंने इसे अमेरिकी के हितों के खिलाफ बताया था.
बाइडेन प्रशासन इस मामले में बहुत असमंजस में लग रहा है. बाइडेन प्रशासन मार्च 2021 में एक अंतरिम सिक्योरिटी स्ट्रेटेजिक गाइडेंस लेकर आया था और कहा था कि भविष्य की चुनौतियों का जवाब सिर्फ लोकतंत्र के पास है. इसके लिए, अमेरिका को अपना घर ठीक करना होगा और अपने सहयोगियों , भागीदारों के साथ मिलकर काम करना होगा.
जहां तक चीन का सवाल है, अमेरिका ने रणनीतिक प्रतिस्पर्धा की बात कही, जो जरूरी नहीं कि बीजिंग के साथ कामकाज को रोके.
मई के अंत में अमेरिकी विदेश मंत्री, एंटनी ब्लिंकन ने बाइडेन प्रशासन की क्लासिफाइड यानी सीक्रेट चीन नीति की कुछ झलकियां दिखाई. उन्होंने कहा कि अमेरिका की रणनीति आसपास के माहौल को भांपते हुए चीन को मजबूर करना है. बाइडेन प्रशासन इस नतीजे पर पहुंचा था कि उसने दशकों तक चीन के साथ सीधा आर्थिक और कूटनीतिक जुड़ाव बढ़ाया लेकिन इससे वो चीन को अपने सांचे में ढाल नहीं पाए.
अब समय आ गया है कि चीन के इर्दगिर्द सहयोगियों की घेराबंदी बनाई जाए. चीन को काबू में करने के लिए सैनिक और आर्थिक दोनों ही तरह से कड़ाई की जाए.
इसी रणनीति के तहत अमेरिका ने एशिया-प्रशांत की अवधारणा को हिंद-प्रशांत में बदल दिया. 2017 में क्वाड को पुनर्जीवित करके इसमें भारत को लाकर, अमेरिका ने इलाके में चीन के दबाव को कम करने की कोशिश की.
क्वाड को लोकतांत्रिक देशों का एक ऐसा समूह बताया गया जो समंदर में चीनी अतिक्रमण के खिलाफ सबकी आजादी की बात करता है.
Quad, IPEF, AUKUS: क्यों इतने समूह ?
बाइडेन प्रशासन ने क्वाड पर जोर दोगुना कर दिया है. शिखर-स्तरीय बैठकें करके क्वाड का दर्जा बढ़ा दिया है. अभी आखिरी बार क्वाड मीटिंग मई में टोक्यो में हुई. चूंकि अमेरिकी नेता TPP में वापसी का समर्थन करने वाले नहीं थे, इसलिए बाइडेन ने चीनी आर्थिक चुनौती को दूर करने के लिए इंडो-पैसिफिक इकोनॉमिक फोरम (IPEF) शुरू कर दिया है.
हालांकि QUAD को लेकर पहले से ही माना जा रहा था कि ये मिलिटरी एलायंस के तौर पर आगे नहीं बढ़ेगा, क्योंकि इस तरह की कोशिशों में शामिल होने को लेकर भारत के मन में संदेह है. इस बात को समझते हुए ही अब अमेरिका ने एक नया संगठन बनाया है. इस वेंचर में अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया में मिलिटरी साझेदारी है. ये संगठन अब AUKUS कहलाता है.
अपनी इस एशिया-प्रशांत नीति में बाइडेन प्रशासन कुछ हद तक सही भी है जहां वो कहता है कि कई मुद्दों पर वो चीन को पछाड़ देगा. क्वाड का एजेंडा, जैसा कि इसके हालिया शिखर सम्मेलनों से पता चलता है COVID-19 महामारी से जंग में सहयोग, अंतरिक्ष में बुनियादी ढांचे, जलवायु परिवर्तन, साइबर-सुरक्षा और महत्वपूर्ण और उभरती तकनीक जैसे क्षेत्र से संबंधित है. IPEF बुनियादी ढांचे के मुद्दे पर ध्यान केंद्रित करना चाहता है. वो सप्लाई चेन में मजबूती पर फोकस करना चाहता है जिसका मतलब चीन पर जो निर्भरता है उसे खत्म कर एक विकल्प तैयार करना है.
लेकिन अगर वो क्वाड को लेकर गंभीर है तो अमीर देशों को इस पर ज्यादा पैसे खर्च करने होंगे.
दरअसल सिर्फ स्टैंडर्ड बनाने या फिर नेटवर्क को बढ़ावा देने से बात नहीं बनेगी. इसकी कोई अहमियत नहीं रहेगी, जब तक कि पूरे एशिया-प्रशांत क्षेत्र में आवश्यक बुनियादी ढांचे में निवेश करने के लिए पर्याप्त कमिटमेंट ना हो.
हाल ही में G-7 बैठक में अमेरिका ने कहा कि वह ग्लोबल इंफ्रास्ट्रक्चर और निवेश के लिए एक नई साझेदारी के लिए $200 बिलियन की पेशकश करेगा. अमेरिका ने यह भी कहा था कि वो उम्मीद करता है कि दूसरे सदस्य देश 2027 तक इसे बढ़ाकर $400 बिलियन तक लाएंगे. इसका लक्ष्य प्राइवेट सेक्टर में निवेश बढ़ाना है लेकिन फिर यह वैश्विक कोशिश होगी और सिर्फ इंडो-पैसिफिक तक सीमीत नहीं रहेगी.
अब जरा इतिहास को देखें
चीन के प्रति अमेरिकी नीति में बुनियादी दिक्कत है. अमेरिका की नीति च्यांग काई-शेक पर कम्युनिस्ट चीन की जीत से बनी. गृहयुद्ध में अमेरिका ने च्यांग काई शेक को समर्थन दिया था लेकिन वो युद्ध में पिछड़ गए और अमेरिका के साथ एक रक्षा संधि पर हस्ताक्षर किया, जिसने नए पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के तट पर एक करीबी हवाई और नौसैनिक तैनाती को बनाए रखा. लेकिन जब अमेरिका ने फैसला किया कि वो बीजिंग के साथ दोस्ती बढ़ाएगा तो इसने वन चाइना पॉलिसी को मंजूर कर लिया. इसने ताइपेई के साथ मिलिटरी समझौता रद्द कर दिया और ऐलान किया कि वह सिर्फ ताइवान की आत्मरक्षा के लिए कमिटेड है. लेकिन सैन्य तैनाती इलाके में बनी रही.
लेकिन जब अमेरिका ने फैसला किया कि वो बीजिंग के साथ दोस्ती बढ़ाएगा तो इसने वन चाइना पॉलिसी को मंजूर कर लिया. इसने ताइपेई के साथ मिलिटरी समझौता रद्द कर दिया और ऐलान किया कि वह सिर्फ ताइवान की आत्मरक्षा के लिए कमिटेड है. लेकिन सैन्य तैनाती इलाके में बनी रही.
1950 से 2000 के बीच पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) काफी हद तक एक स्थिर सैन्य ताकत थी और पीएलए नौसेना में देश के समुद्र तट की रक्षा करने की क्षमता थी. लेकिन 2000-2020 के बीच चीनी इकोनॉमी में जोरदार तेजी आने से पीएलए ने भी अपने पंख तेजी से फैला लिए.
मैन्युफैक्चरिंग में अपना कमाल दिखाने के बाद चीन ने पश्चिमी देशों के साथ अपना रिश्ता सफलतापूर्वक बनाया और अब चीन चाहता था कि अमेरिका उसका राजनीतिक-सैन्य वर्चस्व माने विशेष तौर एशिया-प्रशांत क्षेत्र में.
लेकिन अमेरिका कुछ भी मानने को तैयार नहीं है. वो इस क्षेत्र में अपना दबदबा बनाए रखना चाहता है. उसकी अपनी सैन्य क्षमता तो है ही, साथ ही उसने अपने मित्र राष्ट्र दक्षिण कोरिया, जापान, ओकिनावा, फिलीपींस, गुआम और सिंगापुर के जरिए भी एक घेराबंदी खींच रखी है और अमेरिका का पार्टनर ताइवान चीनी महत्वाकांक्षाओं के लिए एक स्टॉपर के तौर पर काम करता है.
1950s के लिए जो नीतियां बनाई गई थीं उसे अब 2020s के दशक में भी चलाना इलाके की स्थिरता को डांवाडोल कर रहा है. साल 1950 में ग्लोबल जीडीपी में अमेरिका का हिस्सा 50 परसेंट था जो अब घटकर साल 2018 में 14 परसेंट हो गया है. आज GDP में 18 परसेंट की हिस्सेदारी के साथ चीन , अमेरिका से ज्यादा बड़ा हो गया है. वहीं PLA की नौसेना की संख्या अमेरिका की तुलना में ज्यादा ही है.
'होना ही है का रोना ना रोएं '
इस तरह की तनातनी और मिलिटरी तैनाती सैन्य टकराव को जन्म देती है, चाहे वो ताइवान में हो या दक्षिण चीन सागर में. ताइवान पर युद्ध अगर हुआ तो इसका नतीजा द्वीप का विनाश होगा. जबकि इसकी इंडस्ट्रियल क्षमता के बेहतर इस्तेमाल से दुनिया लाभान्वित होती है. यही कारण है कि न्यूयॉर्क टाइम्स के टॉम फ्रीडमैन जैसे व्यक्ति, जो चीन के प्रति कट्टर हैं, ने भी पेलोसी यात्रा को "पूरी तरह से लापरवाह, खतरनाक और गैर जिम्मेदाराना" करार दिया है.
कुछ विद्वान मौजूदा यूएस-चीन बातचीत को थ्यूसीडाइड्स ट्रैप के तौर पर देखते हैं. एक स्थापित शक्ति बढ़ती शक्ति को मानने से इंकार कर देती है और युद्ध को टालना असंभव हो जाता है. लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है. बिना चीन से रिश्ता बिगाड़े भी अमेरिका अपने हितों की रक्षा कर सकता है. जैसा कि 2013 में अमिताई एट्जयोनी ने बताया, "तुष्टिकरण को एकतरफा रियायत के रूप में गलत नहीं समझा जाना चाहिए". दोनों पक्षों को अपने मूल हितों को स्पष्ट रखना है. फिर एक ऐसे तरीके पर बातचीत करने की जरूरत है जो कम से कम विश्व शांति को बनाए रखने में मदद करे.
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