राजे का राज. कम से कम फिलहाल राजस्थान में तो ये कहा ही जा सकता है. मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के बीच 74 दिन से गतिरोध जारी था. दोनों की तनातनी राज्यसभा सांसद मदन लाल सैनी को राज्य इकाई का प्रमुख नियुक्त किए जाने के बाद आखिरकार शुक्रवार को खत्म हो गई.
इस नाम ने कई लोगों को हैरान किया है. कल तक जिस नेता के बारे में जानने के लिए मेहनत करनी पड़ रही थी, वो अचानक राज्यसभा सांसद और फिर प्रदेश बीजेपी का मुखिया बन गया. जिन लोगों की भी इस घटनाक्रम पर नजर होगी, उनमें से कई लोगों ने सैनी का नाम गूगल किया होगा. मैंने भी किया.
74 साल के सैनी को वो हाॅट सीट मिली है, जो इस बात को सुनिश्चित करने में अहम भूमिका निभाती है कि पार्टी को दिसंबर में होने वाले चुनाव में 100 सीटें मिलें और सत्ता कमान पार्टी के हाथ में रहे.
ये सैनी के लिए एक कठिन काम होगा और देखना होगा कि वो इसे कैसे निभाते हैं. हालांकि, पार्टी के शीर्ष पर उनका पहुंचना कुछ चीजों को साफ करता है.
नए लीडरशिप बनाए जाने के खिलाफ हैं वसुंधरा!
सबसे पहला, इस घटनाक्रम ने राज्य में वसुंधरा राजे की सुप्रीमेसी पर मुहर लगाया है. हाई कमांड चाह कर भी राजे को ओवरपावर नहीं कर सकी. केंद्रीय मंत्री और जोधपुर के सांसद गजेंद्र सिंह शेखावत का नाम इस पद के लिए राजे को मंजूर नहीं था. राजे लंबे समय तक केंद्रीय नेतृत्व के फैसले को लागू न करने देने पर अड़ी रहीं.
शुरुआत से ही राजे ने ये साफ कर दिया था कि वो किसी नए लीडरशीप को पनपने नहीं देंगी. भले ही इसके लिए उन्हें फिलहाल उन नेताओं के साथ शांति से तालमेल बिठानी पड़ जाए जिनके साथ उनकी तल्खी रही हो. राज्यसभा सांसद ओमप्रकाश माथुर से मुलाकात इसका एक उदाहरण है.
दूसरा, इसने पार्टी वर्कर्स को कंफ्यूज कर दिया है कि बीजेपी 2018 का मिशन युवा मतदाताओं को लुभाने, डिजिटल रूप से चार्ज रहने और हमेशा आगे बढ़ने को लेकर है. नए प्रदेश अध्यक्ष बीते जमाने के हैं, वो रोडवेज बस से यात्रा करना पसंद करते हैं. जी हां, आपने सही पढ़ा.
टीवी पर एक बयान में उन्होंने कहा था, "नए युग से सीखने और उसे अपनाने की कोशिश करूंगा." 4 महीने से थोड़ा ज्यादा समय में भले ही उन्हें सीखने का समय न मिले.
चार दशकों के राजनीतिक करियर में वो सिर्फ एक बार चुनाव जीतने में कामयाब रहे हैं और इसके अलावा उनके राजनीतिक सीवी को असरदार बनाने वाला कुछ भी नहीं है. 2008 में, वो एमएलए इलेक्शन में चौथे स्थान पर आए और दो बार संसदीय चुनाव हारे. इस साल की शुरुआत में राज्यसभा के लिए नाॅमिनेट किया जाना एक खासियत मानी जा सकती है.
राजपूत मतदाताओं में बढ़ेगी नाराजगी?
तीसरा, पार्टी का उनके चुनाव का बचाव ये कहकर करना कि वो एक मृदुभाषी, ईमानदार नेता हैं जो सभी को स्वीकार्य है, लेकिन ये शायद ही प्रभावशाली हो. पहले शेखावत का नाम बढ़ाना और फिर बाहर करना. ये राजपूत मतदाताओं को नाराज कर सकता है, जो गैंगस्टर आनंदपाल के मुठभेड़ और पद्मावत विवाद से उलझन में हैं.
जातिगत समीकरण के आधार पर देखें तो सैनी ओबीसी हैं और उसी ‘माली’ समुदाय से आते हैं जिससे अशोक गहलोत हैं.
राजस्थान की राजनीति के बारे में जानने वाले किसी व्यक्ति से पूछें तो वो बता देगा कि राज्य में तीन प्रतिशत माली वोटों की बात आने पर गहलोत को चुनौता देने वाला कोई नहीं है.
एंटी इंकमबेंसी के बावजूद चुनाव की कमान वसुंधरा के ही हाथ में
चौथा, इस पूरे प्रकरण ने केंद्रीय नेतृत्व को कमजोर साबित किया है. स्थानीय चुनावों में कमजोर प्रदर्शन के बावजूद केंद्रीय नेतृत्व अपनी पसंद के नेता को प्रदेश की कमान नहीं सौंप पाया.
ताजा फैसले से साफ हो गया है कि राजे के खिलाफ एंटी इंकमबेंसी होने के बावजूद अगले चुनावों में वहीं नेतृत्व करेंगी. इससे उन लोगों को झटका लगा है जो लीडरशिप में बदलाव के जरिए 5 साल में सत्ता बदलने के ट्रेंड में बदलाव की उम्मीद लगाए बैठे थे.
करीब दो बजे, ऑफिस जाते वक्त मैंने बीजेपी ऑफिस के बाहर कुछ गाड़ियां देखीं. हांलाकि गाड़ियों की संख्या के लिहाज से कार्यकर्ताओं की संख्या काफी कम थी. उनमें से एक से मैंने पूछा “क्या नए अध्यक्ष ने चार्ज ले लिया है.’’ जवाब मिला, ‘’नहीं, लेकिन उनके आने से क्या होगा.’’ इससे पता चलता है कि दिसंबर 2018 में पार्टी किस ओर जा रही है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और जयपुर में रहते हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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