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सेना को एक लक्ष्मण रेखा खींचकर ‘ना’ कहना सीखना चाहिए

सेना को हर काम के लिए बार-बार बुलाया जाना स्थानीय प्रशासन की नाकामी दर्शाता है

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मुंबई में तीन ओवरब्रिज को 31 जनवरी 2018 तक सेना के इंजीनियर बनाएंगे, ये खबर चौंकाने वाली है. हालांकि रक्षा मंत्री निर्मला सीतारामन ने मुंबईवासियों का दिल जीतने के लिए इसे सद्भावना बताते हुए गर्व के साथ पेश किया. उन्होंने बताया कि जब इस बात की गुजारिश सेना प्रमुख जनरल रावत से की गई तो वो तैयार हो गए.

लेकिन उन्होंने ये नहीं बताया कि रेलवे या एशिया का सबसे अमीर नगर निगम बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन तीन ओवरब्रिज क्यों नहीं बना सकते थे. जिसके लिए सेना से गुजारिश करनी पड़ी. फुट ओवरब्रिज इतनी बड़ी चीज तो है नहीं!

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नगर प्रशासन अपने कर्तव्य से मुकर रहा है

सेना के लिए ये कोई तर्कसंगत काम नहीं है और इसे पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट या रेलवे की कोई एजेंसी आसानी से कर सकती है.

सेना को बुलाया जाना स्थानीय प्रशासन की नाकामी दर्शाता है और इसने सेना के शुभचिंतकों, मौजूदा और रिटायर्ड सैनिकों के साथ साथ रेलवे के इंजीनियरों को नाराज कर दिया है. सरकार की तरफ से की गई गुजारिश को सेना आदेश समझती है.

सूत्रों की तरफ से मुझे एक सच्ची कहानी सुनने को मिली. सेना के ऑपरेशन्स रूम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहली ब्रीफिंग में एक पूर्व सेना प्रमुख (जनरल दलबीर सिंह नहीं) से ज्यादा सवाल नहीं पूछे गए थे. मोदी ने सेना के आकार पर सवाल उठाए. सवाल से सकते में आए जनरल को पहले कुछ नहीं सूझा और फिर उन्होंने कहा, 'आप सही कह रहे हैं...लेकिन हम सेना का इस्तेमाल नागरिक कार्यों के लिए कर सकते हैं'.

वहां मौजूद दूसरे जनरल भौंचक्के रह गए थे.

बता दें कि तमिल टाइगर्स को हराने के बाद श्रीलंका की सेना अपनी एक तिहाई शक्ति का इस्तेमाल लोगों के लिए करती है.

कम महत्व के काम करने को मजबूर

नागरिक असंतोष, आपातकाल और दूसरे प्रशासनिक गड़बड़ियों, जिसमें प्राकृतिक आपदा में राहत भी शामिल हैं, में सिविल ऑथोरिटी की मदद करना सेना की प्राथमिकता नहीं है.

पहले सेना ने गुटनिरपेक्ष देशों की बैठक, राष्ट्रमंडल खेल और दूसरी राष्ट्रीय गतिविधियों के आयोजन में सहायता दी है जिनसे राष्ट्र की प्रतिष्ठा और सम्मान जुड़ा रहा है.अनुशासन, सटीक कार्य और गुणवत्ता ही सेना को नागरिक संस्थानों से अलग बनाती है.

लेकिन राज्य और केंद्र सरकारों की ये प्रवृत्ति बन गई है कि वो अपने संसाधनों का इस्तेमाल करने की बजाय तुरंत ही सेना को बुलावा भेजते हैं. वहीं सेना के हाई कमान में भी गुजारिश होते ही बिना कुछ सोचे-समझे उसे मान लेने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, ताकि राजनीतिक आकाओं को खुश किया जा सके.

ये तय करने का कोई मैकेनिज्म नहीं है कि क्या सेना को सौंपा गया मिशन उसके पेशेवर कर्तव्यों के दायरे में आता है या नहीं. चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ ही नागरिक संस्थानों के अनुरोध पर इस चीज का फैसला करता है. अक्सर ये सेना प्रमुख का विशेषाधिकार हो जाता है कि वो पुलों का या बॉक्सिंग रिंग को बनाने का अनुरोध स्वीकार करे.

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पीपा पुल बनाने से लेकर कचरा निस्तारण तक

सेना को सौंपे गए कुछ काम तो किसी मतलब के नहीं हैं. पिछले साल, सैनिकों को राष्ट्रीय योग दिवस पर राजपथ पर मैट बिछाने को कहा गया था. इस काम में कुछ भी प्रोफेशनल नहीं था लेकिन सेना प्रमुख ने ना तो आपत्ति जताई और ना ही इस गुजारिश को खारिज किया, शायद इसलिए कि मोदी योग प्रदर्शन की अगुवाई कर रहे थे.

इसी साल, सेना ने आर्ट ऑफ लिविंग के कार्यक्रम के लिए यमुना पर पीपा पुल का निर्माण किया और इसके लिए अपने उपकरणों का इस्तेमाल किया, वो भी युद्ध के लिए तैयार रहने के लक्ष्य को जोखिम में डालकर.

ऐसे और भी कई काम सेना को सौंपे गए होंगे जिन पर चर्चा नहीं हुई और ये बस अफसरों और राजनेताओं को खुश करने के लिए कराए गए होंगे.

पवित्र नदियों से कचरा निकालने की निगरानी और पहाड़ों पर कचरा जमा करना निश्चित रूप से सेना के कर्तव्यों में तो नहीं हैं.

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पेशेवर कर्तव्य से विचलन का इतिहास

सेना के कामों में ये गंदगी 1960 से आनी शुरू हुई, जब लेफ्टिनेंट जनरल बी एम कौल ने ऑपरेशन अमर के तहत सैनिकों के लिए 1450 क्वार्टर बनाने की अपनी इच्छा जताई.

सैनिकों को घर उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है. सैनिकों को युद्ध के लिए प्रशिक्षण लेना चाहिए, ना कि घर बनाना. 1962 की लड़ाई में सेना की हार के समय कौल ही प्रमुख थे.

कौल को नेहरू का प्रिय माना जाता था. उन्हें ऑपरेशन अमर के लिए 1960 में पहले परम विशिष्ट सेवा मेडल से सम्मानित किया गया था. और यही वो दौर था जब सेना के राजनीतिकरण की शुरुआत हो गई थी, जिसने उस 'हिमालयी भूल' को जन्म दिया जिसकी कीमत राष्ट्र आज तक चुका रहा है. खुशकिस्मती से इस गंदगी पर जनरल दौलत सिंह जैसे हिम्मती अफसरों ने लगाम लगाई.

इस बारे में आर्मी चीफ जनरल टी एन रैना का एक मामला याद आता है, जब रक्षा मंत्री बंसी लाल ने उनसे बोट क्लब लॉन में एक राजनीतिक रैली के लिए सेना के वॉटर ट्रक उपलब्ध कराने की 'गुजारिश' की थी. लेकिन रैना ने उनकी बात मानने से इनकार कर दिया था और ना सिर्फ उन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया बल्कि कनाडा के उच्चायुक्त भी बने. रिटायरमेंट के बाद लुभावने पदों का लालच सेना प्रमुखों को वो करने या कहने पर मजबूर कर देता है जो उन्हें नहीं करना या कहना चाहिए.

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सशस्त्र सेनाओं का राजनीतिकरण

सेना जम्मू-कश्मीर और उत्तर पूर्व में बेहतरीन नागरिक कार्यों में लगी है जो ऑपरेशन सद्भावना के तहत भ्रमित युवाओं का दिल-दिमाग जीतने के लिए शुरू किए गए. लेकिन जम्मू कश्मीर में राजनीतिक हालात बदलने से ये अभियान एक दशक से ज्यादा वक्त पहले रुक चुका है.

मोदी सैनिकों की क्षमता की सर्जिकल स्ट्राइक और डोकलाम के लिए तारीफें करते रहते हैं, लेकिन ये उनके खुद के और उनकी पार्टी के राजनीतिक लाभ के लिए ज्यादा होती हैं. बजाय इसके कि वो सेना का आधुनिकीकरण करें, वो बार-बार वन रैंक वन पेंशन के लिए खुद की पीठ ठोकते रहते हैं.

सिविल सोसाइटी के बीच पुलों- फुट ओवरब्रिज नहीं- को बनाना एक सेक्युलर, गैर-राजनीतिक और प्रोफेशनल सेना का तर्कसंगत काम है. लेकिन सेना को अपने कर्तव्यों के लिए एक लक्ष्मण रेखा खींचकर 'नहीं' कहना सीखना होगा.

(लेखक भारतीय सेना के रिटायर्ड मेजर जनरल हैं और डिफेंस प्लानिंग स्टाफ के फाउंडर मेंबर हैं. इस लेख में उनके विचार हैं और इनसे क्विंट की सहमति होना आवश्यक नहीं है)

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